बाय बाय

Shayari By

नाम उसका फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे। बानिहाल के दर्रे के उस तरफ़ उसके बाप की पनचक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअ’म्मर आदमी था।
दिन भर वो उस पनचक्की के पास बैठी रहती। पहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थी जिसमें ये पनचक्की लगाई गई थी। फातो के बाप को दो-तीन रुपये रोज़ाना मिल जाते, जो उसके लिए काफ़ी थे। फातो अलबत्ता उनको नाकाफ़ी समझती थी इसलिए कि उसको बनाव सिंघार का शौक़ था। वो चाहती थी कि अमीरों की तरह ज़िंदगी बसर करे।

काम काज कुछ नहीं करती थी, बस कभी कभी अपने बूढ़े बाप का हाथ बटा देती थी। उसको आटे से नफ़रत थी। इसलिए कि वो उड़ उड़ कर उसकी नाक में घुस जाता था। वो बहुत झुँझलाती और बाहर निकल कर खुली हवा में घूमना शुरू कर देती या चनाब के किनारे जा कर अपना मुँह-हाथ धोती और अ’जीब क़िस्म की ठंडक महसूस करती।
उसको चनाब से प्यार था। उसने अपनी सहेलियों से सुन रखा था कि ये दरिया इश्क़ का दरिया है जहां सोहनी-महींवाल, हीर-रांझा का इशक़ मशहूर हुआ। [...]

हामिद का बच्चा

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लाहौर से बाबू हरगोपाल आए तो हामिद घर का रहा न घाट का। उन्होंने आते ही हामिद से कहा, “लो, भई फ़ौरन एक टैक्सी का बंदोबस्त करो।”
हामिद ने कहा, “आप ज़रा तो आराम कर लीजिए। इतना लंबा सफ़र तय करके यहां आए हैं। थकावट होगी।”

बाबू हरगोपाल अपनी धुन के पक्के थे, “नहीं भाई मुझे थकावट-वकावट कुछ नहीं। मैं यहां सैर की ग़रज़ से आया हूँ। आराम करने नहीं आया। बड़ी मुश्किल से दस दिन निकाले हैं। ये दस दिन तुम मेरे हो। जो मैं कहूंगा तुम्हें मानना होगा। मैं अब के अय्याशी की इंतिहा करदेना चाहता हूँ... सोडा मँगवाओ।”
हामिद ने बहुत मना किया कि देखिए बाबू हरगोपाल सुबह-सवेरे मत शुरू कीजिए मगर वो न माने। बक्स खोल कर जॉनी वॉकर की बोतल निकाली और उसे खोलना शुरू कर दिया। [...]

मोना लिसा

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परियों की सर-ज़मीन को एक रास्ता जाता है शाह बलूत और सनोबर के जंगलों में से गुज़रता हुआ जहाँ रुपहली नद्दियों के किनारे चेरी और बादाम के सायों में ख़ूबसूरत चरवाहे छोटी-छोटी बाँसुरियों पर ख़्वाबों के नग़्मे अलापते हैं। ये सुनहरे चाँद की वादी है। never never।and के मग़रूर और ख़ूबसूरत शहज़ादे। पीटर पैन का मुल्क जहाँ हमेशा सारी बातें अच्छी-अच्छी हुआ करती हैं। आइसक्रीम की बर्फ़ पड़ती है। चॉकलेट और प्लम केक के मकानों में रहा जाता है। मोटरें पैट्रोल के बजाए चाय से चलती हैं। बग़ैर पढ़े डिग्रियाँ मिल जाती हैं।
और कहानियों के इस मुल्क को जाने वाले रास्ते के किनारे-किनारे बहुत से साइन पोस्ट खड़े हैं जिन पर लिखा है, “सिर्फ़ मोटरों के लिए”

“ये आम रास्ता नहीं”, और शाम के अँधरे में ज़न्नाटे से आती हुई कारों की तेज़ रौशनी में नर्गिस के फूलों की छोटी सी पहाड़ी में से झाँकते हुए ये अल्फ़ाज़ जगमगा उठते हैं, “प्लीज़ आहिस्ता चलाइए... शुक्रिया!”
और बहार की शगुफ़्ता और रौशन दोपहरों में सुनहरे बालों वाली कर्ली लौक्स, सिंड्रेला और स्नो-वाईट छोटी-छोटी फूलों की टोकरियाँ लेकर इस रास्ते पर चेरी के शगूफ़े और सितारा-ए-सहरी की कलियाँ जमा’ करने आया करती थीं। [...]

चुग़द

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लड़कों और लड़कियों के मआशिक़ों का ज़िक्र हो रहा था। प्रकाश जो बहुत देर से ख़ामोश बैठा अंदर ही अंदर बहुत शिद्दत से सोच रहा था, एक दम फट पड़ा, सब बकवास है, सौ में से निन्नानवे मआशिक़े निहायत ही भोंडे और लच्चर और बेहूदा तरीक़ों से अमल में आते हैं। एक बाक़ी रह जाता है, उसमें आप अपनी शायरी रख लीजिए या अपनी ज़ेहानत और ज़कावत भर दीजिए... मुझे हैरत है... तुम सब तजुर्बेकार हो। औसत आदमी के मुक़ाबले में ज़्यादा समझदार हो। जो हक़ीक़त है, तुम्हारी आँखों से ओझल भी नहीं।
फिर ये क्या हिमाक़त है कि तुम बराबर इस बात पर ज़ोर दिए जा रहे हो कि औरत को राग़िब करने के लिए नर्म-ओ-नाज़ुक शायरी, हसीन-ओ-जमील शक्ल और ख़ुशवज़ा लिबास, इत्र, लैवेंडर और जाने किस किस ख़ुराफ़ात की ज़रूरत है और मेरी समझ से ये चीज़ तो बिल्कुल बालातर है कि औरत से इश्क़ लड़ाने से पहले तमाम पहलू सोच कर एक स्कीम बनाने की क्या ज़रूरत है।”

चौधरी ने जवाब दिया, “हर काम करने से पहले आदमी को सोचना पड़ता है।”
प्रकाश ने फ़ौरन ही कहा, “मानता हूँ। लेकिन ये इश्क़ लड़ाना मेरे नज़दीक बिल्कुल काम नहीं... ये एक... भई तुम क्यों ग़ौर नहीं करते। कहानी लिखना एक काम है। इसे शुरू करने से पहले सोचना ज़रूरी है लेकिन इश्क़ को आप काम कैसे कह सकते हैं... ये एक... ये एक... ये एक... मेरा मतलब है। इश्क़ मकान बनाना नहीं जो आपको पहले नक़्शा बनवाना पड़े... एक लड़की या औरत अचानक आपके सामने आती है। आपके दिल में कुछ गड़बड़ सी होती है। फिर ये ख़्वाहिश पैदा होती है कि वो साथ लेटी हो। [...]

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