लड़कों और लड़कियों के मआशिक़ों का ज़िक्र हो रहा था। प्रकाश जो बहुत देर से ख़ामोश बैठा अंदर ही अंदर बहुत शिद्दत से सोच रहा था, एक दम फट पड़ा, सब बकवास है, सौ में से निन्नानवे मआशिक़े निहायत ही भोंडे और लच्चर और बेहूदा तरीक़ों से अमल में आते हैं। एक बाक़ी रह जाता है, उसमें आप अपनी शायरी रख लीजिए या अपनी ज़ेहानत और ज़कावत भर दीजिए... मुझे हैरत है... तुम सब तजुर्बेकार हो। औसत आदमी के मुक़ाबले में ज़्यादा समझदार हो। जो हक़ीक़त है, तुम्हारी आँखों से ओझल भी नहीं। फिर ये क्या हिमाक़त है कि तुम बराबर इस बात पर ज़ोर दिए जा रहे हो कि औरत को राग़िब करने के लिए नर्म-ओ-नाज़ुक शायरी, हसीन-ओ-जमील शक्ल और ख़ुशवज़ा लिबास, इत्र, लैवेंडर और जाने किस किस ख़ुराफ़ात की ज़रूरत है और मेरी समझ से ये चीज़ तो बिल्कुल बालातर है कि औरत से इश्क़ लड़ाने से पहले तमाम पहलू सोच कर एक स्कीम बनाने की क्या ज़रूरत है।” चौधरी ने जवाब दिया, “हर काम करने से पहले आदमी को सोचना पड़ता है।” प्रकाश ने फ़ौरन ही कहा, “मानता हूँ। लेकिन ये इश्क़ लड़ाना मेरे नज़दीक बिल्कुल काम नहीं... ये एक... भई तुम क्यों ग़ौर नहीं करते। कहानी लिखना एक काम है। इसे शुरू करने से पहले सोचना ज़रूरी है लेकिन इश्क़ को आप काम कैसे कह सकते हैं... ये एक... ये एक... ये एक... मेरा मतलब है। इश्क़ मकान बनाना नहीं जो आपको पहले नक़्शा बनवाना पड़े... एक लड़की या औरत अचानक आपके सामने आती है। आपके दिल में कुछ गड़बड़ सी होती है। फिर ये ख़्वाहिश पैदा होती है कि वो साथ लेटी हो।
[...]