वक़्फ़ा

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गुज़ाशतेम-ओ-गगुज़शीतेम-ओ-बूदनी हमा बूद
शुदेम-ओ-शुद सुख़न-ए-मा फ़साना-ए-इतफ़ाल

ये निशान हमारे ख़ानदान में पुश्तों से है। बल्कि जहां से हमारे ख़ानदान का सुराग़ मिलना शुरू होता है वहीं से इसका हमारे ख़ानदान में मौजूद होना भी साबित होता है। इस तरह उस की तारीख़ हमारे ख़ानदान की तारीख़ के साथ साथ चलती है।
हमारे ख़ानदान की तारीख़ बहुत मरबूत और क़रीब क़रीब मुकम्मल है, इसलिए कि मेरेअज्दाद को अपने हालात महफ़ूज़ करने और अपना शिजरा दरुस्त रखने का बड़ा शौक़ रहा है। यही वजह है कि हमारे ख़ानदान की तारीख़ शुरू होने के वक़्त से लेकर आज तक उस का तसलसुल टूटा नहीं है। लेकिन इस तारीख़ में बा’ज़ वक़फ़े ऐसे आते हैं... [...]

मुरासिला

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मुकर्रमी! आपके मूक़र अख़बार के ज़रीये में मुताल्लिक़ा हुक्काम को शहर के मग़रिबी इलाक़े की तरफ़ मुतवज्जा कराना चाहता हूँ। मुझे बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आज जब बड़े पैमाने पर शहर की तौसीअ हो रही है और हर इलाक़े के शहरीयों को जदीद तरीन सहूलतें बहम पहुंचाई जा रही हैं, ये मग़रिबी इलाक़ा बिजली और पानी की लाईनों तक से महरूम है। ऐसा मालूम होता है कि इस शहर की तीन ही सम्तें हैं। हाल ही में जब एक मुद्दत के बाद मेरा इस तरफ़ एक ज़रूरत से जाना हुआ तो मुझको शहर का ये इलाक़ा बिलकुल वैसा ही नज़र आया जैसा मेरे बचपन में था।
(१)

मुझे इस तरफ़ जाने की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन अपनी वालिदा की वजह से मजबूर हो गया। बरसों पहले वो बुढ़ापे के सबब चलने फिरने से माज़ूर हो गई थीं, फिर उनकी आँखों की रोशनी भी क़रीब क़रीब जाती रही और ज़हन भी माऊफ़ सा हो गया। माज़ूरी का ज़माना शुरू होने के बाद भी एक अर्से तक वो मुझको दिन रात में तीन चार मर्तबा अपने पास बुला कर कपकपाते हाथों से सर से पैर तक टटोलती थीं। दर असल मेरे पैदा होने के बाद ही से उनको मेरी सेहत ख़राब मालूम होने लगी थी। कभी उन्हें मेरा बदन बहुत ठंडा महसूस होता, कभी बहुत गर्म, कभी मेरी आवाज़ बदली हुई मालूम होती और कभी मेरी आँखों की रंगत में तग़य्युर नज़र आता। हकीमों के एक पुराने ख़ानदान से ताल्लुक़ रखने की वजह से उनको बहुत सी बीमारीयों के नाम और ईलाज ज़बानी याद थे और कुछ-कुछ दिन बाद वो मुझे किसी नए मर्ज़ में मुबतला क़रार देकर उस के ईलाज पुर इसरार करती थीं। उनकी माज़ूरी के इबतिदाई ज़माने में दो तीन बार ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ कि मैं किसी काम में पड़ कर उनके कमरे में जाना भूल गया, तो वो मालूम नहीं किस तरह ख़ुद को खींचती हुई कमरे के दरवाज़े तक ले आएं। कुछ और ज़माना गुज़रने के बाद जब उनकी रही सही ताक़त भी जवाब दे गई तो एक दिन उनके मुआलिज ने महिज़ ये आज़माने की ख़ातिर कि आया उनके हाथ पैरों में अब भी कुछ सकत बाक़ी है, मुझे दिन-भर उनके पास नहीं जाने दिया और वो ब-ज़ाहिर मुझसे बे-ख़बर रहीं, लेकिन रात गए उनके आहिस्ता-आहिस्ता कराहने की आवाज़ सुनकर जब मैं लपकता हुआ उनके कमरे में पहुंचा तो वो दरवाज़े तक का आधा रास्ता तै कर चुकी थीं। उनका बिस्तर, जो इन्होंने मेरे वालिद के मरने के बाद से ज़मीन पर बिछाना शुरू कर दिया था, उनके साथ घिसटता हुआ चला आया था। देखने में ऐसा मालूम होता था कि बिस्तर ही उनको खींचता हुआ दरवाज़े की तरफ़ लिए जा रहा था। मुझे देखकर इन्होंने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन तकान के सबब बेहोश हो गईं और कई दिन तक बेहोश रहीं। उनके मुआलिज ने बार-बार अपनी ग़लती का एतराफ़ और इस आज़माईश पर पछतावे का इज़हार किया, इसलिए कि इस के बाद ही से मेरी वालिदा की बीनाई और ज़हन ने जवाब देना शुरू किया, यहां तक कि रफ़्ता-रफ़्ता उनका वजूद और अदम बराबर हो गया।
उनके मुआलिज को मरे हुए भी एक अरसा गुज़र गया। लेकिन हाल ही में एक रात मेरी आँख खुली तो मैंने देखा कि वो मेरे पायँती ज़मीन पर बैठी हुई हैं और एक हाथ से मेरे बिस्तर को टटोल रही हैं। मैं जल्दी से उठकर बैठ गया। [...]

वो बुढ्ढा

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मैं नहीं जानती। मैं तो मज़े में चली जा रही थी। मेरे हाथ में काले रंग का एक पर्स था, जिसमें चांदी के तार से कुछ कढा हुआ था और मैं हाथ में उसे घुमा रही थी। कुछ देर में उचक कर फुटपाथ पर हो गई, क्योंकि मेन रोड पर से इधर आने वाली बसें अड्डे पर पहुँचने और टाइम कीपर को टाइम देने के लिए यहाँ आ कर एक दम रास्ता काटती थीं। इसलिए इस मोड़ पर आए दिन हादसे होते रहते थे।
बस तो ख़ैर नहीं आई लेकिन उस पर भी एक्सीडेंट हो गया। मेरे दाएं तरफ़ सामने के फुटपाथ के उधर मकान था और मेरे उल्टे हाथ स्कूल की सीमेंट से बनी हुई दीवार, जिसके उस पार मिशनरी स्कूल के फादर लोग ईस्टर के सिलसिले में कुछ सजा संवार रहे थे। मैं अपने आप से बेख़बर थी, लेकिन यकायक न जाने मुझे क्यों ऐसा महसूस होने लगा कि मैं एक लड़की हूँ जवान लड़की। ऐसा क्यों होता है, ये मैं नहीं जानती। मगर एक बात का मुझे पता है हम लड़कियाँ सिर्फ़ आँखों से नहीं देखतीं। जाने परमात्मा ने हमारा बदन कैसे बनाया है कि उसका हर पोर देखता, महसूस करता, फैलता और सिमटता है। गुदगुदी करने वाला हाथ लगता भी नहीं कि पूरा शरीर हंसने-मचलने लगता है। कोई चोरी चुपके देखे भी तो यूँ लगता है जैसे हज़ारों सुइयाँ एक साथ चुभने लगीं, जिनसे तकलीफ़ होती है और मज़ा भी आता है अलबत्ता कोई सामने बेशर्मी से देखे तो दूसरी बात है।

उस दिन कोई मेरे पीछे आ रहा था। उसे मैंने देखा तो नहीं, लेकिन एक सनसनाहट सी मेरे जिस्म में दौड़ गई। जहाँ मैं चल रही थी, वहाँ बराबर में एक पुरानी शेवरलेट गाड़ी आ कर रुकी, जिसमें अधेड़ उम्र का बल्कि बूढ़ा मर्द बैठा था। वो बहुत मो'तबर सूरत और रोब-दाब वाला आदमी था, जिसके चेहरे पर उम्र ने ख़ूब लड्डू खेली थी। उसकी आँख थोड़ी दबी हुई थी, जैसे कभी उसे लक़वा हुआ हो और विटामिन सी और बी काम्पलेक्स के टीके वग़ैरा लगवाने, शेर की चर्बी की मालिश करने या कबूतर का ख़ून मलने से ठीक तो हो गया हो, लेकिन पूरा नहीं। ऐसे लोगों पर मुझे बड़ा तरस आता है क्योंकि वो आँख नहीं मारते और फिर भी पकड़े जाते हैं। जब उसने मेरी तरफ़ देखा तो पहले मैं भी उसे ग़लत समझ गई, लेकिन चूँकि मेरे अपने घर में चचा गोविंद उसी बीमारी के मरीज़ हैं, इसलिए मैं असल वजह जान गई। देर तक मैं अपने आप को शर्मिंदा सी महसूस करती रही। उस बुढ्ढे की दाढ़ी थी जिसमें रुपये के बराबर एक सपाट सी जगह थी। ज़रूर किसी ज़माने में वहाँ उसके कोई बड़ा सा फोड़ा निकला होगा जो ठीक तो हो गया लेकिन बालों को जड़ से ग़ायब कर गया। उसकी दाढ़ी सर के बालों से ज़्यादा सफ़ेद थी। सर के बाल खिचड़ी थे। सफ़ेद ज़्यादा और काले कम, जैसे किसी ने माश की दाल थोड़ी और चावल ज़्यादा डाल दिए हों। उसका बदन भारी था, जैसा कि इस उम्र में सब का हो जाता है। मेरा भी हो जाएगा क्या मैं टर्न गों कगी? लोग कहते हैं तुम्हारी माँ मोटी है, तुम भी आगे चल कर मोटी हो जाओगे अ'जीब बात है न कि कोई उम्र के साथ आप ही आप माँ हो जाए या बाप। बुढढे के क़द का अलबत्ता पता न चला, क्योंकि वो मोटर में ढेर था। कार रुकते ही उसने कहा, सुनो।
मैं रुक गई, उसकी बात सुनने के लिए थोड़ा झुक भी गई। [...]

पतझड़ की आवाज़

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सुब्ह मैं गली के दरवाज़े में खड़ी सब्ज़ी वाले से गोभी की क़ीमत पर झगड़ रही थी। ऊपर बावर्ची-ख़ाने में दाल चावल उबालने के लिए चढ़ा दिए थे। मुलाज़िम सौदा लेने के लिए बाज़ार जा चुका था। ग़ुस्ल-ख़ाने में वक़ार साहिब चीनी की चिलमची के ऊपर लगे हुए मद्धम आईने में अपनी सूरत देखते हुए गुनगुना रहे थे और शेव करते जाते थे। मैं सब्ज़ी वाले से बहस करने के साथ-साथ सोचने में मसरूफ़ थी कि रात के खाने के लिए क्या-क्या तैयार किया जाए। इतने में सामने एक कार आन कर रुकी। एक लड़की ने खिड़की से झाँका और फिर दरवाज़ा खोल कर बाहर उतर आई। मैं पैसे गिन रही थी। इसलिए मैंने उसे न देखा। वो एक क़दम आगे बढ़ी। अब मैंने सर उठाकर उस पर नज़र डाली।
“अरे... तुम...!”, उसने हक्का-बक्का होकर कहा और वहीं ठिठक कर रह गई।

ऐसा लगा जैसे वो मुद्दतों से मुझे मुर्दा तसव्वुर कर चुकी है और अब मेरा भूत उसके सामने खड़ा है। उसकी आँखों में एक लहज़े के लिए जो दहशत मैंने देखी, उसकी याद ने मुझे बावला कर दिया है। मैं तो सोच-सोच के दीवानी हो जाऊँगी। ये लड़की (उसका नाम तक ज़हन में महफ़ूज़ नहीं और उस वक़्त मैंने झेंप के मारे उससे पूछा भी नहीं वर्ना वो कितना बुरा मानती) मेरे साथ दिल्ली के क्वीन मैरी में पढ़ती थी।
ये बीस साल पहले की बात है। मैं उस वक़्त कोई सत्रह साल की रही हूँगी। मगर मेरी सेहत इतनी अच्छी थी कि अपनी उ'म्र से कहीं बड़ी मा'लूम होती थी और मेरी ख़ूबसूरती की धूम मचनी शुरू’ हो चुकी थी। दिल्ली में क़ाएदा था कि लड़के-वालियाँ स्कूल-स्कूल घूम के लड़कियाँ पसंद करती फिरती थीं और जो लड़की पसंद आती थी, उसके घर ‘रुक़आ’ भिजवा दिया जाता था। [...]

बर्फ़बारी से पहले

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“आज रात तो यक़ीनन बर्फ़ पड़ेगी”, साहिब-ए-ख़ाना ने कहा। सब आतिश-दान के और क़रीब हो के बैठ गए। आतिश-दान पर रखी हुई घड़ी अपनी मुतवाज़िन यकसानियत के साथ टक-टक करती रही। बिल्लियाँ कुशनों में मुँह दिए ऊँघ रही थीं, और कभी-कभी किसी आवाज़ पर कान खड़े कर के खाने के कमरे के दरवाज़े की तरफ़ एक आँख थोड़ी सी खोल कर देख लेती थीं। साहिब-ए-ख़ाना की दोनों लड़कियाँ निटिंग में मशग़ूल थीं। घर के सारे बच्चे कमरे के एक कोने में पुराने अख़बारों और रिसालों के ढेर पर चढ़े कैरम में मसरूफ़ थे।
बौबी मुमताज़ खिड़की के क़रीब ख़ामोश बैठा इन सबको देखता रहा।

“हाँ आज रात तो क़तई’ बर्फ़ पड़ेगी”, साहिब-ए-ख़ाना के बड़े बेटे ने कहा।
“बड़ा मज़ा आएगा। सुब्ह को हम स्नोमैन बनाएँगे”, एक बच्चा चिल्लाया। [...]

काली शलवार

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दिल्ली आने से पहले वो अंबाला छावनी में थी जहां कई गोरे उसके गाहक थे। उन गोरों से मिलने-जुलने के बाइस वो अंग्रेज़ी के दस पंद्रह जुमले सीख गई थी, उनको वो आम गुफ़्तगु में इस्तेमाल नहीं करती थी लेकिन जब वो दिल्ली में आई और उसका कारोबार न चला तो एक रोज़ उसने अपनी पड़ोसन तमंचा जान से कहा, “दिस लैफ़... वेरी बैड।” यानी ये ज़िंदगी बहुत बुरी है जबकि खाने ही को नहीं मिलता।
अंबाला छावनी में उसका धंदा बहुत अच्छी तरह चलता था। छावनी के गोरे शराब पी कर उसके पास आजाते थे और वो तीन-चार घंटों ही में आठ-दस गोरों को निमटा कर बीस-तीस रुपये पैदा कर लिया करती थी। ये गोरे, उसके हम वतनों के मुक़ाबले में बहुत अच्छे थे। इसमें कोई शक नहीं कि वो ऐसी ज़बान बोलते थे जिसका मतलब सुल्ताना की समझ में नहीं आता था मगर उनकी ज़बान से ये लाइल्मी उसके हक़ में बहुत अच्छी साबित होती थी। अगर वो उससे कुछ रिआयत चाहते तो वो सर हिला कर कह दिया करती थी, “साहिब, हमारी समझ में तुम्हारी बात नहीं आता।”

और अगर वो उससे ज़रूरत से ज़्यादा छेड़छाड़ करते तो वो उनको अपनी ज़बान में गालियां देना शुरू करदेती थी। वो हैरत में उसके मुँह की तरफ़ देखते तो वो उनसे कहती, “साहिब, तुम एक दम उल्लु का पट्ठा है। हरामज़ादा है... समझा।” ये कहते वक़्त वो अपने लहजे में सख़्ती पैदा न करती बल्कि बड़े प्यार के साथ उनसे बातें करती। ये गोरे हंस देते और हंसते वक़्त वो सुल्ताना को बिल्कुल उल्लू के पट्ठे दिखाई देते।
मगर यहां दिल्ली में वो जब से आई थी एक गोरा भी उसके यहां नहीं आया था। तीन महीने उसको हिंदुस्तान के इस शहर में रहते होगए थे जहां उसने सुना था कि बड़े लॉट साहब रहते हैं, जो गर्मियों में शिमले चले जाते हैं, मगर सिर्फ़ छः आदमी उसके पास आए थे। सिर्फ़ छः, यानी महीने में दो और उन छः ग्राहकों से उसने ख़ुदा झूट न बुलवाए तो साढ़े अठारह रुपये वसूल किए थे। तीन रुपये से ज़्यादा पर कोई मानता ही नहीं था। [...]

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