बाय बाय

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नाम उसका फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे। बानिहाल के दर्रे के उस तरफ़ उसके बाप की पनचक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअ’म्मर आदमी था।
दिन भर वो उस पनचक्की के पास बैठी रहती। पहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थी जिसमें ये पनचक्की लगाई गई थी। फातो के बाप को दो-तीन रुपये रोज़ाना मिल जाते, जो उसके लिए काफ़ी थे। फातो अलबत्ता उनको नाकाफ़ी समझती थी इसलिए कि उसको बनाव सिंघार का शौक़ था। वो चाहती थी कि अमीरों की तरह ज़िंदगी बसर करे।

काम काज कुछ नहीं करती थी, बस कभी कभी अपने बूढ़े बाप का हाथ बटा देती थी। उसको आटे से नफ़रत थी। इसलिए कि वो उड़ उड़ कर उसकी नाक में घुस जाता था। वो बहुत झुँझलाती और बाहर निकल कर खुली हवा में घूमना शुरू कर देती या चनाब के किनारे जा कर अपना मुँह-हाथ धोती और अ’जीब क़िस्म की ठंडक महसूस करती।
उसको चनाब से प्यार था। उसने अपनी सहेलियों से सुन रखा था कि ये दरिया इश्क़ का दरिया है जहां सोहनी-महींवाल, हीर-रांझा का इशक़ मशहूर हुआ। [...]

ख़ुदा की क़सम

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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला नाकाफ़ी है। हिफ़्ज़ान-ए-सेहत का कोई इंतज़ाम नहीं। बीमारियां फैल रही हैं। इसका होश किसको था। एक इफ़रात-ओ-तफ़रीत का आलम था।
सन् अड़तालीस का आग़ाज़ था। ग़ालिबन मार्च का महीना। इधर और उधर दोनों तरफ़ रज़ाकारों के ज़रिए से “मग़्विया” औरतों और बच्चों की बरामदगी का मुस्तहसन काम शुरू हो चुका था। सैंकड़ों मर्द, औरतें, लड़के और लड़कियां इस कार-ए-ख़ैर में हिस्सा ले रही थीं। मैं जब उनको सरगर्म-ए-अ’मल देखता तो मुझे बड़ी तअ’ज्जुब-ख़ेज़ मसर्रत हासिल होती, या’नी ख़ुद इंसान इंसान की बुराईयों के आसार मिटाने की कोशिश में मसरूफ़ था। जो इस्मतें लुट चुकी थीं, उनको मज़ीद लूट खसूट से बचाना चाहता था। किस लिए?

इसलिए कि उसका दामन मज़ीद धब्बों और दाग़ों से आलूदा न हो? इसलिए कि वो जल्दी जल्दी अपनी ख़ून से लिथड़ी हुई उंगलियां चाट ले और हम अपने हमजिंसों के साथ दस्तरख़्वान पर बैठ कर रोटी खाए? इसलिए कि वो इंसानियत का सुई धागा लेकर जब तक दूसरे आँखें बंद किए हैं, इस्मतों के चाक रफ़ू कर दे?
कुछ समझ में नहीं आता था... लेकिन उन रज़ाकारों की जद्द-ओ-जहद फिर भी क़ाबिल-ए-क़द्र मालूम होती थी। [...]

शहीद-ए-साज़

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मैं गुजरात काठियावाड़ का रहने वाला हूँ। ज़ात का बनिया हूँ। पिछले बरस जब तक़्सीम-ए-हिंदुस्तान पर टंटा हुआ तो मैं बिल्कुल बेकार था। माफ़ कीजिएगा मैं ने लफ़्ज़ टंटा इस्तेमाल किया, मगर इस का कोई हर्ज नहीं, इसलिए कि उर्दू ज़बान में बाहर के अलफ़ाज़ आने ही चाहिएँ, चाहे वो गुजराती ही क्यों न हों।
जी हाँ मैं बिल्कुल बेकार था, लेकिन कोकीन का थोड़ा सा कारोबार चल रहा था जिससे कुछ आमदन की सूरत हो जाती थी। जब बटवारा हुआ और इधर के आदमी उधर और उधर के इधर हज़ारों की ता’दाद में आने जाने लगे तो मैंने सोचा, चलो पाकिस्तान चलें। कोकीन का न सही कोई और कारोबार शुरू कर दूँगा। चुनांचे वहाँ से चल पड़ा और रास्ते में मुख़्तलिफ़ क़िस्म के छोटे छोटे धंदे करता पाकिस्तान पहुंच गया।

मैं तो चला ही इस नियत से था कि कोई मोटा कारोबार करूंगा। चुनांचे पाकिस्तान पहुंचते ही मैंने हालात को अच्छी तरह जांचा और अलॉटमेंटों का सिलसिला शुरू कर दिया। मस्का पालिश मुझे आता ही था। चिकनी चुपड़ी बातें कीं, एक दो आदमियों के साथ याराना गांठा और एक छोटा सा मकान अलॉट करा लिया। इससे काफ़ी मुनाफ़ा हुआ तो मैं मुख़्तलिफ़ शहरों में फिर कर मकान और दुकानें अलॉट कराने का धंदा कराने लगा।
काम कोई भी हो इंसान को मेहनत करना पड़ती है। मुझे भी चुनांचे अलॉटमेंटों के सिलसिले में काफ़ी तग-ओ-दो करना पड़ती। किसी के मस्का लगाया, किसी की मुट्ठी गर्म की, किसी को खाने की दा’वत, किसी को नाच रंग की, ग़रज़ ये कि बेशुमार बखेड़े थे। दिन भर ख़ाक छानता, बड़ी बड़ी कोठियों के फेरे करता और शहर का चप्पा चप्पा देख कर अच्छा सा मकान तलाश करता जिसके अलॉट कराने से ज़्यादा मुनाफ़ा हो। [...]

पतझड़ की आवाज़

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सुब्ह मैं गली के दरवाज़े में खड़ी सब्ज़ी वाले से गोभी की क़ीमत पर झगड़ रही थी। ऊपर बावर्ची-ख़ाने में दाल चावल उबालने के लिए चढ़ा दिए थे। मुलाज़िम सौदा लेने के लिए बाज़ार जा चुका था। ग़ुस्ल-ख़ाने में वक़ार साहिब चीनी की चिलमची के ऊपर लगे हुए मद्धम आईने में अपनी सूरत देखते हुए गुनगुना रहे थे और शेव करते जाते थे। मैं सब्ज़ी वाले से बहस करने के साथ-साथ सोचने में मसरूफ़ थी कि रात के खाने के लिए क्या-क्या तैयार किया जाए। इतने में सामने एक कार आन कर रुकी। एक लड़की ने खिड़की से झाँका और फिर दरवाज़ा खोल कर बाहर उतर आई। मैं पैसे गिन रही थी। इसलिए मैंने उसे न देखा। वो एक क़दम आगे बढ़ी। अब मैंने सर उठाकर उस पर नज़र डाली।
“अरे... तुम...!”, उसने हक्का-बक्का होकर कहा और वहीं ठिठक कर रह गई।

ऐसा लगा जैसे वो मुद्दतों से मुझे मुर्दा तसव्वुर कर चुकी है और अब मेरा भूत उसके सामने खड़ा है। उसकी आँखों में एक लहज़े के लिए जो दहशत मैंने देखी, उसकी याद ने मुझे बावला कर दिया है। मैं तो सोच-सोच के दीवानी हो जाऊँगी। ये लड़की (उसका नाम तक ज़हन में महफ़ूज़ नहीं और उस वक़्त मैंने झेंप के मारे उससे पूछा भी नहीं वर्ना वो कितना बुरा मानती) मेरे साथ दिल्ली के क्वीन मैरी में पढ़ती थी।
ये बीस साल पहले की बात है। मैं उस वक़्त कोई सत्रह साल की रही हूँगी। मगर मेरी सेहत इतनी अच्छी थी कि अपनी उ'म्र से कहीं बड़ी मा'लूम होती थी और मेरी ख़ूबसूरती की धूम मचनी शुरू’ हो चुकी थी। दिल्ली में क़ाएदा था कि लड़के-वालियाँ स्कूल-स्कूल घूम के लड़कियाँ पसंद करती फिरती थीं और जो लड़की पसंद आती थी, उसके घर ‘रुक़आ’ भिजवा दिया जाता था। [...]

जिला-वतन

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सुंदर लाला। सजे दुलाला। नाचे सिरी हरी कीर्तन में...
नाचे सिरी हरी कीर्तन में...

नाचे...
चौखट पर उकड़ूँ बैठी राम-रखी निहायत इनहिमाक से चावल साफ़ कर रही थी। उसके गाने की आवाज़ देर तक नीचे ग़मों वाली सुनसान गली में गूँजा की। फिर डॉक्टर आफ़ताब राय सद्र-ए-आ'ला के चबूतरे की ओर से बड़े फाटक की सिम्त आते दिखलाई पड़े। [...]

पेशावर एक्सप्रेस

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जब मैं पेशावर से चली, तो मैंने छकाछक इत्मीनान का साँस लिया। मेरे डिब्बों में ज़्यादा-तर हिंदू लोग बैठे हुए थे। ये लोग पेशावर से होते हुए मरदान से, कोहाट से, चारसद्दा से, ख़ैबर से, लंडी कोतल से, बन्नूँ, नौशेरा से, मानसहरा से आए थे और पाकिस्तान में जान-ओ-माल को महफ़ूज़ न पाकर हिन्दुस्तान का रुख़ कर रहे थे।
स्टेशन पर ज़बरदस्त पहरा था और फ़ौज वाले बड़ी चौकसी से काम कर रहे थे। इन लोगों को जो पाकिस्तान में पनाह-गुज़ीं और हिन्दुस्तान में शरणार्थी कहलाते थे उस वक़्त तक चैन का साँस न आया जब तक मैंने पंजाब की रूमान-ख़ेज़ सर-ज़मीन की तरफ़ क़दम न बढ़ाए। ये लोग शक्ल-ओ-सूरत से बिल्कुल पठान मा'लूम होते थे, गोरे चिट्टे मज़बूत हाथ पाँव, सिर पर कुलाह और लुंगी, और जिस्म पर क़मीज़ और शलवार, ये लोग पश्तो में बात करते थे और कभी-कभी निहायत करख़्त क़िस्म की पंजाबी में बात करते थे।

उनकी हिफ़ाज़त के लिए हर डिब्बे में दो सिपाही बंदूक़ें लेकर खड़े थे। वजीहा बलोच सिपाही अपनी पगड़ियों के उक़ब मोर के छत्तर की तरह ख़ूबसूरत तुर्रे लगाए हुए, हाथ में जदीद राइफ़लें लिए हुए उन पठानों और उनके बीवी बच्चों की तरफ़ मुस्कुरा-मुस्कुरा कर देख रहे थे जो एक तारीख़ी ख़ौफ़ और शर के ज़ेर-ए-असर उस सर-ज़मीन से भागे जा रहे थे। जहाँ वो हज़ारों साल से रहते चले आए थे। जिसकी संगलाख़ सर-ज़मीन से उन्होंने तवानाई हासिल की थी, जिसके बर्फ़ाब चश्मों से उन्होंने पानी पिया था। आज ये वतन यक-लख़्त बेगाना हो गया था और उसने अपने मेहरबान सीने के किवाड़ उन पर बंद कर दिए थे और वो एक नए देस के तपते हुए मैदानों का तसव्वुर दिल में लिए बा-दिल-ए-ना-ख़्वासता वहाँ से रुख़्सत हो रहे थे।
इस अम्र की मसर्रत ज़रूर थी कि उनकी जानें बच गई थीं। उनका बहुत सा माल-ओ-मता'अ और उनकी बहुओं, बेटियों, माओं और बीवियों की आबरू महफ़ूज़ थी लेकिन उनका दिल रो रहा था और आँखें सरहद के पथरीले सीने पर यूँ गड़ी हुई थीं गोया उसे चीर कर अंदर घुस जाना चाहती हैं और उसके शफ़क़त भरे ममता के फ़व्वारे से पूछना चाहती हैं, बोल माँ आज किस जुर्म की पादाश में तूने अपने बेटों को घर से निकाल दिया है। [...]

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