क़लंदर

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ग़ाज़ीपूर के गर्वमैंट हाई स्कूल की फ़ुटबाल टीम एक दूसरे स्कूल से मैच खेलने गई थी। वहाँ खेल से पहले लड़कों में किसी छोटी सी बात पर झगड़ा हुआ और मारपीट शुरू’ हो गई। और चूँकि खेल के किसी प्वाईंट पर झगड़ा शुरू’ हुआ था, तमाशाइयों और स्टाफ़ ने भी दिलचस्पी ली। जिन लड़कों ने बीच-बचाव की कोशिश की उन्हें भी चोटें आईं और उनमें मेरे भाई भी शामिल थे जो गर्वमैंट हाई स्कूल की नौवीं जमाअ’त में पढ़ते थे। उनके माथे में चोट लगी और नाक से ख़ून बहने लगा। अब हंगामा सारे मैदान में फैल गया। भगदड़ मच गई और जो लड़के ज़ख़्मी हुए थे इस हड़बोंग में उनकी ख़बर किसी ने न ली। इस पसमांदा ज़िले’ में टेलीफ़ोन अ’न्क़ा थे। सारे शहर में सिर्फ़ छः मोटरें थीं और हॉस्पिटल एम्बूलेन्स का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था।
वो इतवार का वीरान सा दिन था। हवा में ज़र्द पत्ते उड़ते फिर रहे थे। मैं लक़-ओ-दक़ सुनसान पिछले बरामदे में फ़र्श पर चुप-चाप बैठी गुड़ियाँ खेल रही थी। इतने में एक यक्का टख़-टख़ करता आके बरामदे की ऊंची सत्ह से लग कर खड़ा हो गया और सतरह अठारह साल के एक अजनबी लड़के ने भाई को सहारा देकर नीचे उतारा। भाई के माथे से ख़ून बहता देखकर मैं दहशत के मारे फ़ौरन एक सुतून के पीछे छुप गई। सारे घर में हंगामा बपा हो गया। अम्माँ बदहवास हो कर बाहर निकलीं। अजनबी लड़के ने बड़े रसान से उनको मुख़ातिब किया... “अरे-अरे देखिए, घबराईए नहीं। घबराईए नहीं। मैं कहता हूँ।”

फिर वो मेरी तरफ़ मुड़ा और कहने लगा..., “मुन्नी ज़रा दौड़ कर एक गिलास पानी तो ले आ भैया के लिए”, इस पर कई मुलाज़िम पानी के जग और गिलास लेकर भाई के चारों तरफ़ आन खड़े हुए और लड़के ने उनसे सवाल किया..., “साहिब किधर हैं?”
“साहिब बाहर गए हुए हैं...”, किसी ने जवाब दिया... [...]

मेरा बच्चा

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ये मेरा बच्चा है। आज से डेढ़ साल पहले इसका कोई वजूद नहीं था। आज से डेढ़ साल पहले ये अपनी माँ के सपनों में था। मेरी तुंद-ओ-तेज़ जिंसी ख़्वाहिश में सो रहा था। जैसे दरख़्त बीज में सोया रहता है। मगर आज से डेढ़ बरस पहले उस का कहीं वजूद न था।
हैरत है कि अब इसे देखकर, इसे गले से लगा कर, इसे अपने कंधे पर सुला कर मुझे इतनी राहत क्यों होती है। बड़ी अ'जीब राहत है ये। ये राहत उस राहत से कहीं मुख़्तलिफ़ है जो महबूब को अपनी बाँहों में लिटा लेने से होती है, जो अपनी मन-मर्ज़ी का काम सर-अंजाम देने से होती है, जो माँ की आग़ोश में पिघल जाने से होती है। ये राहत बड़ी अ'जीब सी राहत है। जैसे आदमी यकायक किसी नए जज़ीरे में आ निकले, किसी नए समंदर को देख ले, किसी नए उफ़ुक़ को पहचान ले। मेरा बच्चा भी एक ऐसा ही नया उफ़ुक़ है। हैरत है कि हर पुरानी चीज़ में एक नई चीज़ सोई रहती है और जब तक वो जाग कर सर-बुलंद न होले, कोई उसके वजूद से आगाह नहीं हो सकता। यही तसलसुल माद्दे की बुनियाद है। उसकी अबदीयत का मर्कज़ है। इस से पहले मैंने इस नए उफ़ुक़ को नहीं देखा था, लेकिन इसकी मुहब्बत मेरे दिल में मौजूद थी। मैं इस से आगाह न था मगर ये मेरी ज़ात में थी। जैसे ये बच्चा मेरी ज़ात में था। मुहब्बत और बच्चा और मैं। तख़्लीक़ के जज़्बे की तीन तस्वीरें हैं।

बच्चे सभी को प्यारे मा'लूम होते हैं। मुझे भी अपना बच्चा प्यारा है, शायद दूसरे लोगों के बच्चों से ज़्यादा प्यारा है। अपने आपसे प्यारा नहीं। मगर अपने आपके बा'द और भी कई चीज़ें हैं, कई जज़्बे हैं। अना की कितनी ही तफ़सीरें हैं जिनके बा'द ये बच्चा मुझे प्यारा है। ये तो कोई बड़ी अ'जीब और अनोखी बात नहीं है। मैं दिन में अपना काम करता हूँ और ये बच्चा मुझे बहुत कम याद आता है और जब ये सामने होता है, उस वक़्त बहुत कम काम मुझे याद आते हैं। ये सब एक निहायत ही आम बात सी है। हर माँ और हर बाप इस फ़ितरी जज़्बे से आगाह है। इस में तो कोई नई बात नहीं। लेकिन दुनिया में हर बार किसी बच्चे का मा'रिज़ वजूद में आना एक नई बात है। चाहे वो बादशाह का बच्चा हो या किसी ग़रीब लकड़हारे का। हर बच्चा इक नई हैरत है। इंसानियत के लिए, तहज़ीब के लिए, हाल के लिए, मुस्तक़बिल के लिए, वो एक ख़ाका जिसमें रंग भरा जाएगा, जिसमें नुक़ूश उभारे जाएँ, जिसके गिर्द समाज का चौखटा लगाया जाएगा। इस ख़ाके को देखकर हैरत होती है, दिल में तजस्सुस और तख़य्युल में उड़ान पैदा होती है। बुड्ढे को देखकर तख़य्युल पीछे को दौड़ता है, बच्चे को देखकर आगे बढ़ता है। बुड्ढा पुराना है, तो बच्चा नया है, एक माज़ी है तो दूसरा मुस्तक़बिल है, लेकिन तसलसुल लिए हुए। तख़य्युल की रेल-गाड़ी इन्ही दो स्टेशनों के दरमियान आगे पीछे चलती रहती है।
किस क़दर तहय्युर-ज़दा, अजीब-ओ-ग़रीब नया हादिसा है ये बच्चा। एक तो इसकी अपनी शख़्सियत है, फिर इसके अंदर दो और शख़्सियतें हैं। एक इसकी माँ की, दूसरी इसके बाप की। और फिर दो शख़्सियतों के अंदर न जाने और कितनी शख़्सियतें छिपी हुई होंगी। और उन सबने मिलकर एक नया ख़मीर उठाया होगा। ये ख़मीर कैसा होगा, अभी से कोई क्या कह सकता है। इस बच्चे को देख के जो इस वक़्त जा! जा! जा! कहता है और फिर हँसकर अँगूठा चूसने में मसरूफ़ हो जाता है। मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि इस चेहरे में मेरा तबस्सुम है, मेरी ठोढ़ी है, वही होंट हैं, वही माथा, भवें और आँखें माँ की हैं और कान भी। लेकिन कोई चीज़ पूरी नहीं, सारी नहीं, मुकम्मल नहीं, बस मिलती हुई। इन सब के पस-ए-पर्दा एक नयापन है, एक नया अंदाज़ है, एक नई तस्वीर है। ये तस्वीर हमें और हम उसे हैरत से तक रहे हैं। शायद उसके अंदर हिंदू कल्चर और तहज़ीब का मिज़ाज मौजूद होगा। बाप का ग़ुरूर और माँ का भोलापन मौजूद होगा। लेकिन अभी से मैं क्या, कोई भी क्या कह सकता है इसके बारे में। ये एक नई चीज़ है। जैसे ऐटम के वही ज़र्रे मुख़्तलिफ़ अंदाज़ से मिलकर मुख़्तलिफ़ धातें बन जाते हैं। कोई इस बच्चे के मुतअ'ल्लिक़ भी कह सकता है। [...]

बेग़रज़ मोहसिन

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सावन का महीना था, रेवती रानी ने पांव में मेहंदी रचाई, मांग चोटी सँवारी और तब अपनी बूढ़ी सास से जाकर बोली, अम्मां जी आज मैं मेला देखने जाऊँगी।
रेवती पण्डित चिंता मन की बीवी थी। पंडित जी ने सरस्वती की पूजा में ज़्यादा नफ़ा न देखकर लक्ष्मी देवी की मुजावरी करनी शुरू की थी, लेन-देन का कारोबार करते थे। मगर और महाजनों के ख़िलाफ़ ख़ास ख़ास हालतों के सिवा 25 फ़ीसदी से ज़्यादा सूद लेना मुनासिब न समझते थे।

रेवती की सास एक बच्चे को गोद में लिए खटोले पर बैठी थीं। बहू की बात सुनकर बोलीं,
भीग जाओगी तो बच्चे को ज़ुकाम हो जाएगा। [...]

हज-ए-अक्बर

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1
मुंशी साबिर हुसैन की आमदनी कम थी और ख़र्च ज़्यादा। अपने बच्चे के लिए दाया रखना गवारा नहीं कर सकते थे। लेकिन एक तो बच्चे की सेहत की फ़िक्र और दूसरे अपने बराबर वालों से हेटे बन कर रहने की ज़िल्लत इस ख़र्च को बर्दाश्त करने पर मजबूर करती थी। बच्चा दाया को बहुत चाहता था। हर दम उसके गले का हार बना रहता। इस वजह से दाया और भी ज़रूरी मालूम होती थी। मगर शायद सबसे बड़ा सबब ये था कि वो मुरव्वत के बाइस दाया को जवाब देने की जुर्अत न कर सकते थे। बुढ़िया उनके यहाँ तीन साल से नौकर थी। उसने उनके इकलौते बच्चे की परवरिश की थी। अपना काम दिल-ओ-जान से करती थी। उसे निकालने का कोई हीला न था और ख़्वाह मख़्वाह खच्चड़ निकालना साबिर जैसे हलीम शख़्स के लिए ग़ैर मुम्किन था। मगर शाकिरा इस मुआ’मले में अपने शौहर से मुत्तफ़िक़ न थी उसे शक था कि दाया हमको लूटे लेती है। जब दाया बाज़ार से लौटती तो वह दहलीज़ में छुपी रहती कि देखूँ आटा छुपा कर तो नहीं रख देती। लकड़ी तो नहीं छुपा देती। उसकी लाई हुई चीज़ को घंटों देखती, पछताती, बार-बार पूछती इतना ही क्यूँ? क्या भाव है? क्या इतना महंगा हो गया? दाया कभी तो उन बद-गुमानियों का जवाब मुलाइमत से देती। लेकिन जब बेगम ज़्यादा तेज़ हो जातीं, तो वह भी कड़ी पड़ जाती थी। क़समें खाती। सफ़ाई की शहादतें पेश करती। तर्दीद और हुज्जत में घंटों लग जाते। क़रीब क़रीब रोज़ाना यही कैफ़ियत रहती थी और रोज़ ये ड्रामा दाया की ख़फ़ीफ़ सी अश्क रेज़ी के बाद ख़त्म हो जाता था। दाया का इतनी सख़्तियाँ झेल कर पड़े रहना शाकिरा के शुकूक की आब रेज़ी करता था। उसे कभी यक़ीन न आता था कि ये बुढ़िया महज़ बच्चे की मोहब्बत से पड़ी हुई है। वो दाया को ऐसे लतीफ़ जज़्बे का अह्ल नहीं समझती थी।

2
इत्तिफ़ाक़ से एक रोज़ दाया को बाज़ार से लौटने में ज़रा देर हो गई। वहाँ दो कुंजड़िनों में बड़े जोश-ओ-ख़रोश से मुनाज़िरा था। उनका मुसव्विर तर्ज़-ए-अदा। उनका इश्तिआ’ल अंगेज़ इस्तिदलाल। उनकी मुतशक्किल तज़हीक। उनकी रौशन शहादतें और मुनव्वर रिवायतें उनकी तअ’रीज़ और तर्दीद सब बेमिसाल थीं। ज़हर के दो दरिया थे। या दो शो’ले जो दोनों तरफ़ से उमड कर बाहम गुथ गए थे। क्या रवानी थी। गोया कूज़े में दरिया भरा हुआ। उनका जोश-ए-इज़हार एक दूसरे के बयानात को सुनने की इजाज़त न देता था। उनके अलफ़ाज़ की ऐसी रंगीनी तख़य्युल की ऐसी नौइयत। उस्लूब की ऐसी जिद्दत। मज़ामीन की ऐसी आमद। तशबीहात की ऐसी मौज़ूनियत। और फ़िक्र की ऐसी परवाज़ पर ऐसा कौन सा शायर है जो रश्क न करता। सिफ़त ये थी कि इस मुबाहिसे में तल्ख़ी या दिल आज़ारी का शाइबा भी न था। दोनों बुलबुलें अपने अपने तरानों में मह्व थीं। उनकी मतानत, उनका ज़ब्त, उनका इत्मिनान-ए-क़ल्ब हैरत-अंगेज़ था उनके ज़र्फ़-ए-दिल में इससे कहीं ज़्यादा कहने की और ब-दरजहा ज़्यादा सुनने की गुंजाइश मालूम होती थी। अल-ग़रज़ ये ख़ालिस दिमाग़ी, ज़ेह्नी मुनाज़िरा था। अपने अपने कमालात के इज़हार के लिए, एक ख़ालिस ज़ोर आज़माई थी अपने अपने करतब और फ़न के जौहर दिखाने के लिए। [...]

एक बाप बिकाऊ है

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कभी न सुनी ये बात जो 24 फरवरी के टाइम्स में छपी। ये भी नहीं मालूम कि अख़बार वालों ने छाप कैसे दी। ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त के कालम में ये अपनी नौईय्यत का पहला ही इश्तिहार था। जिसने वो इश्तिहार दिया था, इरादा या उसके बग़ैर उसे मुअम्मे की एक शक्ल दे दी थी। पते के सिवा उसमें कोई ऐसी बात न थी, जिससे ख़रीदने वाले को कोई दिलचस्पी हो... बिकाऊ है एक बाप। उम्र इकहत्तर साल, बदन इकहरा, रंग गंदुमी, दमे का मरीज़। हवाला बॉक्स नंबर एल 476, मार्फ़त ‘टाइम्स।’
“इकहत्तर बरस की उम्र में बाप कहाँ रहा... दादा-नाना हो गया वो तो?”

“उम्र-भर आदमी हाँ-हाँ करता रहता है, आख़िर में नाना हो जाता है।”
“बाप ख़रीद लाए तो माँ क्या कहेगी, जो बेवा है। अजीब बात है न, ऐसे माँ-बाप जो मियाँ-बीवी न हों।” [...]

ताई इसरी

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मैं ग्रांट मेंडीकल कॉलेज कलकत्ता में डाक्टरी का फाईनल कोर्स कर रहा था और अपने बड़े भाई की शादी पर चंद रोज़ के लिए लाहौर आ गया था। यहीं शाही मुहल्ले के क़रीब कूचा ठाकुर दास में हमारा जहां आबाई घर था, मेरी मुलाक़ात पहली बार ताई इसरी से हुई।
ताई इसरी हमारी सगी ताई तो न थी, लेकिन ऐसी थीं कि उन्हें देखकर हर एक का जी उन्हें ताई कहने के लिए बेक़रार हो जाता था। मुहल्ले के बाहर जब उनका ताँगा आ के रुका और किसी ने कहा, लो ताई इसरी आ गईं, तो बहुत से बूढ़े, जवान, मर्द और औरतें इन्हें लेने के लिए दौड़े। दो-तीन ने सहारा देकर ताई इसरी को ताँगे से नीचे उतारा, क्योंकि ताई इसरी फ़र्बा अंदाज़ थीं और चलने से या बातें करने से या महज़ किसी को देखने ही से उनकी सांस फूलने लगती थी। दो तीन रिश्तेदारों ने यकबारगी अपनी जेब से ताँगा के किराए के पैसे निकाले। मगर ताई इसरी ने अपनी फूली हुई साँसों में हंसकर सबसे कह दिया कि वो तो पहले ही ताँगा वाले को किराया के पैसे दे चुकी हैं और जब वो यूं अपनी फूली साँसों के दरमियान बातें करती करती हँसीं तो मुझे बहुत अच्छी मालूम हुईं। दो तीन रिश्तेदारों का चेहरा उतर गया और उन्होंने पैसे जेब में डालते हुए कहा, ये तुमने क्या-क्या ताई? हमें इतनी सी ख़िदमत का मौक़ा भी नहीं देती हो! इस पर ताई ने कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने अपने क़रीब खड़ी हुई एक नौजवान औरत से पंखी ले ली और उसे झलते हुए मुस्कुराती हुई आगे बढ़ गईं।

ताई इसरी की उम्र साठ साल से कम न होगी, उनके सर के बाल खिचड़ी हो चुके थे और उनके भरे-भरे गोल-मटोल चेहरे पर बहुत अच्छे लगते थे। उनका फूली-फूली साँसों में मासूम बातें करना तो सबको ही अच्छा लगता था। लेकिन मुझे उनके चेहरे में उनकी आँखें बड़ी ग़ैरमामूली नज़र आईं। उन आँखों को देखकर मुझे हमेशा धरती का ख़्याल आया है। मीलों दूर तक फैले हुए खेतों का ख़्याल आया है। इसके साथ साथ ये ख़्याल भी आया है कि इन आँखों के अंदर जो मुहब्बत है, इसका कोई किनारा नहीं, जो मासूमियत है इसकी कोई अथाह नहीं, जो दर्द है इसका कोई दरमाँ नहीं।
मैंने आज तक ऐसी आँखें किसी औरत के चेहरे पर नहीं देखीँ जो इस क़दर वसीअ और बेकनार हों कि ज़िंदगी का बड़े से बड़ा और तल्ख़ से तल्ख़ तजुर्बा भी उनके लिए एक तिनके से ज़्यादा हैसियत न रखे। ऐसी आँखें जो अपनी पिनहाइयों में सब कुछ बहा ले जाएं, ऐसी अनोखी, माफ़ कर देने वाली, दरगुज़र कर देने वाली आँखें मैंने आज तक नहीं देखीँ। ताई इसरी ने कासनी शाही का घाघरा पहन रखा था। जिस पर सुनहरी गोटे का लहरिया चमक रहा था। उनकी क़मीज़ बसंती रेशम की थी, जिस पर ज़री के फूल कढ़े हुए थे। सर पर दोहरे मलमल का क़िरमिज़ी दुपट्टा था। हाथों में सोने के गोखरु थे। जब वो घर के दालान में दाख़िल हुईं तो चारों तरफ़ शोर मच गया। बहुएं और ख़ालाएं और ननदें और भावजें, मौसीयां और चचियां सब ताई इसरी के पांव छूने को दौड़ीं। एक औरत ने जल्दी से एक रंगीन पीढ़ी खींच कर ताई इसरी के लिए रख दी और ताई इसरी हंसते हुए उस पर बैठ गईं और बारी-बारी सबको गले लगा कर सब के सर पर हाथ फेर कर सबको दुआ देने लगीं। [...]

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