मुद्दी का अस्ल नाम अहमदी ख़ानम था। तहसीलदार साहब प्यार से मुद्दी-मुद्दी कहते थे, वही मशहूर हो गया। मुद्दी का रंग बंगाल में सौ दो सौ में और हमारे सूबे में हज़ार दो हज़ार में एक था। जिस तरह फ़ीरोज़े का रंग मुख़्तलिफ़ रौशनियों में बदला करता है उसी तरह मुद्दी का रंग था। थी तो खिलती हुई साँवली रंगत जिसको सब्ज़ा कहते हैं। मगर मुख़्तलिफ़ रंग के दुपट्टों या साड़ियों के साथ मुख़्तलिफ़ रंग पैदा होता था। किसी रंग के साथ दमक उठता था, किसी रंग के साथ टिमटिमाहट पैदा करता था। बाज़-औक़ात जिल्द की ज़र्दी में सब्ज़ी ऐसी झलकती थी कि दिल चाहता था कि देखा ही करे। शम्अ’ की रौशनी में मुद्दी की रंगत तो ग़ज़ब ही ढाती थी। कभी आपने दूसरे दर्जे की मदक़ूक़ को देखा है। अगर बीमारी से क़त’-ए-नज़र कीजिए तो रंगत की नज़ाकत वैसे ही थी। आँखें बड़ी न थीं मगर जब निगाह नीचे से ऊपर करती थी तो वाह-वाह। मा’लूम होता था मंदिर का दरवाज़ा खुल गया, देबी जी के दर्शन हो गए। मुस्कुराहट में न शोख़ी न शरारत, न बनावट की शर्म न लुभावट की कोशिश। लकड़ी लोहे के क़लम को कैसे मू-क़लम कर दूँ कि आपके सामने वो मुस्कुराहट आ जाए। बस ये समझ लीजिए कि ख़ुदा ने जैसी मुस्कुराहट उसके लिए तजवीज़ की थी वही थी। मुद्दी अपनी तरफ़ से उसमें कोई इज़ाफ़ा नहीं करती थी। उसके किसी अंदाज़ में बनावट न थी। हाथ पाँव, क़द, चेहरे के आ’ज़ा सब छोटे-छोटे मगर वाह रे तनासुब। आवाज़, हँसी, चाल-ढाल हरचीज़ वैसी ही। मैं मुद्दी से बहुत बे-तकल्लुफ़ था मगर उ’श्शाक़ में कभी नहीं था। और जहाँ तक मैं जानता हूँ कोई और भी नहीं सुना गया। ऐसी ख़ूबसूरत औ’रत बिला-मर्द की हिफ़ाज़त के ज़िंदगी बसर करे और उ’श्शाक़ न हों, बड़े तअ’ज्जुब की बात है। मगर वाक़िआ’ है। एक रोज़ मैंने कहा मुद्दी अगर हम जादूगर होते तो जादू के ज़ोर से तुमको तितली बनाकर एक छोटी सी डिबिया में बंद करके अपनी पगड़ी में रख लेते। इस फ़न-ए-शरीफ़ से वाक़िफ़-कार हज़रात जानते हैं कि जो हर्बा मैंने इस्ति’माल किया था वो कम ख़ाली जाने वाला था। मगर उसके भी जवाब में वही बे-तकल्लुफ़ मुस्कुराहट की ढाल जो तलवार के मुँह मोड़ दे।
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