तीसरी जिन्स

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मुद्दी का अस्ल नाम अहमदी ख़ानम था। तहसीलदार साहब प्यार से मुद्दी-मुद्दी कहते थे, वही मशहूर हो गया। मुद्दी का रंग बंगाल में सौ दो सौ में और हमारे सूबे में हज़ार दो हज़ार में एक था। जिस तरह फ़ीरोज़े का रंग मुख़्तलिफ़ रौशनियों में बदला करता है उसी तरह मुद्दी का रंग था।
थी तो खिलती हुई साँवली रंगत जिसको सब्ज़ा कहते हैं। मगर मुख़्तलिफ़ रंग के दुपट्टों या साड़ियों के साथ मुख़्तलिफ़ रंग पैदा होता था। किसी रंग के साथ दमक उठता था, किसी रंग के साथ टिमटिमाहट पैदा करता था। बाज़-औक़ात जिल्द की ज़र्दी में सब्ज़ी ऐसी झलकती थी कि दिल चाहता था कि देखा ही करे। शम्अ’ की रौशनी में मुद्दी की रंगत तो ग़ज़ब ही ढाती थी। कभी आपने दूसरे दर्जे की मदक़ूक़ को देखा है। अगर बीमारी से क़त’-ए-नज़र कीजिए तो रंगत की नज़ाकत वैसे ही थी। आँखें बड़ी न थीं मगर जब निगाह नीचे से ऊपर करती थी तो वाह-वाह। मा’लूम होता था मंदिर का दरवाज़ा खुल गया, देबी जी के दर्शन हो गए। मुस्कुराहट में न शोख़ी न शरारत, न बनावट की शर्म न लुभावट की कोशिश। लकड़ी लोहे के क़लम को कैसे मू-क़लम कर दूँ कि आपके सामने वो मुस्कुराहट आ जाए।

बस ये समझ लीजिए कि ख़ुदा ने जैसी मुस्कुराहट उसके लिए तजवीज़ की थी वही थी। मुद्दी अपनी तरफ़ से उसमें कोई इज़ाफ़ा नहीं करती थी। उसके किसी अंदाज़ में बनावट न थी। हाथ पाँव, क़द, चेहरे के आ’ज़ा सब छोटे-छोटे मगर वाह रे तनासुब। आवाज़, हँसी, चाल-ढाल हरचीज़ वैसी ही। मैं मुद्दी से बहुत बे-तकल्लुफ़ था मगर उ’श्शाक़ में कभी नहीं था। और जहाँ तक मैं जानता हूँ कोई और भी नहीं सुना गया। ऐसी ख़ूबसूरत औ’रत बिला-मर्द की हिफ़ाज़त के ज़िंदगी बसर करे और उ’श्शाक़ न हों, बड़े तअ’ज्जुब की बात है।
मगर वाक़िआ’ है। एक रोज़ मैंने कहा मुद्दी अगर हम जादूगर होते तो जादू के ज़ोर से तुमको तितली बनाकर एक छोटी सी डिबिया में बंद करके अपनी पगड़ी में रख लेते। इस फ़न-ए-शरीफ़ से वाक़िफ़-कार हज़रात जानते हैं कि जो हर्बा मैंने इस्ति’माल किया था वो कम ख़ाली जाने वाला था। मगर उसके भी जवाब में वही बे-तकल्लुफ़ मुस्कुराहट की ढाल जो तलवार के मुँह मोड़ दे। [...]

वक़्फ़ा

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गुज़ाशतेम-ओ-गगुज़शीतेम-ओ-बूदनी हमा बूद
शुदेम-ओ-शुद सुख़न-ए-मा फ़साना-ए-इतफ़ाल

ये निशान हमारे ख़ानदान में पुश्तों से है। बल्कि जहां से हमारे ख़ानदान का सुराग़ मिलना शुरू होता है वहीं से इसका हमारे ख़ानदान में मौजूद होना भी साबित होता है। इस तरह उस की तारीख़ हमारे ख़ानदान की तारीख़ के साथ साथ चलती है।
हमारे ख़ानदान की तारीख़ बहुत मरबूत और क़रीब क़रीब मुकम्मल है, इसलिए कि मेरेअज्दाद को अपने हालात महफ़ूज़ करने और अपना शिजरा दरुस्त रखने का बड़ा शौक़ रहा है। यही वजह है कि हमारे ख़ानदान की तारीख़ शुरू होने के वक़्त से लेकर आज तक उस का तसलसुल टूटा नहीं है। लेकिन इस तारीख़ में बा’ज़ वक़फ़े ऐसे आते हैं... [...]

मौज दीन

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रात की तारीकी में सेंट्रल जेल के दो वार्डन बंदूक़ लिए चार क़ैदियों को दरिया की तरफ़ लिए जा रहे थे जिनके हाथ में कुदालें और बेलचे थे। पुल पर पहुंच कर उन्होंने गारद के सिपाही से डिबिया ले कर लालटेन जलाई और तेज़ तेज़ क़दम बढ़ाते दरिया की तरफ़ चल दिए।
किनारे पर पहुंच कर उन्होंने बारहदरी की बग़ल में कुदालें और बेलचे फेंके और लालटेन की मद्धम रौशनी में इस तरह तलाश शुरू की जैसे वो किसी मदफ़ून खज़ाने की खोज में आए हैं। एक क़ैदी ने लालटेन थामे वार्डन को दारोगा जी के नाम से मुख़ातिब करते हुए कहा, “दारोगा जी! ये जगह मुझे बहुत पसंद है अगर हुक्म हो तो खुदाई शुरू कर दें।”

“देखना ज़मीन नीचे से पथरीली न हो, वर्ना सारी रात खुदाई में गुज़र जाएगी। कमबख़्त को मरना भी रात ही को था।” वार्डन ने तहक्कुमाना और बेज़ारी के लहजे में कहा।
क़ैदियों ने कुदालें और बेलचे उठाए और खोदना शुरू किया। वार्डन बेज़ारी के मूड में बैठे सिगरेट पी रहे थे। क़ैदी ज़मीन खोदने में हमातन मसरूफ़ थे। रफ़्ता रफ़्ता ज़मीन पर ख़ुदी हुई मिट्टी का ढेर लग गया और वार्डन ने क़रीब आ कर क़ब्र का मुआ’इना किया। ज़मीन चूँकि पथरीली नहीं थी इसलिए वो बड़े इतमिनान के साथ क़रीब ही एक पत्थर पर बैठा सिगरेट पीने लगा जिसे लगाने के लिए उसने लालटेन मंगाई। [...]

बीमार

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अजब बात है कि जब भी किसी लड़की या औरत ने मुझे ख़त लिखा भाई से मुख़ातिब किया और बे रब्त तहरीर में इस बात का ज़रूर ज़िक्र किया कि वो शदीद तौर पर अलील है। मेरी तसानीफ़ की बहुत तारीफ़ें कीं। ज़मीन-ओ-आसमान के कुलाबे मिला दिए।
मेरी समझ में नहीं आता था कि ये लड़कियां और औरतें जो मुझे ख़त लिखती हैं बीमार क्यों होती हैं। शायद इसलिए कि मैं ख़ुद अक्सर बीमार रहता हूँ। या कोई और वजह होगी, जो इसके सिवा और कोई नहीं हो सकती कि वो मेरी हमदर्दी चाहती हैं।

मैं ऐसी लड़कियों और औरतों के ख़ुतूत का उमूमन जवाब नहीं दिया करता, लेकिन बा'ज़ औक़ात दे भी दिया करता हूँ, आख़िर इंसान हूँ। ख़त अगर बहुत ही दर्दनाक हो तो उसका जवाब देना इंसानी फ़राइज़ में शामिल हो जाता है।
पिछले दिनों मुझे एक ख़त मौसूल हुआ, जो काफ़ी लंबा था। उसमें भी एक ख़ातून ने जिसका नाम मैं ज़ाहिर नहीं करना चाहता ये लिखा था कि वो मेरी तहरीरों की शैदाई है लेकिन एक अर्से से बीमार है। उसका ख़ाविंद भी दाइम-उल-मरीज़ है। उसने अपना ख़याल ज़ाहिर किया था कि जो बीमारी उसे लगी है उसके ख़ाविंद की वजह से है। [...]

इज़्ज़त के लिए

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चवन्नी लाल ने अपनी मोटर साईकल स्टाल के साथ रोकी और गद्दी पर बैठे बैठे सुबह के ताज़ा अख़बारों की सुर्ख़ियों पर नज़र डाली। साईकल रुकते ही स्टाल पर बैठे हुए दोनों मुलाज़िमों ने उसे नमस्ते कही थी। जिसका जवाब चवन्नी लाल ने अपने सर की ख़फ़ीफ़ जुंबिश से दे दिया था।
सुर्ख़ियों पर सरसरी नज़र डाल कर चवन्नी लाल ने बंधे हुए एक बंडल की तरफ़ हाथ बढ़ाया जो उसे फ़ौरन दे दिया गया। इसके बाद उसने अपनी बी.एस.ए मोटर साईकल का इंजन स्टार्ट किया और ये जा वो जा।

मॉडर्न न्यूज़ एजेंसी क़ायम हुए पूरे चार बरस हो चले थे। चवन्नी लाल उसका मालिक था। लेकिन इन चार बरसों में वो एक दिन भी स्टाल पर नहीं बैठा था। वो हर रोज़ सुबह अपनी मोटर साईकल पर आता, मुलाज़िमों की नमस्ते का जवाब सर की ख़फ़ीफ़ जुंबिश से देता। ताज़ा अख़बारों की सुर्खियां एक नज़र देखता हाथ बढ़ा कर बंधा हुआ बंडल लेता और चला जाता।
चवन्नी लाल का स्टाल मामूली स्टाल नहीं था। हालाँकि अमृतसर में लोगों को अंग्रेज़ी और अमरीकी रिसालों और पर्चों से कोई इतनी दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन मॉडर्न न्यूज़ एजेंसी हर अच्छा अंग्रेज़ी और अमरीकी रिसाला मंगवाती थी बल्कि यूं कहना चाहिए कि चवन्नी लाल मंगवाता था। हालाँकि उसे पढ़ने-वड़ने का बिल्कुल शौक़ नहीं था। [...]

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