समय का बंधन

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आपी कहा करती थी: सुनहरे, समय समय की बात होती है। हर समय का अपना रंग होता है, अपना असर होता है। अपने समय पहचान, सुनहरे। अपने समय से बाहर न निकल। जो निकली तो भटक जाएगी।
अब समझ में आई आपी की बात। जब समझ लेती तो रस्ते से न भटकती। आलने से न गिरती, समझ तो गई। पर कितनी क़ीमत देनी पड़ी समझन की । आपी मुझे सुनहरे कह कर बुलाया करती थी। कहती थी तेरे पिंडे की झाल सुनहरी है। जब रस आएगा तो सोना बन जाएगी, कठाली में पड़े बना। फिर ये झाल कपड़ों से निकल निकल कर झाँकेगी।

पता नहीं मेरा नाम क्या था। पता नहीं मैं किस की थी, कहाँ से आई थी। कोई लाया था। बालपन ही में आपी के हाथ बेच गया था। उसी की गोद में पली। उसी की सुरताल भरी बैठक के झूलने में झूल झूल कर जवान हुई। फिर सुनहरा उमड उमड आया। छुपाए न छुपता था। आपी बोली: न धीए, छुपा न। जो छुपाए न छुपे उसे क्या छुपाना।
कभी खिड़की से झाँकती तो आपी टोकती, "ये क्या कर रही है बेटी? सयाने कहते हैं, जिसका काम उसी को साझे। तेरा काम देखना नहीं। दिखना है। तू नज़र न बन, मंज़र बन। और जो देखे भी तो तू दिखने का घूँघट निकाल। उसकी ओट से देख। फिर समय देख सुनहरे। अभी तो शाम है। ये समय तो उदासी का समय है। दुख का समय है। शाम भई घन शाम न आए।" आपी गुनगुनाने लगी, "याद है न ये बोल? शाम तो न आने का समय है। तेरा आने का समय है। पगली ज़रा रुक जा। अंधेरा गाढ़ा होने दे। फिर तेरा ही समय होगा। पिछले-पहर तक।" [...]

दो मुंही

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सोचती हूँ कि मैं त्याग क्लीनिक में गई ही क्यों? क्या फ़ायदा हुआ भला? अपनी बीमारी दूर कराने के लिए गई थी, सारी मख़लूक़ को बीमार कर के आ गई। वही बात हुई ना। बुढ़िया बुढ़िया तेरा कूबड़ दूर हो जाये या सारी दुनिया कुबड़ी हो जाये।
लेकिन त्याग बीती सुनाने से पहले में अपना तआरुफ़ तो करा लूं। मैं सांवरी हूँ। तीस साल की। सलमान से मैरिज हुए दो साल हुए हैं। लव मैरिज थी। मेरे ख़द्द-ओ-ख़ाल आम से हैं यानी एवरेज से कुछ बेहतर। हाँ ज़ेह्न की तीखी हूँ। काठी मज़बूत है जिस्म तना तना...लेकिन नहीं मैं ग़लत बयानी कर रही हूँ। कस्र-ए-नफ़सी से काम ले रही हूँ। मेरे ख़द्द-ओ-ख़ाल एवरेज सही लेकिन मुझमें बड़ा चार्म है। राह चलते सर उठा कर, गर्दन मोड़ मोड़ कर देखते हैं तो यूं देखते हैं जैसे सर से पांव तक उल्लू के पट्ठे बन गए हों। बस में नहीं रहते, कन्ट्रोल्ज़ हाथ से छूट जाते हैं। डोलते हैं , पतवार छूट जाये तो कश्ती डोलती है ना।

मैं लड़कीपन से निकल आई हूँ। लेकिन अभी लड़की ही हूँ। औरत नहीं बनी। अल्लाह न करे कि बनूँ।
अजीब सा आलम है। जैसे शाम को डिस्क होती है, रात नहीं पड़ी। दिन भी नहीं रहा लेकिन दिन दिन सा लगता है। [...]

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