मजीद की माहाना आमदनी ढाई हज़ार रुपये थी। मोटर थी, एक आलीशान कोठी थी, बीवी थी। इस के इलावा दस-पंद्रह औरतों से मेल जोल था। मगर जब कभी वो विस्की के तीन चार पैग पीता तो उसे अपना माज़ी याद आ जाता। वो सोचता कि अब वो इतना ख़ुश नहीं जितना कि पंद्रह बरस पहले था। जब उसके पास रहने को कोठी थी, न सवारी के लिए मोटर। बीवी थी न किसी औरत से उसकी शनासाई थी। ढाई हज़ार रुपये तो एक अच्छी ख़ासी रक़म है। उन दिनों उसकी आमदन सिर्फ़ साठ रुपये माहवार थी। साठ रुपये जो उसे बड़ी मुश्किल से मिलते थे लेकिन इसके बावजूद वो ख़ुश था। उसकी ज़िंदगी उफ्तां-ओ-ख़ीज़ां हालात के होते हुए भी हमवार थी। अब उसे बेशुमार तफ़क्कुरात थे, कोठी के, बीवी के, बच्चों के, उन औरतों के जिनसे उनका मेल जोल था। इनकम टैक्स का टंटा अलग था, सेल्ज़ टैक्स का झगड़ा जुदा। इसके इलावा और बहुत सी उलझनें थीं जिनसे मजीद को कभी नजात ही नहीं मिलती थी। चुनांचे अब वो उस ज़माने को अक्सर याद करता था, जब उसकी ज़िंदगी ऐसे तफ़क्कुरात और ऐसी उलझनों से आज़ाद थी। वो एक बड़ी ग़रीबी की लेकिन बड़ी ख़ुशगवार ज़िंदगी बसर करता था। इनकम टैक्स ज़्यादा लग गया है, माहिरों से मशवरा करो। ऑफ़िसरों से मिलो, उनको रिश्वत दो। सेल्ज़ टैक्स का झगड़ा चुकाओ, ब्लैक मार्किट करो, यहां से जो कमाओ उसको व्हाईट करो, झूटी रसीदें बनाओ, मुक़द्दमों की तारीखें भुगतो। बीवी की फरमाइशें पूरी करो, बच्चों की निगहदाश्त करो। यूं तो मजीद काम बड़ी मुस्तैदी से करता था और वो अपनी इस नई हंगामाख़ेज़ ज़िंदगी में रच मच गया था लेकिन इसके बावजूद नाख़ुश था।
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