बर्फ़बारी से पहले

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“आज रात तो यक़ीनन बर्फ़ पड़ेगी”, साहिब-ए-ख़ाना ने कहा। सब आतिश-दान के और क़रीब हो के बैठ गए। आतिश-दान पर रखी हुई घड़ी अपनी मुतवाज़िन यकसानियत के साथ टक-टक करती रही। बिल्लियाँ कुशनों में मुँह दिए ऊँघ रही थीं, और कभी-कभी किसी आवाज़ पर कान खड़े कर के खाने के कमरे के दरवाज़े की तरफ़ एक आँख थोड़ी सी खोल कर देख लेती थीं। साहिब-ए-ख़ाना की दोनों लड़कियाँ निटिंग में मशग़ूल थीं। घर के सारे बच्चे कमरे के एक कोने में पुराने अख़बारों और रिसालों के ढेर पर चढ़े कैरम में मसरूफ़ थे।
बौबी मुमताज़ खिड़की के क़रीब ख़ामोश बैठा इन सबको देखता रहा।

“हाँ आज रात तो क़तई’ बर्फ़ पड़ेगी”, साहिब-ए-ख़ाना के बड़े बेटे ने कहा।
“बड़ा मज़ा आएगा। सुब्ह को हम स्नोमैन बनाएँगे”, एक बच्चा चिल्लाया। [...]

पूरे चाँद की रात

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अप्रैल का महीना था। बादाम की डालियां फूलों से लद गई थीं और हवा में बर्फ़ीली ख़ुनकी के बावजूद बहार की लताफ़त आ गई थी। बुलंद-ओ-बाला तंगों के नीचे मख़मलीं दूब पर कहीं कहीं बर्फ़ के टुकड़े सपीद फूलों की तरह खिले हुए नज़र आ रहे थे। अगले माह तक ये सपीद फूल इसी दूब में जज़्ब हो जाऐंगे और दूब का रंग गहरा सब्ज़ हो जाएगा और बादाम की शाख़ों पर हरे हरे बादाम पुखराज के नगीनों की तरह झिलमिलाएंगे और नीलगूं पहाड़ों के चेहरों से कोहरा दूर होता जाएगा और इस झील के पुल के पार पगडंडी की ख़ाक मुलाइम भेड़ों की जानी-पहचानी बा आ आ आ से झनझना उठेगी और फिर इन बुलंद-ओ-बाला तंगों के नीचे चरवाहे भेड़ों के जिस्मों से सर्दियों की पली हुई मोटी मोटी गफ़ ऊन गरमियों में कुतरते जाऐंगे और गीत गाते जाऐंगे।
लेकिन अभी अप्रैल का महीना था। अभी तंगों पर पत्तियाँ ना फूटी थीं। अभी पहाड़ों पर बर्फ़ का कोहरा था। अभी पगडंडी का सीना भेड़ों की आवाज़ से गूँजा ना था। अभी सम्मल की झील पर कंवल के चराग़ रौशन ना हुए थे। झील का गहरा सब्ज़ पानी अपने सीने के अंदर उन लाखों रूपों को छुपाए बैठा था जो बहार की आमद पर यकायक उस की सतह पर एक मासूम और बेलौस हंसी की तरह खिल जाऐंगे। पुल के किनारे किनारे बादाम के पेड़ों की शाख़ों पर शगूफ़े चमकने लगे थे। अप्रैल में ज़मिस्तान की आख़िरी शब में जब बादाम के फूल जागते हैं और बहार के नक़ीब बन कर झील के पानी में अपनी किश्तियां तैराते हैं। फूलों के नन्हे नन्हे शिकारे सतह-ए-आब पर रक़्साँ-ओ-लर्ज़ां बहार की आमद के मुंतज़िर हैं।

पुल के जंगले का सहारा लेकर में एक अरसे से उस का इंतेज़ार कर रहा था। सै पहर ख़त्म हो गई। शाम आ गई, झील वलर को जाने वाले हाऊस बोट, पुल की संगलाख़ी मेहराबों के बीच में से गुज़र गए और अब वो उफ़ुक़ की लकीर पर काग़ज़ की नाव की तरह कमज़ोर और बेबस नज़र आ रहे थे। शाम का क़िरमज़ी रंग आसमान के इस किनारे से उस किनारे तक फैलता गया और क़िरमज़ी से सुरमई और सुरमई से सियाह होता गया। हत्ता कि बादाम के पेड़ों की क़तार की ओट में पगडंडी भी सो गई और फिर रात के सन्नाटे में पहला तारा किसी मुसाफ़िर के गीत की तरह चमक उठा। हवा की ख़ुनकी तेज़-तर होती गई और नथने उस के बर्फ़ीले लम्स से सुन्न हो गए।
और फिर चांद निकल आया। [...]

मजीद का माज़ी

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मजीद की माहाना आमदनी ढाई हज़ार रुपये थी। मोटर थी, एक आलीशान कोठी थी, बीवी थी। इस के इलावा दस-पंद्रह औरतों से मेल जोल था। मगर जब कभी वो विस्की के तीन चार पैग पीता तो उसे अपना माज़ी याद आ जाता। वो सोचता कि अब वो इतना ख़ुश नहीं जितना कि पंद्रह बरस पहले था। जब उसके पास रहने को कोठी थी, न सवारी के लिए मोटर। बीवी थी न किसी औरत से उसकी शनासाई थी।
ढाई हज़ार रुपये तो एक अच्छी ख़ासी रक़म है। उन दिनों उसकी आमदन सिर्फ़ साठ रुपये माहवार थी। साठ रुपये जो उसे बड़ी मुश्किल से मिलते थे लेकिन इसके बावजूद वो ख़ुश था। उसकी ज़िंदगी उफ्तां-ओ-ख़ीज़ां हालात के होते हुए भी हमवार थी।

अब उसे बेशुमार तफ़क्कुरात थे, कोठी के, बीवी के, बच्चों के, उन औरतों के जिनसे उनका मेल जोल था। इनकम टैक्स का टंटा अलग था, सेल्ज़ टैक्स का झगड़ा जुदा। इसके इलावा और बहुत सी उलझनें थीं जिनसे मजीद को कभी नजात ही नहीं मिलती थी। चुनांचे अब वो उस ज़माने को अक्सर याद करता था, जब उसकी ज़िंदगी ऐसे तफ़क्कुरात और ऐसी उलझनों से आज़ाद थी। वो एक बड़ी ग़रीबी की लेकिन बड़ी ख़ुशगवार ज़िंदगी बसर करता था।
इनकम टैक्स ज़्यादा लग गया है, माहिरों से मशवरा करो। ऑफ़िसरों से मिलो, उनको रिश्वत दो। सेल्ज़ टैक्स का झगड़ा चुकाओ, ब्लैक मार्किट करो, यहां से जो कमाओ उसको व्हाईट करो, झूटी रसीदें बनाओ, मुक़द्दमों की तारीखें भुगतो। बीवी की फरमाइशें पूरी करो, बच्चों की निगहदाश्त करो। यूं तो मजीद काम बड़ी मुस्तैदी से करता था और वो अपनी इस नई हंगामाख़ेज़ ज़िंदगी में रच मच गया था लेकिन इसके बावजूद नाख़ुश था। [...]

अन्न-दाता

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(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। [...]

पतझड़ की आवाज़

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सुबह मैं गली के दरवाज़े में खड़ी सब्ज़ी वाले से गोभी की क़ीमत पर झगड़ रही थी। ऊपर बावर्चीख़ाने में दाल चावल उबालने के लिए चढ़ा दिये थे। मुलाज़िम सौदा लेने के लिए बाज़ार जा चुका था। ग़ुस्लख़ाने में वक़ार साहिब चीनी की चिलमची के ऊपर लगे हुए मद्धम आईने में अपनी सूरत देखते हुए गुनगुना रहे थे और शेव करते जाते थे। मैं सब्ज़ी वाले से बहस करने के साथ साथ सोचने में मसरूफ़ थी कि रात के खाने के लिए क्या-क्या तैयार किया जाये। इतने में सामने एक कार आन कर रुकी। एक लड़की ने खिड़की से झाँका और फिर दरवाज़ा खोल कर बाहर उतर आयी। मैं पैसे गिन रही थी। इसलिए मैंने उसे न देखा। वो एक क़दम आगे बढ़ी। अब मैंने सर उठाकर इस पर नज़र डाली।
“अरे... तुम...!” उसने हक्का बक्का होकर कहा और वहीं ठिठक कर रह गयी। ऐसा लगा जैसे वो मुद्दतों से मुझे मुर्दा तसव्वुर कर चुकी है और अब मेरा भूत उसके सामने खड़ा है। उसकी आँखों में एक लहज़े के लिए जो दहश्त मैंने देखी उसकी याद ने मुझे बावला कर दिया है। मैं तो सोच सोच के दीवानी हो जाऊंगी। ये लड़की (उस का नाम तक ज़ेह्न में महफ़ूज़ नहीं और उस वक़्त मैंने झेंप के मारे उससे पूछा भी नहीं वर्ना वो कितना बुरा मानती) मेरे साथ दिल्ली के क्वीन मैरी में पढ़ती थी। ये बीस साल पहले की बात है। मैं उस वक़्त कोई सत्रह साल की रही होंगी। मगर मेरी सेहत इतनी अच्छी थी कि अपनी उम्र से कहीं बड़ी मालूम होती थी और मेरी ख़ूबसूरती की धूम मचनी शुरू हो चुकी थी। दिल्ली में क़ायदा था कि लड़के वालियाँ स्कूल-स्कूल घूम के लड़कियां पसंद करती फिरती थीं और जो लड़की पसंद आती थी उसके घर ‘रुक्क़ा’ भिजवा दिया जाता था। उसी ज़माने में मुझे मालूम हुआ कि उस लड़की की माँ-ख़ाला वग़ैरा ने मुझे पसंद कर लिया है (स्कूल डे के जलसे के रोज़ देखकर) और अब वो मुझे बहू बनाने पर तुली बैठी हैं। ये लोग नूर जहां रोड पर रहते थे और लड़का हाल ही में रिज़र्व बैंक आफ़ इंडिया में दो डेढ़ सौ रुपये माहवार का नौकर हुआ था। चुनांचे ‘रुक्क़ा’ मेरे घर भिजवाया गया। मगर मेरी अम्माँ जान मेरे लिए बड़े ऊंचे ख़्वाब देख रही थीं। मेरे वालदैन दिल्ली से बाहर मेरठ में रहते थे और अभी मेरे ब्याह का कोई सवाल ही पैदा न होता था लिहाज़ा वो पैग़ाम फ़िल-फ़ौर नामंज़ूर कर दिया गया।

उसके बाद उस लड़की ने कुछ अ’र्से मेरे साथ कॉलेज में भी पढ़ा। फिर उसकी शादी हो गई और वो कॉलेज छोड़कर चली गई। आज इतने अ’र्से बाद लाहौर की माल रोड के पिछवाड़े इस गली में मेरी उससे मुडभेड़ हुई। मैंने उससे कहा,... ऊपर आओ... चाय-वाय पियो। फिर इत्मिनान से बैठ कर बातें करेंगे।” लेकिन उसने कहा मैं जल्दी में किसी ससुराली रिश्तेदार का मकान तलाश करती हुई इस गली में आ निकली थी। इंशाअल्लाह फिर कभी ज़रूर आऊँगी। इस के बाद वहीं खड़े-खड़े उसने जल्दी जल्दी नाम बनाम सारी पुरानी दोस्तों के क़िस्से सुनाए। कौन कहाँ है और क्या कर रही है। सलीमा ब्रगेडीयर फ़ुलां की बीवी है। चार बच्चे हैं। फ़र्खंदा का मियां फॉरेन सर्विस में है। उसकी बड़ी लड़की लंदन में पढ़ रही है। रेहाना फ़ुलां कॉलेज में प्रिंसिपल है। सादीया अमरीका से ढेरों डिग्रियां ले आई है और कराची में किसी ऊंची मुलाज़मत पर बिराजमान है। कॉलेज की हिंदू साथियों के हालात से भी वो बाख़बर थी। प्रभा का मियां इंडियन नेवी में कमोडोर है। वो बंबई में रहती है। सरला ऑल इंडिया रेडियो में स्टेशन डायरेक्टर है और जुनूबी हिंद में कहीं तयनात है। लोतिका बड़ी मशहूर आर्टिस्ट बन चुकी है और नई दिल्ली में उसका स्टूडियो है वग़ैरा वग़ैरा। वो ये सब बातें कर रही थी मगर उसकी आँखों की उस दहश्त को मैं न भूल सकी।
उसने कहा,... “मैं सादीया,रेहाना वग़ैरा जब भी कराची में इकट्ठे होते हैं तुम्हें बराबर याद करते हैं।” [...]

माई नानकी

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इस दफ़ा मैं एक अजीब सी चीज़ के मुतअल्लिक़ लिख रहा हूँ। ऐसी चीज़ जो एक ही वक़्त में अजीब-ओ-ग़रीब और ज़बरदस्त भी है। मैं असल चीज़ लिखने से पहले ही आपको पढ़ने की तरग़ीब दे रहा हूँ। उसकी वजह ये है कि कहीं आप कल को न कह दें कि हमने चंद पहली सुतूर ही पढ़ कर छोड़ दिया था क्योंकि वो ख़ुश्क सी थीं। आज इस बात को क़रीब-क़रीब तीन माह गुज़र गए हैं कि मैं माई नानकी के मुतअल्लिक़ कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था।
मैं चाहता था कि किसी तरह जल्दी से उसे लिख दूँ ताकि आप भी माई नानकी की अजीब-ओ-ग़रीब और पुर-असरार शख़्सियत से वाक़िफ़ हो जाएं। हो सकता है आप इससे पहले भी माई नानकी को जानते हों क्योंकि उसे कश्मीर और जम्मू कश्मीर के इलाक़े के सभी लोग जानते हैं और लाहौर में सय्यद मिठा और हीरा मंडी के गर्द-ओ-नवाह में रहने वाले लोग भी।

क्योंकि असल में वो रहने वाली जम्मू की है और आजकल राजा ध्यान सिंह की हवेली के एक अंधेरे कोने में रहती है। लिहाज़ा बहुत मुम्किन है कि आप भी जम्मू या हीरा मंडी के गर्द-ओ-नवाह में रहते हों और माई नानकी से वाक़िफ़ हों, लेकिन मैंने उसे बहुत क़रीब से देखा है।
मैंने अपनी ज़िंदगी में बहुत सी औरतें देखी हैं और बड़ी-बड़ी ज़हरीली क़िस्म की औरतें लेकिन मैं आज तक किसी से इतना मुतास्सिर नहीं हुआ जितना उस औरत से। जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूँ वो जम्मू की रहने वाली है। [...]

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