नया क़ानून

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मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्डे के वो तमाम कोचवान जिन को ये जानने की ख़्वाहिश होती थी कि दुनिया के अंदर क्या हो रहा है उस्ताद मंगू की वसीअ मालूमात से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे।
पिछले दिनों जब उस्ताद मंगू ने अपनी एक सवारी से स्पेन में जंग छिड़ जाने की अफ़वाह सुनी थी तो उसने गामा चौधरी के चौड़े कांधे पर थपकी दे कर मुदब्बिराना अंदाज़ में पेशगोई की थी, “देख लेना गामा चौधरी, थोड़े ही दिनों में स्पेन के अंदर जंग छिड़ जाएगी।”

जब गामा चौधरी ने उससे ये पूछा था, “कि स्पेन कहाँ वाक़ा है,” तो उस्ताद मंगू ने बड़ी मतानत से जवाब दिया था, “विलायत में और कहाँ?”
स्पेन की जंग छिड़ी और जब हर शख़्स को पता चल गया तो स्टेशन के अड्डे में जितने कोचवान हुक़्क़ा पी रहे थे, दिल ही दिल में उस्ताद मंगू की बड़ाई का एतराफ़ कर रहे थे। और उस्ताद मंगू उस वक़्त माल रोड की चमकीली सतह पर ताँगा चलाते हुए किसी सवारी से ताज़ा हिंदू-मुस्लिम फ़साद पर तबादला-ए-ख़्याल कर रहा था। [...]

दुनिया का सबसे अनमोल रतन

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दिल-फ़िगार एक पुरख़ार दरख़्त के नीचे दामन चाक किए बैठा हुआ ख़ून के आँसू बहा रहा था। वो हुस्न की देवी यानी मलिका दिल-फ़रेब का सच्चा और जाँ-बाज़ आशिक़ था। उन उश्शाक में नहीं जो इत्र-फुलेल में बस कर और लिबास-ए-फ़ाखिरा में सज कर आशिक़ के भेस में माशूक़ियत का दम भरते हैं, बल्कि उन सीधे सादे भोले भाले फ़िदाइयों में जो कोह और बयाबाँ में सर टकराते और नाला-ओ-फ़रियाद मचाते फिरते हैं। दिल-फ़रेब ने उससे कहा था कि, “अगर तू मेरा सच्चा आशिक़ है तो जा और दुनिया की सबसे बेश-बहा शय लेकर मेरे दरबार में आ। तब मैं तुझे अपनी गु़लामी में क़बूल करुँगी। अगर तुझे वो चीज़ न मिले तो ख़बरदार! इधर का रुख़ न करना वर्ना दार पर खींचवा दूँगी।” दिल-फ़िगार को अपने जज़्बे के इज़हार का, शिकवा-शिकायत और जमाल-ए-यार के दीदार का मुतलक़ मौक़ा न दिया गया। दिल-फ़रेब ने जूँ ही ये फ़ैसला सुनाया, उसके चोबदारों ने ग़रीब दिल-फ़िगार को धक्के दे कर बाहर निकाल दिया और आज तीन दिन से ये सितम-रसीदा शख़्स उसी पुरख़ार दरख़्त के नीचे इसी वहशत-नाक मैदान में बैठा हुआ सोच रहा है कि क्या करूँ? दुनिया की सब से बेश-बहा शय! ना-मुम्किन! और वो है क्या? क़ारून का ख़ज़ाना? आब-ए-हयात? ताज-ए-ख़ुसरो? जाम-ए-जम? तख़्त-ए-ताऊस? ज़र-ए-परवेज़? नहीं ये चीज़ें हरगिज़ नहीं। दुनिया में ज़रूर इनसे गिराँ तर, इनसे भी बेश-बहा चीज़ें मौजूद हैं। मगर वो क्या हैं? कहाँ हैं? कैसे मिलेंगी? या ख़ुदा मेरी मुश्किल क्यों कर आसान होगी!
दिल-फ़िगार इन्ही ख़यालात में चक्कर खा रहा था और अक़्ल कुछ काम न करती थी। मुनीर-ए-शामी को हातिम सा मददगार मिल गया। ऐ काश कोई मेरा भी मददगार हो जाता। ऐ काश मुझे भी उस चीज़ का, जो दुनिया की सब से बेश-बहा है, नाम बतला दिया जाता। बला से वो शय दस्तयाब न होती मगर मुझे इतना मालूम हो जाता कि वो किस क़िस्म की चीज़ है। मैं घड़े बराबर मोती की खोज में जा सकता हूँ। मैं समंदर का नग़्मा, पत्थर का दिल, क़ज़ा की आवाज़, और उनसे भी ज़्यादा बे-निशान चीज़ों की तलाश में कमर हिम्मत बाँध सकता हूँ। मगर दुनिया की सब से बेश-बहा शय, ये मेरे पर परवाज़ से बाला-ए-तर है।

आसमान पर तारे निकल आए थे। दिल-फ़िगार यकायक ख़ुदा का नाम लेकर उठा और एक तरफ़ को चल खड़ा हुआ, भूका-प्यासा। बरहना तन ख़स्ता-ओ-ज़ार, वो बरसों वीरानों और आबादियों की ख़ाक छानता फिरा। तलवे काँटों से छलनी हो गए। जिस्म में तार-ए-सतर की तरह हड्डियाँ ही हड्डियाँ नज़र आने लगीं। मगर वो चीज़ जो दुनिया की सब से बेश-बहा शय थी। मयस्सर न हुई। और न उस का कुछ निशान मिला।
एक रोज़ भूलता-भटकता एक मैदान में निकला। जहाँ हज़ारों आदमी हल्क़ा बाँधे खड़े थे। बीच में अम्मामे और अबा वाले रीशाईल क़ाज़ी शान-ए-तहक्कुम से बैठे हुए बाहम कुछ ग़ुरफ़िश कर रहे थे और उस जमा'अत से ज़रा दूर पर एक सूली खड़ी थी। दिल-फ़िगार कुछ ना-तवानी के ग़लबे से और कुछ यहाँ की कैफ़ियत देखने के इरादे से ठिटक गया। क्या देखता है कि कई बरक़नदार एक दस्त-ओ-पा-ब-ज़ंजीर क़ैदी के ले चले आ रहे हैं। सूली के क़रीब पहुँच कर सब सिपाही रुक गए। और क़ैदी की हथकड़ियाँ बेड़ियाँ सब उतार ली गईं। उस बद-क़िस्मत शख़्स का दामन सद-हा-बे-गुनाहों के ख़ून के छींटों से रंगीन हो रहा था। और उसका दिल नेकी के ख़याल और रहम की आवाज़ से मुतलक़ मानूस न था। उसे काला चोर कहते थे। सिपाहियों ने उसे सूली के तख़्ते पर खड़ा कर दिया। मौत की फाँसी उसकी गर्दन में डाल दी। और जल्लादों ने तख़्ता खींचने का इरादा किया। कि बद-क़िस्मत मुजरिम चीख़ कर बोला, “लिल्लाह मुझे एक दम के लिए फाँसी से उतार दो। ताकि अपने दिल की आख़िरी आरज़ू निकाल लूँ।” ये सुनते ही चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया। लोग हैरत में आकर ताकने लगे। क़ाज़ियों ने एक मरने वाले शख़्स की आख़िरी इस्तिदा को रद्द करना मुनासिब न समझा। और बद-नसीब सियह-कार काला चोर ज़रा देर के लिए फाँसी से उतार लिया गया। [...]

तस्वीर के दो रुख़

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तीसरे पहर के वक़्त बेगम इब्बन अंगनाई में पलंग पर बैठी छालिया कुतर रही थीं। सामने बावर्ची ख़ाना में मामा हंडिया बघार रही थी। जब ड्योढ़ी में किसी ने कुंडी खटखटाई तो बेगम इब्बन बोलीं, “अरी दिलचीन देखियो तो कौन खटखटा रहा है? इस शोर से तो नाक में दम आ गया।“ इतने में बाहर से आवाज़ आई, “मैं आ जाऊँ?“
“कौन है?“

“मैं हूँ, बशीर।”
“मियाँ बशीर आओ, मियाँ बहुत दिनों में आए हो। क्या रस्ता भूल गए?” [...]

स्वराज के लिए

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मुझे सन् याद नहीं रहा लेकिन वही दिन थे। जब अमृतसर में हर तरफ़ “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” के नारे गूंजते थे। उन नारों में, मुझे अच्छी तरह याद है, एक अ’जीब क़िस्म का जोश था... एक जवानी... एक अ’जीब क़िस्म की जवानी। बिल्कुल अमृतसर की गुजरियों की सी जो सर पर ऊपलों के टोकरे उठाए बाज़ारों को जैसे काटती हुई चलती हैं... ख़ूब दिन थे। फ़िज़ा में जो जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे का उदास ख़ौफ़ समोया रहता था। उस वक़्त बिल्कुल मफ़क़ूद था। अब उसकी जगह एक बेख़ौफ तड़प ने ले ली थी। एक अंधाधुंद जस्त ने जो अपनी मंज़िल से नावाक़िफ़ थी।
लोग नारे लगाते थे, जलूस निकालते थे और सैंकड़ों की ता’दाद में धड़ाधड़ क़ैद हो रहे थे। गिरफ़्तार होना एक दिलचस्प शग़ल बिन गया था। सुबह क़ैद हुए, शाम छोड़ दिए गए। मुक़द्दमा चला, चंद महीनों की क़ैद हुई, वापस आए, एक नारा लगाया, फिर क़ैद हो गए।

ज़िंदगी से भरपूर दिन थे। एक नन्हा सा बुलबुला फटने पर भी एक बहुत बड़ा भंवर बन जाता था। किसी ने चौक में खड़े हो कर तक़रीर की और कहा, हड़ताल होनी चाहिए, चलिए जी हड़ताल हो गई... एक लहर उठी कि हर शख़्स को खादी पहननी चाहिए ताकि लंका शाइर के सारे कारख़ाने बंद हो जाएं... बिदेशी कपड़ों का बायकॉट शुरू हो गया और हर चौक में अलाव जलने लगे। लोग जोश में आकर खड़े खड़े वहीं कपड़े उतारते और अलाव में फेंकते जाते, कोई औरत अपने मकान के शहनशीन से अपनी नापसंदीदा साड़ी उछालती तो हुजूम तालियां पीट पीट कर अपने हाथ लाल कर लेता।
मुझे याद है कोतवाली के सामने टाउन हाल के पास एक अलाव जल रहा था... शेख़ू ने जो मेरा हम-जमाअ’त था, जोश में आकर अपना रेशमी कोट उतारा और बिदेशी कपड़ों की चिता में डाल दिया। तालियों का समुंदर बहने लगा क्योंकि शेख़ू एक बहुत बड़े “टोडी बच्चे” का लड़का था। उस ग़रीब का जोश और भी ज़्यादा बढ़ गया। अपनी बोस्की की क़मीज़ उतार वो भी शो’लों की नज़र करदी, लेकिन बाद में ख़याल आया कि उसके साथ सोने के बटन थे। [...]

अमृतसर आज़ादी से पहले

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जलियाँवाला बाग़ में हज़ारों का मजमा था। इस मजमे में हिंदू थे, सिक्ख भी थे और मुस्लमान भी। हिंदू मुस्लमानों से और मुस्लमान सिक्खों से अलग साफ़ पहचाने जाते थे। सूरतें अलग थीं, मिज़ाज अलग थे, तहज़ीबें अलग थीं, मज़हब अलग थे लेकिन आज ये सब लोग जलियाँवाला बाग़ में एक ही दिल ले के आए थे। इस दिल में एक ही जज़्बा था और इस जज़बे की तेज़ और तुंद आँच ने मुख़्तलिफ़ तमद्दुन और समाज एक कर दीए थे।
दिलों में इन्क़िलाब की एक ऐसी पैहम रौ थी कि जिसने आस-पास के माहौल को भी पुर-फ़साद बना दिया था। ऐसा मालूम होता था कि इस शहर के बाज़ारों का हर पत्थर और इसके मकानों की हर एक ईंट इस ख़ामोश जज़्बे की गूंज से आश्ना है और इस लरज़ती हुई धड़कन से नग़मा-रेज़ है। जो हर लम्हे के साथ गोया कहती जाती हो। आज़ादी, आज़ादी।।

जलियाँवाला बाग़ में हज़ारों का मजमा था और सभी निहत्ते थे और सभी आज़ादी के परसतार थे। हाथों में लाठियाँ थीं न रिवॉल्वर, ना ब्रेन गन ना स्टेन गन। हैंड ग्रेनेड ना थे। देसी या विलाएती साख़्त के बम भी न थे मगर पास कुछ ना होते हुए भी निगाहों की गर्मी किसी भूंचाल के क़यामत-ख़ेज़ लावे की हिद्दत का पता देती थी।
सामराजी फ़ौजों के पास लोहे के हथियार थे। यहां दिल फ़ौलाद के बन के रह गए थे और रूहों में ऐसी पाकीज़गी सी आ गई थी जो सिर्फ आला-ओ-अर्फ़ा क़ुर्बानी से हासिल होती है। पंजाब के पांचों दरियाओं का पानी और उनके रूमान और उनका सच्चा इश्क़ और उनकी तारीख़ी बहादुरी आज हर फ़र्द, बशर, बच्चे, बूढ़े के टिमटिमाते हुए रुख़्सारों में थी। एक ऐसा उजला-उजला ग़ुरूर जो उसी वक़्त हासिल होता है जब क़ौम जवान हो जाती है और सोया हुआ मुल्क बेदार हो जाता है। जिन्हों ने अमृतसर के ये तेवर देखे हैं। वो इन गुरूओं के इस मुक़द्दस शहर को कभी नहीं भुला सकते। [...]

दुनिया का सब से अनमोल रतन

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दिलफ़िगार एक पुर ख़ार दरख़्त के नीचे दामन चाक किये बैठा हुआ ख़ून के आँसू बहा रहा था। वो हुस्न की देवी यानी मलिका दिलफ़रेब का सच्चा और जाँबाज़ आशिक़ था। उन उश्शाक में नहीं जो इत्र-फुलेल में बस कर और लिबास फ़ाखिरा सज कर आशिक़ के भेस में माशूक़ियत का दम भरते हैं, बल्कि उन सीधे सादे भोले भाले फ़िदाइयों में जो कोह और ब्याबां में सर टकराते और नाला-व-फ़र्याद मचाते फिरते हैं। दिलफ़रेब ने उससे कहा था कि अगर तू मेरा सच्चा आशिक़ है तो जा और दुनिया की सबसे बेशबहा शय लेकर मेरे दरबार में आ तब में तुझे अपनी गु़लामी में क़बूल करूंगी। अगर तुझे वो चीज़ न मिले तो ख़बरदार! इधर का रुख़ न करना वर्ना दार पर खींचवा दूंगी। दिलफ़िगार को अपने जज़्बे के इज़हार का शिकवा शिकायत और जमाल-ए-यार के दीदार का मुतलक़ मौक़ा न दिया गया। दिलफ़रेब ने जूं ही ये फ़ैसला सुनाया। उसके चोबदारों ने ग़रीब दिलफ़िगार को धक्के दे कर बाहर निकाल दिया और आज तीन दिन से ये सितम रसीदा शख़्स उसी पुर ख़ार दरख़्त के नीचे इसी वहशतनाक मैदान में बैठा हुआ सोच रहा है कि क्या करूं? दुनिया की सब से बेश-बहा शय! नामुमकिन! और वो है क्या? क़ारून का ख़ज़ाना? आब-ए-हयात? ताज ए ख़ुसरो? जाम ए जम? तख़्त-ए-ताऊस? ज़र परवेज़? नहीं ये चीज़ें हरगिज़ नहीं दुनिया में ज़रूर उनसे गिरां तर, उनसे भी बेशबहा चीज़ें मौजूद हैं। मगर वो क्या हैं? कहाँ हैं? कैसे मिलेंगी? या ख़ुदा मेरी मुश्किल क्यों कर आसान होगी!
दिलफ़िगार उन्ही ख़्यालात में चक्कर खा रहा था और अक़ल कुछ काम न करती थी मुनीर ए शामी को हातिम सा मदद गार मिल गया। ए काश कोई मेरा भी मददगार हो जाता। ए काश मुझे भी उस चीज़ का जो दुनिया की सब से बेशबहा है, नाम बतला दिया जाता बला से वो शैय दस्तयाब न होती मगर मुझे इतना मालूम हो जाता कि वो किस किस्म की चीज़ है। मै घड़े बराबर मोती की खोज में जा सकता हूँ। में समुंद्र का नग़मा, पत्थर का दिल, क़ज़ा की आवाज़, और उनसे भी ज़्यादा ने निशान चीज़ों की तलाश में कमर हिम्मत बांध सकता हूँ।मगर दुनिया की सब से बेशबहा शैय ये मेरे पर परवाज़ से बाला-ए-तर है।

आसमान पर तारे निकल आए थे। दिलफ़िगार यकायक ख़ुदा का नाम लेकर उठा और एक तरफ़ को चल खड़ा हुआ भूका प्यासा। ब्रहना तन ख़स्ता-व-ज़ार वो बरसों वीरानों और आबादीयों की ख़ाक छानता फिरा। तलवे कांटों से छलनी हो गए। जिस्म में तार सतर की तरह हड्डियां ही हड्डियां नज़र आने लगीं। मगर वो चीज़ जो दुनिया की सब से बेशबहा शैय थी। मयस्सर न हुई। और न इस का कुछ निशान मिला।
एक रोज़ भूलता भटकता एक मैदान में निकला। जहां हज़ारों आदमी हलक़ा बांधे खड़े थे। बीच में अमामे और अबा वाले रीशाईल क़ाज़ी शान तहक्कुम से बैठे हुए बाहम कुछ ग़रफ़श कर रहे थे और उस जमात से ज़रा दूर पर एक सूली खड़ी थी। दिलफ़िगार कुछ नातवानी के ग़लबे से। और कुछ यहां की कैफ़ीयत देखने के इरादे से ठटक गया। क्या देखता है कि कई बरकनदार एक दस्त-व-पा बज़नजीर क़ैदी के ले चले आ रहे हैं। सूली के क़रीब पहूंच कर सब सिपाही रुक गए। और क़ैदी की हथकड़ीयां बेड़ियां सब उतार ली गईं। उस बदक़िस्मत शख़्स का दामन सदहा बेगुनाहों के ख़ून के छींटों से रंगीन हो रहा था। और उसका दिल नेकी के ख़्याल और रहम की आवाज़ से मुतलक़ मानूस न था। उसे काला चोर कहते थे। सिपाहीयों ने उसे सूली के तख़्ते पर खड़ा कर दिया। मौत की फांसी उसकी गर्दन मं डाल दी। और जल्लादों ने तख़्ता खींच का इरादा किया। कि बदक़िस्मत मुजरिम चीख़ कर बोला लिल्ला मुझे एक दम के लिए फांसी से उतार दो। ताकि अपने दिल की आख़िरी आरज़ू निकाल लूं। ये सुनते ये चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया। लोग हैरत में आकर ताकने लगे। क़ाज़ीयों ने एक मरने वाले शख़्स की आख़िरी इस्तिदा को रद्द करना मुनासिब ना समझा। और बदनसीब सिहा कार काला चोर ज़रा देर के लिए फांसी से उतार लिया गया। [...]

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