डालन वाला

Shayari By

हर तीसरे दिन, सह-पहर के वक़्त एक बेहद दुबला पुतला बूढ़ा, घुसे और जगह-जगह से चमकते हुए सियाह कोट पतलून में मलबूस, सियाह गोल टोपी ओढ़े, पतली कमानी वाली छोटे-छोटे शीशों की ऐ’नक लगाए, हाथ में छड़ी लिए बरसाती में दाख़िल होता और छड़ी को आहिस्ता-आहिस्ता बजरी पर खटखटाता। फ़क़ीरा बाहर आकर बाजी को आवाज़ देता, “बिटिया। चलिए। साइमन आ गए।”
बूढ़ा बाहर ही से बाग़ की सड़क का चक्कर काट कर पहलू के बरामदे में पहुँचता। एक कोने में जाकर और जेब में से मैला सा रूमाल निकाल कर झुकता, फिर आहिस्ता से पुकारता, “रेशम... रेशम... रेशम...”

रेशम दौड़ती हुई आती। बाजी बड़े आर्टिस्टिक अंदाज़ में सरोद कंधे से लगाए बरामदे में नुमूदार होतीं। तख़्त पर बैठ कर सरोद का सुर्ख़ बनारसी ग़िलाफ़ उतारतीं और सबक़ शुरू’ जाता।
बारिश के बा’द जब बाग़ भीगा-भीगा सा होता और एक अनोखी सी ताज़गी और ख़ुशबू फ़िज़ा में तैरती तो बूढ़े को वापिस जाते वक़्त घास पर गिरी कोई ख़ूबानी मिल जाती। वो उसे उठा कर जेब में रख लेता। रेशम उसके पीछे-पीछे चलती। अक्सर रेशम शिकार की तलाश में झाड़ियों के अंदर ग़ायब हो जाती या किसी दरख़्त पर चढ़ जाती तो बूढ़ा सर उठा कर एक लम्हे के लिए दरख़्त की हिलती हुई शाख़ को देखता और फिर सर झुका कर फाटक से बाहर चला जाता। तीसरे रोज़ सह-पहर को फिर उसी तरह बजरी पर छड़ी खटखटाने की आवाज़ आती। ये मा’मूल बहुत दिनों से जारी था। [...]

मौसम की शरारत

Shayari By

शाम को सैर के लिए निकला और टहलता टहलता उस सड़क पर हो लिया जो कश्मीर की तरफ़ जाती है। सड़क के चारों तरफ़ चीड़ और देवदार के दरख़्त, ऊंची ऊंची पहाड़ियों के दामन पर काले फीते की तरह फैले हुए थे। कभी कभी हवा के झोंके उस फीते में एक कपकपाहट सी पैदा कर देते।
मेरे दाएं हाथ एक ऊँचा टीला था जिसके ढलवानों में गंदुम के हरे पौदे निहायत ही मद्धम सरसराहट पैदा कर रहे थे। ये सरसराहट कानों पर बहुत भली मालूम होती थी। आँखें बंद कर लो तो यूं मालूम होता कि तसव्वुर के गुदगुदे क़ालीनों पर कई कुंवारियां रेशमी साड़ियां पहने चल फिर रही हैं। इन ढलवानों के बहुत ऊपर चीड़ के ऊंचे दरख़्तों का एक हुजूम था। बाएं तरफ़ सड़क के बहुत नीचे एक छोटा सा मकान था जिसको झाड़ियों ने घेर रखा था, उससे कुछ फ़ासले पर पस्त क़द झोंपड़े थे, जैसे किसी हसीन चेहरे पर तिल।

हवा गीली और पहाड़ी घास की भीनी भीनी बॉस से लदी हुई थी। मुझे इस सैर में एक नाक़ाबिल-ए-बयान लज़्ज़त महसूस हो रही थी।
सामने टीले पर दो बकरियां बड़े प्यार से एक दूसरी को अपने नन्हे-नन्हे सींगों से रेल रही थीं। उन से कुछ फ़ासले पर कुत्ते का एक पिल्ला जो कि जसामत में मेरे बूट के बराबर था। एक भारी भरकम भैंस की टांग से लिपट लिपट कर उसे डराने की कोशिश कर रहा था। वो शायद भौंकता भी था। क्योंकि उसका मुँह बार बार खुलता था। मगर उसकी आवाज़ मेरे कानों तक नहीं पहुंचती थी। [...]

ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे

Shayari By

ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यों होती है? मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिनको आमतौर पर शादी से कोई दिलचस्पी नहीं होती।
यूं तो इस क़िस्म के मर्द उमूमन सनकी और अजीब-ओ-ग़रीब आदात के मालिक होते हैं, लेकिन ये बात समझ में नहीं आती कि उन्हें ख़ाली बोतलों और डिब्बों से क्यों इतना प्यार होता है...? परिंदे और जानवर अक्सर उन लोगों के पालतू होते हैं। ये मैलान समझ में आ सकता है कि तन्हाई में उनका कोई तो मूनिस होना चाहिए, लेकिन ख़ाली बोतलें और ख़ाली डिब्बे उन की क्या ग़मगुसारी कर सकते हैं?

सनक और अजीब-ओ-ग़रीब आदात का जवाज़ ढूंढना कोई मुश्किल नहीं कि फ़ितरत की ख़िलाफ़वरज़ी ऐसे बिगाड़ पैदा कर सकती है, लेकिन उसकी नफ़सियाती बारीकियों में जाना अलबत्ता बहुत मुश्किल है।
मेरे एक अज़ीज़ हैं। उम्र आपकी इस वक़्त पचास के क़रीब क़रीब है। आपको कबूतर और कुत्ते पालने का शौक़ है और इसमें कोई अजीब-ओ-ग़रीब-पन नहीं लेकिन आपको ये मरज़ है कि बाज़ार से हर रोज़ दूध की बालाई ख़रीद कर लाते हैं। चूल्हे पर रख कर उसका रोग़न निकालते हैं और उस रोग़न में अपने लिए अलाहिदा सालन तैयार करते हैं। उनका ख़याल है कि इस तरह ख़ालिस घी तैयार होता है। [...]

कालू भंगी

Shayari By

मैंने इससे पहले हज़ार बार कालू भंगी के बारे में लिखना चाहा है लेकिन मेरा क़लम हर बार ये सोच कर रुक गया है कि कालू भंगी के मुताल्लिक़ लिखा ही क्या जा सकता है। मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से मैंने उसकी ज़िंदगी को देखने, परखने, समझने की कोशिश की है, लेकिन कहीं वो टेढ़ी लकीर दिखाई नहीं देती जिससे दिलचस्प अफ़साना मुरत्तिब हो सकता है। दिलचस्प होना तो दरकिनार कोई सीधा सादा अफ़साना, बे-कैफ़ ओ बे-रंग, बे-जान मुरक़्क़ा भी तो नहीं लिखा जा सकता है। कालू भंगी के मुताल्लिक़, फिर ना जाने क्या बात है, हर अफ़साने के शुरू में मेरे ज़हन में कालू भंगी आन खड़ा होता है और मुझसे मुस्कुरा कर पूछता है... “छोटे साहब मुझ पर कहानी नहीं लिखोगे? कितने साल हो गए तुम्हें लिखते हुए?”
“आठ साल”

“कितनी कहानियाँ लिखीं तुमने?”
“साठ और दो बासठ” [...]

कबूतरों वाला साईं

Shayari By

पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह-सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग सुलगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भरी आँखों को सुकेड़ कर और अपनी कमर को दुहरा करके, मुँह क़रीब क़रीब ज़मीन के साथ लगा कर ऊपर तले रखे हुए उपलों के अंदर फूंक घुसेड़ने की कोशिश करती है तो ज़मीन पर से थोड़ी सी राख उड़ती है और उसके आधे सफ़ेद और आधे काले बालों पर जो कि घिसे हुए कम्बल का नमूना पेश करते हैं बैठ जाती है और ऐसा मालूम होता है कि उसके बालों में थोड़ी सी सफेदी और आगई है।
उपलों के अंदर आग सुलगती है और यूं जो थोड़ी सी लाल लाल रोशनी पैदा होती है माई जीवां के स्याह चेहरे पर झुर्रियों को और नुमायां कर देती है।

माई जीवां ये आग कई मर्तबा सुलगा चुकी है। ये तकिया या छोटी सी ख़ानक़ाह जिसके अंदर बनी हुई क़ब्र की बाबत उसके परदादा ने लोगों को ये यक़ीन दिलाया था कि वो एक बहुत बड़े पीर की आरामगाह है, एक ज़माने से उनके क़ब्ज़े में थी। गामा साईं के मरने के बाद अब उसकी होशियार बीवी एक तकिए की मुजाविर थी।
गामा साईं सारे गांव में हर दिल अ’ज़ीज़ था। ज़ात का वो कुम्हार था मगर चूँकि उसे तकिए की देख भाल करना होती थी, इसलिए उसने बर्तन बनाने छोड़ दिए थे। लेकिन उसके हाथ की बनाई हुई कुंडियां अब भी मशहूर हैं। [...]

ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे

Shayari By

ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यों होती है? मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिनको आमतौर पर शादी से कोई दिलचस्पी नहीं होती।
यूं तो इस क़िस्म के मर्द उमूमन सनकी और अजीब-ओ-ग़रीब आदात के मालिक होते हैं, लेकिन ये बात समझ में नहीं आती कि उन्हें ख़ाली बोतलों और डिब्बों से क्यों इतना प्यार होता है?... परिंदे और जानवर अक्सर उन लोगों के पालतू होते हैं। ये मैलान समझ में आ सकता है कि तन्हाई में उनका कोई तो मूनिस होना चाहिए, लेकिन ख़ाली बोतलें और ख़ाली डिब्बे उन की क्या ग़मगुसारी कर सकते हैं?

सनक और अजीब-ओ-ग़रीब आदात का जवाज़ ढूंढना कोई मुश्किल नहीं कि फ़ितरत की ख़िलाफ़वरज़ी ऐसे बिगाड़ पैदा कर सकती है, लेकिन उसकी नफ़सियाती बारीकियों में जाना अलबत्ता बहुत मुश्किल है।
मेरे एक अज़ीज़ हैं। उम्र आपकी इस वक़्त पचास के क़रीब क़रीब है। आपको कबूतर और कुत्ते पालने का शौक़ है और इसमें कोई अजीब-ओ-ग़रीब-पन नहीं लेकिन आपको ये मरज़ है कि बाज़ार से हर रोज़ दूध की बालाई ख़रीद कर लाते हैं। चूल्हे पर रख कर उसका रोग़न निकालते हैं और उस रोग़न में अपने लिए अलाहिदा सालन तैयार करते हैं। उनका ख़याल है कि इस तरह ख़ालिस घी तैयार होता है। [...]

Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close