रात की थकन से उसके शाने अभी तक बोझल थे। आँखें ख़ुमार-आलूदा और लबों पर तरेट के डाक बंगले की बीयर का कसैला ज़ायक़ा। वो बार-बार अपनी ज़बान को होंटों पर फेर कर उसके फीके और बे-लज़्ज़त से ज़ायक़े को दूर करने की कोशिश कर रहा था। गो उस की आँखें मंदी हुई थी, लेकिन पहाड़ों के मोड़ उसे इस तरह याद थे, जैसे अलिफ़, बे की पहली सतर, और वो निहायत चाबुकदस्ती से अपनी मोटर को जिसमें सिर्फ दो आदमी बैठ सकते थे, (एक आदमी और ग़ालिबन एक औरत उन ख़तरनाक मोड़ों पर घुमाये ले जा रहा था। कहीं-कहीं तो ये मोड़ बहुत ख़तरनाक हो जाते। एक तरफ़ उमूदी चट्टानें, दूसरी तरफ़ खाई, जिसकी तह में झेलम के नीले पानी और सफ़ेद झाग की एक टेढ़ी सी लकीर नज़र आ जाती, उन्हीं मोड़ों पर से तो कार को तेज़ चलाने में लुत्फ़ हासिल होता था। सारे जिस्म में एक फुरेरी सी आ जाती थी। सुबह की हवा भी बर्फ़ीली और ख़ुश-गवार थी, उसमें ऊंची चोटियों की और घाटियों पर फैले हुए जंगलों के जेगन की महक घुली हुई थी। कैसी अनोखी महक थी, अजीब, बेनाम सी तर-ओ-ताज़ा, निहालू के लबों की तरह, वो अपनी नीम-वा पलकों के साए में पिछली रात के बीते हुए तरबनाक लम्हों को वापस बुलाने लगा। बीयर की रंगत में डूबते हुए सूरज का सोना घुला हुआ था। उसके कसैले-पन में एक अजीब सी लताफ़त थी। रात की भीगी हुई ख़ामोशियों में दूर कहीं एक बुलबुल नग़मा-रेज़ थी। बुलबुल ने अपने नग़मे में ख़ामोशी और आवाज़ को यूं मिला दिया था कि दोनों एक दूसरे की सदाए बाज़-गश्त मालूम होते थे। और वो ये मालूम ना कर सका था कि ये ख़ामोशी कहाँ ख़त्म होती है। और ये मौसीक़ी कहाँ शुरू होती है... चाँदनी-रात में सेब के फूल हंस रहे थे और निहालू के लब मुस्कुरा रहे थे। वो लब-ए-जो बार-बार चूमे जाने पर भी मासूम दिखाई देते थे, ऐसा मालूम होता था कि दुनिया की कोई चीज़ भी उन्हें नहीं छू सकती, कैसा अजीब एहसास था। रात की तन्हाइयों में निहालू का हुस्न ग़ैर-फ़ानी और ग़ैर ज़मीनी मालूम होता था। उसके लब, उस की आँखों की नरमी, उसके बाल स्याह घने और मुलाइम, जैसे रात की भीगी हुई ख़ामोशी, और फिर उन बालों में सेब के चंद चटकते हुए ग़ुंचे, जैसे रात की भीगी हुई ख़ामोशी में बुलबुल के मीठे नग़मे, और वो ये मालूम ना कर सका कि ख़ामोशी कहाँ शुरू होती है और ये मौसीक़ी कहाँ ख़त्म होती है। लेकिन अब तो वो डाक बंगला भी बहुत पीछे रह गया था, और इस वक़्त किसी पुरस्तानी क़िले की तरह मालूम हो रहा था। मोड़ों के उलझाव में कार घूमती हुई जा रही थी और उसके तख़य्युल में निहालू के लब, जेगन की महक, बुलबुल का नग़मा और बियर का सुनहरा रंग चांदी के तार की तरह चमकती हुई सड़क पर उलझते गए। नीचे झेलम का पानी वहशी राग गाने लगा और फ़िज़ा में सेब के लाखों फूल आँखें खोल कर चहचहाने लगे, और उसने सोचा कि क्यों ना वो अपनी मोटर को इसी खाई की वसीअ ख़ला पर एक बे-फ़िक्र परिंदे की तरह उड़ा कर ले जाये, ये ख़्याल आते ही उसने अपने जिस्म में एक सनसनी सी महसूस की और उसकी नीम-वा आँखें खुल गईं।
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