डालन वाला

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हर तीसरे दिन, सह-पहर के वक़्त एक बेहद दुबला पुतला बूढ़ा, घुसे और जगह-जगह से चमकते हुए सियाह कोट पतलून में मलबूस, सियाह गोल टोपी ओढ़े, पतली कमानी वाली छोटे-छोटे शीशों की ऐ’नक लगाए, हाथ में छड़ी लिए बरसाती में दाख़िल होता और छड़ी को आहिस्ता-आहिस्ता बजरी पर खटखटाता। फ़क़ीरा बाहर आकर बाजी को आवाज़ देता, “बिटिया। चलिए। साइमन आ गए।”
बूढ़ा बाहर ही से बाग़ की सड़क का चक्कर काट कर पहलू के बरामदे में पहुँचता। एक कोने में जाकर और जेब में से मैला सा रूमाल निकाल कर झुकता, फिर आहिस्ता से पुकारता, “रेशम... रेशम... रेशम...”

रेशम दौड़ती हुई आती। बाजी बड़े आर्टिस्टिक अंदाज़ में सरोद कंधे से लगाए बरामदे में नुमूदार होतीं। तख़्त पर बैठ कर सरोद का सुर्ख़ बनारसी ग़िलाफ़ उतारतीं और सबक़ शुरू’ जाता।
बारिश के बा’द जब बाग़ भीगा-भीगा सा होता और एक अनोखी सी ताज़गी और ख़ुशबू फ़िज़ा में तैरती तो बूढ़े को वापिस जाते वक़्त घास पर गिरी कोई ख़ूबानी मिल जाती। वो उसे उठा कर जेब में रख लेता। रेशम उसके पीछे-पीछे चलती। अक्सर रेशम शिकार की तलाश में झाड़ियों के अंदर ग़ायब हो जाती या किसी दरख़्त पर चढ़ जाती तो बूढ़ा सर उठा कर एक लम्हे के लिए दरख़्त की हिलती हुई शाख़ को देखता और फिर सर झुका कर फाटक से बाहर चला जाता। तीसरे रोज़ सह-पहर को फिर उसी तरह बजरी पर छड़ी खटखटाने की आवाज़ आती। ये मा’मूल बहुत दिनों से जारी था। [...]

बाय बाय

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नाम उसका फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे। बानिहाल के दर्रे के उस तरफ़ उसके बाप की पनचक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअ’म्मर आदमी था।
दिन भर वो उस पनचक्की के पास बैठी रहती। पहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थी जिसमें ये पनचक्की लगाई गई थी। फातो के बाप को दो-तीन रुपये रोज़ाना मिल जाते, जो उसके लिए काफ़ी थे। फातो अलबत्ता उनको नाकाफ़ी समझती थी इसलिए कि उसको बनाव सिंघार का शौक़ था। वो चाहती थी कि अमीरों की तरह ज़िंदगी बसर करे।

काम काज कुछ नहीं करती थी, बस कभी कभी अपने बूढ़े बाप का हाथ बटा देती थी। उसको आटे से नफ़रत थी। इसलिए कि वो उड़ उड़ कर उसकी नाक में घुस जाता था। वो बहुत झुँझलाती और बाहर निकल कर खुली हवा में घूमना शुरू कर देती या चनाब के किनारे जा कर अपना मुँह-हाथ धोती और अ’जीब क़िस्म की ठंडक महसूस करती।
उसको चनाब से प्यार था। उसने अपनी सहेलियों से सुन रखा था कि ये दरिया इश्क़ का दरिया है जहां सोहनी-महींवाल, हीर-रांझा का इशक़ मशहूर हुआ। [...]

मौज दीन

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रात की तारीकी में सेंट्रल जेल के दो वार्डन बंदूक़ लिए चार क़ैदियों को दरिया की तरफ़ लिए जा रहे थे जिनके हाथ में कुदालें और बेलचे थे। पुल पर पहुंच कर उन्होंने गारद के सिपाही से डिबिया ले कर लालटेन जलाई और तेज़ तेज़ क़दम बढ़ाते दरिया की तरफ़ चल दिए।
किनारे पर पहुंच कर उन्होंने बारहदरी की बग़ल में कुदालें और बेलचे फेंके और लालटेन की मद्धम रौशनी में इस तरह तलाश शुरू की जैसे वो किसी मदफ़ून खज़ाने की खोज में आए हैं। एक क़ैदी ने लालटेन थामे वार्डन को दारोगा जी के नाम से मुख़ातिब करते हुए कहा, “दारोगा जी! ये जगह मुझे बहुत पसंद है अगर हुक्म हो तो खुदाई शुरू कर दें।”

“देखना ज़मीन नीचे से पथरीली न हो, वर्ना सारी रात खुदाई में गुज़र जाएगी। कमबख़्त को मरना भी रात ही को था।” वार्डन ने तहक्कुमाना और बेज़ारी के लहजे में कहा।
क़ैदियों ने कुदालें और बेलचे उठाए और खोदना शुरू किया। वार्डन बेज़ारी के मूड में बैठे सिगरेट पी रहे थे। क़ैदी ज़मीन खोदने में हमातन मसरूफ़ थे। रफ़्ता रफ़्ता ज़मीन पर ख़ुदी हुई मिट्टी का ढेर लग गया और वार्डन ने क़रीब आ कर क़ब्र का मुआ’इना किया। ज़मीन चूँकि पथरीली नहीं थी इसलिए वो बड़े इतमिनान के साथ क़रीब ही एक पत्थर पर बैठा सिगरेट पीने लगा जिसे लगाने के लिए उसने लालटेन मंगाई। [...]

शहीद-ए-साज़

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मैं गुजरात काठियावाड़ का रहने वाला हूँ। ज़ात का बनिया हूँ। पिछले बरस जब तक़्सीम-ए-हिंदुस्तान पर टंटा हुआ तो मैं बिल्कुल बेकार था। माफ़ कीजिएगा मैं ने लफ़्ज़ टंटा इस्तेमाल किया, मगर इस का कोई हर्ज नहीं, इसलिए कि उर्दू ज़बान में बाहर के अलफ़ाज़ आने ही चाहिएँ, चाहे वो गुजराती ही क्यों न हों।
जी हाँ मैं बिल्कुल बेकार था, लेकिन कोकीन का थोड़ा सा कारोबार चल रहा था जिससे कुछ आमदन की सूरत हो जाती थी। जब बटवारा हुआ और इधर के आदमी उधर और उधर के इधर हज़ारों की ता’दाद में आने जाने लगे तो मैंने सोचा, चलो पाकिस्तान चलें। कोकीन का न सही कोई और कारोबार शुरू कर दूँगा। चुनांचे वहाँ से चल पड़ा और रास्ते में मुख़्तलिफ़ क़िस्म के छोटे छोटे धंदे करता पाकिस्तान पहुंच गया।

मैं तो चला ही इस नियत से था कि कोई मोटा कारोबार करूंगा। चुनांचे पाकिस्तान पहुंचते ही मैंने हालात को अच्छी तरह जांचा और अलॉटमेंटों का सिलसिला शुरू कर दिया। मस्का पालिश मुझे आता ही था। चिकनी चुपड़ी बातें कीं, एक दो आदमियों के साथ याराना गांठा और एक छोटा सा मकान अलॉट करा लिया। इससे काफ़ी मुनाफ़ा हुआ तो मैं मुख़्तलिफ़ शहरों में फिर कर मकान और दुकानें अलॉट कराने का धंदा कराने लगा।
काम कोई भी हो इंसान को मेहनत करना पड़ती है। मुझे भी चुनांचे अलॉटमेंटों के सिलसिले में काफ़ी तग-ओ-दो करना पड़ती। किसी के मस्का लगाया, किसी की मुट्ठी गर्म की, किसी को खाने की दा’वत, किसी को नाच रंग की, ग़रज़ ये कि बेशुमार बखेड़े थे। दिन भर ख़ाक छानता, बड़ी बड़ी कोठियों के फेरे करता और शहर का चप्पा चप्पा देख कर अच्छा सा मकान तलाश करता जिसके अलॉट कराने से ज़्यादा मुनाफ़ा हो। [...]

पाँच दिन

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जम्मू तवी के रास्ते कश्मीर जाइए तो कुद के आगे एक छोटा सा पहाड़ी गांव बटोत आता है। बड़ी पुरफ़िज़ा जगह है। यहां दिक़ के मरीज़ों के लिए एक छोटा सा सिनेटोरियम है। यूं तो आज से आठ नौ बरस पहले बटोत में पूरे तीन महीने गुज़ार चुका हूँ, और इस सेहत अफ़ज़ा मुक़ाम से मेरी जवानी का एक नापुख़्ता रुमान भी वाबस्ता है मगर इस कहानी से मेरी किसी भी कमज़ोरी का तअ’ल्लुक़ नहीं।
छः सात महीने हुए मुझे बटोत में अपने एक दोस्त की बीवी को देखने के लिए जाना पड़ा जो वहां सिनेटोरियम में ज़िंदगी के आख़िरी सांस ले रही थी। मेरे वहां पहुंचते ही एक मरीज़ चल बसा और बेचारी पदमा के सांस जो पहले ही उखड़े हुए थे और भी ग़ैर यक़ीनी होगए। मैं नहीं कह सकता वजह क्या थी लेकिन मेरा ख़याल है कि महज़ इत्तफ़ाक़ था कि चार रोज़ के अंदर अंदर इस छोटे से सिनेटोरियम में तीन मरीज़ ऊपर तले मर गए।

जूंही कोई बिस्तर ख़ाली होता या तीमारदारी करते करते थके हुए इंसानों की थकी हुई चीख़ पुकार सुनाई देती, सारे सिनेटोरियम पर एक अजीब क़िस्म की ख़ाकसतरी उदासी छा जाती और वो मरीज़ जो उम्मीद के पतले धागे के साथ चिमटे होते थे, यास की अथाह गहराइयों में डूब जाते।
मेरे दोस्त की बीवी पदमा तो बिल्कुल दमबख़ुद हो जाती। उसके पतले होंटों पर मौत की ज़रदियाँ काँपने लगतीं और उसकी गहरी आँखों में एक निहायत ही रहम अंगेज़ इस्तफ़सार पैदा हो जाता। सब से आगे एक ख़ौफ़ज़दा “क्यों?” और उसके पीछे बहुत से डरपोक “नहीं।” [...]

टूटे हुए तारे

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रात की थकन से उसके शाने अभी तक बोझल थे। आँखें ख़ुमार-आलूदा और लबों पर तरेट के डाक बंगले की बीयर का कसैला ज़ायक़ा। वो बार-बार अपनी ज़बान को होंटों पर फेर कर उसके फीके और बे-लज़्ज़त से ज़ायक़े को दूर करने की कोशिश कर रहा था। गो उस की आँखें मंदी हुई थी, लेकिन पहाड़ों के मोड़ उसे इस तरह याद थे, जैसे अलिफ़, बे की पहली सतर, और वो निहायत चाबुकदस्ती से अपनी मोटर को जिसमें सिर्फ दो आदमी बैठ सकते थे, (एक आदमी और ग़ालिबन एक औरत उन ख़तरनाक मोड़ों पर घुमाये ले जा रहा था। कहीं-कहीं तो ये मोड़ बहुत ख़तरनाक हो जाते।
एक तरफ़ उमूदी चट्टानें, दूसरी तरफ़ खाई, जिसकी तह में झेलम के नीले पानी और सफ़ेद झाग की एक टेढ़ी सी लकीर नज़र आ जाती, उन्हीं मोड़ों पर से तो कार को तेज़ चलाने में लुत्फ़ हासिल होता था। सारे जिस्म में एक फुरेरी सी आ जाती थी। सुबह की हवा भी बर्फ़ीली और ख़ुश-गवार थी, उसमें ऊंची चोटियों की और घाटियों पर फैले हुए जंगलों के जेगन की महक घुली हुई थी। कैसी अनोखी महक थी, अजीब, बेनाम सी तर-ओ-ताज़ा, निहालू के लबों की तरह, वो अपनी नीम-वा पलकों के साए में पिछली रात के बीते हुए तरबनाक लम्हों को वापस बुलाने लगा। बीयर की रंगत में डूबते हुए सूरज का सोना घुला हुआ था। उसके कसैले-पन में एक अजीब सी लताफ़त थी। रात की भीगी हुई ख़ामोशियों में दूर कहीं एक बुलबुल नग़मा-रेज़ थी। बुलबुल ने अपने नग़मे में ख़ामोशी और आवाज़ को यूं मिला दिया था कि दोनों एक दूसरे की सदाए बाज़-गश्त मालूम होते थे। और वो ये मालूम ना कर सका था कि ये ख़ामोशी कहाँ ख़त्म होती है। और ये मौसीक़ी कहाँ शुरू होती है... चाँदनी-रात में सेब के फूल हंस रहे थे और निहालू के लब मुस्कुरा रहे थे।

वो लब-ए-जो बार-बार चूमे जाने पर भी मासूम दिखाई देते थे, ऐसा मालूम होता था कि दुनिया की कोई चीज़ भी उन्हें नहीं छू सकती, कैसा अजीब एहसास था। रात की तन्हाइयों में निहालू का हुस्न ग़ैर-फ़ानी और ग़ैर ज़मीनी मालूम होता था। उसके लब, उस की आँखों की नरमी, उसके बाल स्याह घने और मुलाइम, जैसे रात की भीगी हुई ख़ामोशी, और फिर उन बालों में सेब के चंद चटकते हुए ग़ुंचे, जैसे रात की भीगी हुई ख़ामोशी में बुलबुल के मीठे नग़मे, और वो ये मालूम ना कर सका कि ख़ामोशी कहाँ शुरू होती है और ये मौसीक़ी कहाँ ख़त्म होती है।
लेकिन अब तो वो डाक बंगला भी बहुत पीछे रह गया था, और इस वक़्त किसी पुरस्तानी क़िले की तरह मालूम हो रहा था। मोड़ों के उलझाव में कार घूमती हुई जा रही थी और उसके तख़य्युल में निहालू के लब, जेगन की महक, बुलबुल का नग़मा और बियर का सुनहरा रंग चांदी के तार की तरह चमकती हुई सड़क पर उलझते गए। नीचे झेलम का पानी वहशी राग गाने लगा और फ़िज़ा में सेब के लाखों फूल आँखें खोल कर चहचहाने लगे, और उसने सोचा कि क्यों ना वो अपनी मोटर को इसी खाई की वसीअ ख़ला पर एक बे-फ़िक्र परिंदे की तरह उड़ा कर ले जाये, ये ख़्याल आते ही उसने अपने जिस्म में एक सनसनी सी महसूस की और उसकी नीम-वा आँखें खुल गईं। [...]

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