दीवाना शायर

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[अगर मुक़द्दस हक़ दुनिया की मुतजस्सिस निगाहों से ओझल कर दिया जाये तो रहमत हो उस दीवाने पर जो इंसानी दिमाग़ पर सुनहरा ख़्वाब तारी कर दे।]
(हकीम गोर्की)

मैं आहों का ब्योपारी हूँ,
लहू की शायरी मेरा काम है, [...]

नया क़ानून

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मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्डे के वो तमाम कोचवान जिन को ये जानने की ख़्वाहिश होती थी कि दुनिया के अंदर क्या हो रहा है उस्ताद मंगू की वसीअ मालूमात से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे।
पिछले दिनों जब उस्ताद मंगू ने अपनी एक सवारी से स्पेन में जंग छिड़ जाने की अफ़वाह सुनी थी तो उसने गामा चौधरी के चौड़े कांधे पर थपकी दे कर मुदब्बिराना अंदाज़ में पेशगोई की थी, “देख लेना गामा चौधरी, थोड़े ही दिनों में स्पेन के अंदर जंग छिड़ जाएगी।”

जब गामा चौधरी ने उससे ये पूछा था, “कि स्पेन कहाँ वाक़ा है,” तो उस्ताद मंगू ने बड़ी मतानत से जवाब दिया था, “विलायत में और कहाँ?”
स्पेन की जंग छिड़ी और जब हर शख़्स को पता चल गया तो स्टेशन के अड्डे में जितने कोचवान हुक़्क़ा पी रहे थे, दिल ही दिल में उस्ताद मंगू की बड़ाई का एतराफ़ कर रहे थे। और उस्ताद मंगू उस वक़्त माल रोड की चमकीली सतह पर ताँगा चलाते हुए किसी सवारी से ताज़ा हिंदू-मुस्लिम फ़साद पर तबादला-ए-ख़्याल कर रहा था। [...]

मज़दूर

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‎(1)
शाम। आसमान पर हल्के हल्के बादल। शाम, सुर्ख़ और उन्नाबी। आसमान पर ख़ून, उस जगह जहाँ ‎ज़मीन और आसमान मिलते हैं। उफ़ुक़ पर ख़ून जो ब-तदरीज हल्का होता जाता था, नारंजी और ‎गुलाबी, फिर सब्ज़ और नीलगूँ और सियाही-माइल नीला जो सर के ऊपर सियाह हो गया था। ‎सियाही। सरुपा मौत की सियाही। और एक आदमी ज़मीन से बीस फुट ऊँचा खम्बे पर चढ़ा हुआ, ‎बंदर की तरह खम्बे पर चिमटा, एक रस्सी के टुकड़े पर अपने चूतड़ टिकाए एक लच्छे में से तार ‎लगा रहा है।

यूनीवर्सिटी की सड़क पर बिजली की रौशनी के लिए तार और खम्बे, आसूदा-हाल तालिब-ए-इ'ल्मों ‎और मोटरों पर चढ़ने वाले रईसों के लिए रौशनी, क्योंकि मज़दूर को भी अपनी दोज़ख़ भरनी है। ‎ख़ुशहाल और खाते पीते लोगों के लिए, जो क़ीमती कपड़े पहनते हैं, जिनके दिमाग़ों में गोबर भरा ‎होता है। रौशनी करने को खंबों पर चढ़ के, हवा में लटक कर अपनी जान ख़तरा में डालने के बा'द ‎इसको सिर्फ़ छः आने रोज़ मिलते। और नौजवान काले कोट और सफ़ेद पाजामे पहने हुए आसूदगी ‎की शान और पैसे के घमंड से इस बंदर पे जो उनकी चर्बी से ढकी हुई आँखों के लिए रौशनी लगाने ‎को चढ़ा हुआ था, एक नज़र डालते हुए गुज़र जाते।
‎“हमारे बोर्डिंग हाऊस के पीछे वाली सड़क पर रौशनी लग रही है। अब तो बिजली की रौशनी होगी। ‎बिजली की रौशनी!” और उनके खोखले दिमाग़ इसी के राग गाते और बिजली के ख़्वाब देखते। ‎लेकिन कोई भी उस मज़दूर का ख़याल न करता जो नंगे बदन हवा में लटका हुआ पेट की आग ‎बुझाने के लिए खम्बे पर तार लगा रहा है। और उनके पैरों की अहमक़ाना आवाज़ खट... खट... ख… ‎होती और वो मस्ताना-रवी से चहल-क़दमी करते हुए गुज़र जाते। और मज़दूर की रगें और पट्ठे ‎मेहनत के असर से उसके जिस्म पर चमकते दिखाई देते और रात बढ़ती आती थी। [...]

रियासत का दीवान

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मिस्टर मेहता उन बद-नसीबों में से थे जो अपने आक़ा को ख़ुश नहीं रख सकते। वो दिल से अपना काम करते थे बड़ी यकसूई और ज़िम्मेदारी के साथ और ये भूल जाते थे कि वो काम के तो नौकर हैं ही अपने आक़ा के नौकर भी हैं। जब उनके दूसरे भाई दरबार में बैठे ख़ुश-गप्पियाँ करते वो दफ़्तर में बैठे काग़ज़ों से सर मारते और उसका नतीजा था कि जो आक़ा परवर थे उनकी तरक़्कियां होती थीं। इनाम-ओ-इकराम पाते थे और ये हज़रत जो फ़र्ज़ परवर थे, रांदा दरगाह समझे जाते थे और किसी न किसी इल्ज़ाम में निकाल लिए जाते थे, ज़िंदगी में तल्ख़ तजुर्बे उन्हें कई बार हुए थे। इसलिए जब अब की राजा साहिब सत्या ने अपने हाँ एक मुअज़्ज़ज़ ओह्दा दे दिया तो उन्होंने अह्द कर लिया था कि अब मैं भी आक़ा का रुख देखकर काम करूँगा और उनकी मिज़ाजदारी को अपना शिआर बनाऊँगा। लगन के साथ काम करने का फल पा चुका। अब ऐसी ग़लती न करूँगा। दो साल भी न गुज़रे थे कि राजा साहब ने उन्हें अपना दीवान बना लिया। एक मुख़्तार रियासत की दीवानी का क्या कहना। तनख़्वाह तो बहुत कम थी मगर इख़्तियारात ग़ैर महदूद। राजा साहब अपने सैर व शिकार और ऐश व नशात में मसरूफ़ रहते थे सारी ज़िम्मेदारी मिस्टर मेहता पर थी। रियासत के हुक्काम उनके सामने सर-ए-नियाज़ ख़म करते। रूसा नज़राने देते। तजार सज्दे बजा लाते। यहां तक कि रानियां भी उनकी ख़ुशामद करती थीं। राजा साहब भी बदमिज़ाज आदमी थे और बदज़बान भी कभी कभी सख़्त सुस्त कह बैठते। मगर मेहता ने अपना वतीरा बनालिया था। कि सफ़ाई या उज़्र में एक लफ़्ज़ भी मुँह से न निकालते। सब कुछ सर झुका कर सुन लेते। राजा साहब का गु़स्सा फ़रौ हो जाता।
गर्मियों के दिन थे पॉलिटिकल एजेंट का दौरा था, रियासत में उनके ख़ैरमक़्दम की तैयारियां हो रही थीं। राजा साहब ने मिस्टर मेहता को बुला कर कहा, मैं चाहता हूँ कि साहब बहादुर यहां से मेरा कलमा पढ़ते हुए जाएं।

मेहता ने सर उठा कर कहा, कोशिश तो ऐसी ही कर रहा हूँ अन्नदाता।
मैं कोशिश नहीं चाहता, जिसमें नाकामी का पहलू भी शामिल है। क़तई वादा चाहता हूँ। [...]

महालक्ष्मी का पुल

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महालक्ष्मी के स्टेशन के उस पार लक्ष्मी जी का एक मंदिर है। उसे लोग रेस कोर्स भी कहते हैं। उस मंदिर में पूजा करने वाले हारते ज़्यादा हैं जीतते बहुत कम हैं। महालक्ष्मी स्टेशन के उस पार एक बहुत बड़ी बदरू है जो इंसानी जिस्मों की ग़लाज़त को अपने मुतअफ़्फ़िन पानियों में घोलती हुई शह्र से बाहर चली जाती है।
मंदिर में इंसान के दिल की ग़लाज़त धुलती है और उस बदरू में इंसान के जिस्म की ग़लाज़त और इन दोनों के बीच में महालक्ष्मी का पुल है। महालक्ष्मी के पुल के ऊपर बाएँ तरफ़ लोहे के जंगले पर छः साड़ियाँ लहरा रही हैं। पुल पर इस तरह हमेशा उस मक़ाम पर चंद साड़ियाँ लहराती रहती हैं। ये साड़ियाँ कोई बहुत क़ीमती नहीं हैं। उनके पहनने वाले भी कोई बहुत ज़्यादा क़ीमती नहीं हैं। ये लोग हर रोज़ उन साड़ियों को धो कर सूखने के लिए डाल देते हैं और रेलवे लाईन के आर पार जाते हुए लोग, महालक्ष्मी स्टेशन पर गाड़ी का इंतिज़ार करते हुए लोग, गाड़ी की खिड़की और दरवाज़ों से झांक कर बाहर देखने वाले लोग अक्सर उन साड़ियों को हवा में झूलता हुआ देखते हैं।

वो उनके मुख़्तलिफ़ रंग देखते हैं। भूरा, गहरा भूरा, मटमैला नीला, क़िरमज़ी भूरा, गंदा सुर्ख़ किनारा गहरा नीला और लाल, वो लोग अक्सर उन्ही रंगों को फ़िज़ा में फैले हुए देखते हैं। एक लम्हे के लिए। दूसरे लम्हे में गाड़ी पुल के नीचे से गुज़र जाती है।
उन साड़ियों के रंग अब जाज़िब-ए-नज़र नहीं रहे। किसी ज़माने में मुम्किन है जब ये नई ख़रीदी गई हों, उनके रंग ख़ूबसूरत और चमकते हुए हों, मगर अब नहीं हैं। मुतवातिर धोए जाने से उनके रंगों की आब-ओ-ताब मर चुकी है और अब ये साड़ियाँ अपने फीके सीठे रोज़मर्रा के अंदाज़ को लिए बड़ी बे-दिली से जंगले पर पड़ी नज़र आती हैं। [...]

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