रियासत का दीवान

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मिस्टर मेहता उन बद-नसीबों में से थे जो अपने आक़ा को ख़ुश नहीं रख सकते। वो दिल से अपना काम करते थे बड़ी यकसूई और ज़िम्मेदारी के साथ और ये भूल जाते थे कि वो काम के तो नौकर हैं ही अपने आक़ा के नौकर भी हैं। जब उनके दूसरे भाई दरबार में बैठे ख़ुश-गप्पियाँ करते वो दफ़्तर में बैठे काग़ज़ों से सर मारते और उसका नतीजा था कि जो आक़ा परवर थे उनकी तरक़्कियां होती थीं। इनाम-ओ-इकराम पाते थे और ये हज़रत जो फ़र्ज़ परवर थे, रांदा दरगाह समझे जाते थे और किसी न किसी इल्ज़ाम में निकाल लिए जाते थे, ज़िंदगी में तल्ख़ तजुर्बे उन्हें कई बार हुए थे। इसलिए जब अब की राजा साहिब सत्या ने अपने हाँ एक मुअज़्ज़ज़ ओह्दा दे दिया तो उन्होंने अह्द कर लिया था कि अब मैं भी आक़ा का रुख देखकर काम करूँगा और उनकी मिज़ाजदारी को अपना शिआर बनाऊँगा। लगन के साथ काम करने का फल पा चुका। अब ऐसी ग़लती न करूँगा। दो साल भी न गुज़रे थे कि राजा साहब ने उन्हें अपना दीवान बना लिया। एक मुख़्तार रियासत की दीवानी का क्या कहना। तनख़्वाह तो बहुत कम थी मगर इख़्तियारात ग़ैर महदूद। राजा साहब अपने सैर व शिकार और ऐश व नशात में मसरूफ़ रहते थे सारी ज़िम्मेदारी मिस्टर मेहता पर थी। रियासत के हुक्काम उनके सामने सर-ए-नियाज़ ख़म करते। रूसा नज़राने देते। तजार सज्दे बजा लाते। यहां तक कि रानियां भी उनकी ख़ुशामद करती थीं। राजा साहब भी बदमिज़ाज आदमी थे और बदज़बान भी कभी कभी सख़्त सुस्त कह बैठते। मगर मेहता ने अपना वतीरा बनालिया था। कि सफ़ाई या उज़्र में एक लफ़्ज़ भी मुँह से न निकालते। सब कुछ सर झुका कर सुन लेते। राजा साहब का गु़स्सा फ़रौ हो जाता।
गर्मियों के दिन थे पॉलिटिकल एजेंट का दौरा था, रियासत में उनके ख़ैरमक़्दम की तैयारियां हो रही थीं। राजा साहब ने मिस्टर मेहता को बुला कर कहा, मैं चाहता हूँ कि साहब बहादुर यहां से मेरा कलमा पढ़ते हुए जाएं।

मेहता ने सर उठा कर कहा, कोशिश तो ऐसी ही कर रहा हूँ अन्नदाता।
मैं कोशिश नहीं चाहता, जिसमें नाकामी का पहलू भी शामिल है। क़तई वादा चाहता हूँ। [...]

दो बैल

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जानवरों में गधा सबसे बेवक़ूफ़ समझा जाता है। जब हम किसी शख़्स को परले दर्जे का अहमक़ कहना चाहते हैं तो उसे गधा कहते हैं। गधा वाक़ई बेवक़ूफ़ है। या उसकी सादा-लौही और इंतिहा दर्जा की क़ुव्वत-ए-बर्दाशत ने उसे ये ख़िताब दिलवाया है, इसका तस्फ़िया नहीं हो सकता। गाय शरीफ़ जानवर है। मगर सींग मारती है। कुत्ता भी ग़रीब जानवर है लेकिन कभी-कभी उसे ग़ुस्सा भी आ जाता है। मगर गधे को कभी ग़ुस्सा नहीं आता जितना जी चाहे मार लो। चाहे जैसी ख़राब सड़ी हुई घास सामने डाल दो। उसके चेहरे पर नाराज़गी के आसार कभी नज़र न आएँगे। अप्रैल में शायद कभी कुलेल कर लेता हो। पर हमने उसे कभी ख़ुश होते नहीं देखा। उसके चेहरे पर एक मुस्तक़िल मायूसी छाई रहती है सुख-दुख, नफ़ा-नुक़्सान से कभी उसे शाद होते नहीं देखा। ऋषि-मुनियों की जिस क़दर खूबियाँ हैं, सब उसमें ब-दर्जा-ए-अतुम मौजूद हैं लेकिन आदमी उसे बेवक़ूफ़ कहता है। आला ख़सलतों की ऐसी तौहीन हमने और कहीं नहीं देखी। मुम्किन है दुनिया में सीधे पन के लिए जगह न हो।
लेकिन गधे का एक भाई और भी है जो उससे कुछ कम ही गधा है और वो है बैल जिन मानों में हम गधे का लफ़्ज़ इस्तेमाल करते हैं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो बैल को बेवक़ूफ़ों का सरदार कहने को तैयार हैं। मगर हमारा ख़याल ऐसा नहीं बैल कभी-कभी मारता है। कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आते हैं और कभी कई तरीक़ों से वो अपनी ना-पसंदीदगी और नाराज़गी का इज़हार कर देता है। लिहाज़ा उसका दर्जा गधे से नीचे है।

झूरी काछी के पास दो बैल थे। एक का नाम था हीरा और दूसरे का मोती। दोनों देखने में ख़ूबसूरत, काम में चौकस, डीलडौल में ऊँचे। बहुत दिनों से एक साथ रहते रहते, दोनों में मुहब्बत हो गई थी। जिस वक़्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जुते जाते और गर्दनें हिला-हिला कर चलते तो हर एक की यही कोशिश होती कि ज़्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। एक साथ नाँद में मुँह डालते। एक मुँह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता और एक साथ ही बैठते।
एक मर्तबा झूरी ने दोनों बैल चंद दिनों के लिए अपनी सुसराल भेजे। बैलों को क्या मालूम वो क्यों भेजे जा रहे हैं। समझे मालिक ने हमें बेच दिया। अगर उन बे-ज़बानों की ज़बान होती तो झूरी से पूछते, “तुमने हम-ग़रीबों को क्यों निकाल दिया? हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया, सर झुका कर ख़ा लिया, फिर तुम ने हमें क्यों बेच दिया।” [...]

रियासत का दीवान

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मिस्टर मेहता उन बद-नसीबों में से थे जो अपने आक़ा को ख़ुश नहीं रख सकते। वो दिल से अपना काम करते थे बड़ी यकसूई और ज़िम्मेदारी के साथ और ये भूल जाते थे कि वो काम के तो नौकर हैं ही अपने आक़ा के नौकर भी हैं। जब उनके दूसरे भाई दरबार में बैठे ख़ुश-गप्पियाँ करते वो दफ़्तर में बैठे काग़ज़ों से सर मारते और उसका नतीजा था कि जो आक़ा परवर थे उनकी तरक़्कियां होती थीं। इनाम-ओ-इकराम पाते थे और ये हज़रत जो फ़र्ज़ परवर थे, रांदा दरगाह समझे जाते थे और किसी न किसी इल्ज़ाम में निकाल लिए जाते थे, ज़िंदगी में तल्ख़ तजुर्बे उन्हें कई बार हुए थे। इसलिए जब अब की राजा साहिब सत्या ने अपने हाँ एक मुअज़्ज़ज़ ओह्दा दे दिया तो उन्होंने अह्द कर लिया था कि अब मैं भी आक़ा का रुख देखकर काम करूँगा और उनकी मिज़ाजदारी को अपना शिआर बनाऊँगा। लगन के साथ काम करने का फल पा चुका। अब ऐसी ग़लती न करूँगा। दो साल भी न गुज़रे थे कि राजा साहब ने उन्हें अपना दीवान बना लिया। एक मुख़्तार रियासत की दीवानी का क्या कहना। तनख़्वाह तो बहुत कम थी मगर इख़्तियारात ग़ैर महदूद। राजा साहब अपने सैर व शिकार और ऐश व नशात में मसरूफ़ रहते थे सारी ज़िम्मेदारी मिस्टर मेहता पर थी। रियासत के हुक्काम उनके सामने सर-ए-नियाज़ ख़म करते। रूसा नज़राने देते। तजार सज्दे बजा लाते। यहां तक कि रानियां भी उनकी ख़ुशामद करती थीं। राजा साहब भी बदमिज़ाज आदमी थे और बदज़बान भी कभी कभी सख़्त सुस्त कह बैठते। मगर मेहता ने अपना वतीरा बनालिया था। कि सफ़ाई या उज़्र में एक लफ़्ज़ भी मुँह से न निकालते। सब कुछ सर झुका कर सुन लेते। राजा साहब का गु़स्सा फ़रौ हो जाता।
गर्मियों के दिन थे पॉलिटिकल एजेंट का दौरा था, रियासत में उनके ख़ैरमक़्दम की तैयारियां हो रही थीं। राजा साहब ने मिस्टर मेहता को बुला कर कहा, "मैं चाहता हूँ कि साहब बहादुर यहां से मेरा कलमा पढ़ते हुए जाएं।"

मेहता ने सर उठा कर कहा, "कोशिश तो ऐसी ही कर रहा हूँ अन्नदाता।"
"मैं कोशिश नहीं चाहता, जिसमें नाकामी का पहलू भी शामिल है। क़तई वादा चाहता हूँ।" [...]

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