मुख़्तार ने शारदा को पहली मर्तबा झरनों में से देखा। वो ऊपर कोठे पर कटा हुआ पतंग लेने गया तो उसे झरनों में से एक झलक दिखाई दी। सामने वाले मकान की बालाई मंज़िल की खिड़की खुली थी। एक लड़की डोंगा हाथ में लिए नहा रही थी। मुख़्तार को बड़ा ता’ज्जुब हुआ कि ये लड़की कहाँ से आ गई, क्योंकि सामने वाले मकान में कोई लड़की नहीं थी, जो थीं, ब्याही जा चुकी थीं। सिर्फ़ रूप कौर थी, उसका पिलपिला ख़ाविंद कालू मल था, उसके तीन लड़के थे और बस। मुख़्तार ने पतंग उठाया और ठिटक के रह गया... लड़की बहुत ख़ूबसूरत थी। उसके नंगे बदन पर सुनहरे रोएँ थे। उनमें फंसी हुई पानी की नन्ही नन्ही बूंद्नियाँ चमक रही थीं। उसका रंग हल्का साँवला था, साँवला भी नहीं। ताँबे के रंग जैसा, पानी की नन्ही नन्ही बूंद्नियाँ ऐसी लगती थीं जैसे उस का बदन पिघल कर क़तरे क़तरे बन कर गिर रहा है। मुख़्तार ने झरने के सुराखों के साथ अपनी आँखें जमा दीं और उस लड़की के जो डोंगा हाथ में लिये नहा रही थी, दिलचस्पी और ग़ौर से देखना शुरू कर दिया। उसकी उम्र ज़्यादा से ज़्यादा सोलह बरस की थी, गीले सीने पर उसकी छोटी छोटी गोल छातियां जिन पर पानी के क़तरे फिसल रहे थे, बड़ी दिलफ़रेब थीं। उसको देख कर मुख़्तार के दिल-ओ-दिमाग़ में सिफ़ली जज़्बात पैदा न हुए। एक जवान, ख़ूबसूरत, और बिल्कुल नंगी लड़की उसकी निगाहों के सामने थी। होना ये चाहिए था कि मुख़्तार के अंदर शहवानी हैजान बरपा हो जाता, मगर वो बड़े ठंडे इन्हेमाक से उसे देख रहा था, जैसे किसी मुसव्विर की तस्वीर देख रहा है। लड़की के निचले होंट के इख़्ततामी कोने पर बड़ा सा तिल था... बेहद मतीन, बेहद संजीदा, जैसे वो अपने वजूद से बेख़बर है, लेकिन दूसरे उसके वजूद से आगाह हैं, सिर्फ़ इस हद तक कि उसे वहीं होना चाहिए था जहां कि वो था।
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