आवारा-गर्द

Shayari By

पिछले साल, एक रोज़ शाम के वक़्त दरवाज़े की घंटी बजी। मैं बाहर गयी। एक लंबा तड़ंगा यूरोपीयन लड़का कैनवस का थैला कंधे पर उठाये सामने खड़ा था। दूसरा बंडल उसने हाथ में सँभाल रखा था और पैरों में ख़ाकआलूद पेशावरी चप्पल थे। मुझे देखकर उसने अपनी दोनों एड़ियाँ ज़रा सी जोड़ कर सर ख़म किया। मेरा नाम पूछा और एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया। “आपके मामूं ने ये ख़त दिया है।” उसने कहा।
“अंदर आ जाओ।” मैंने उससे कहा और ज़रा अचंभे से ख़त पर नज़र डाली। ये अल्लन मामूं का ख़त था और उन्होंने लिखा था... “हम लोग कराची से हैदराबाद सिंध वापस जा रहे थे। ठठ की माकली हिल पर क़ब्रों के दरमियान इस लड़के को बैठा देखा। इसने अँगूठा उठाकर लिफ़्ट की फ़र्माइश की और हम इसे घर ले आये। ये दुनिया के सफ़र पर निकला है और अब हिन्दोस्तान जा रहा है। ओटो बहुत प्यारा लड़का है मैंने इसे हिन्दोस्तान में अ’ज़ीज़ों के नाम ख़त दे दिये हैं। और उनके पास ठहरेगा। तुम भी इस की मेज़बानी करो।”

नोट: इसके पास पैसे तक़रीबन बिल्कुल नहीं हैं।
लड़के ने कमरे में आकर थैले फ़र्श पर रख दिये और अब आँखें चुंधिया कर दीवारों पर लगी हुई तस्वीरें देख रहा था। इतने ऊंचे क़द के साथ उसका बच्चों का सा चेहरा था, जिस पर हल्की हल्की सुनहरी दाढ़ी मूंछ बहुत अजीब सी लग रही थी। [...]

आवारा-गर्द

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पिछले साल, एक रोज़ शाम के वक़्त दरवाज़े की घंटी बजी। मैं बाहर गयी। एक लंबा तड़ंगा यूरोपीयन लड़का कैनवस का थैला कंधे पर उठाये सामने खड़ा था। दूसरा बंडल उसने हाथ में सँभाल रखा था और पैरों में ख़ाकआलूद पेशावरी चप्पल थे। मुझे देखकर उसने अपनी दोनों एड़ियाँ ज़रा सी जोड़ कर सर ख़म किया। मेरा नाम पूछा और एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया। “आपके मामूं ने ये ख़त दिया है।” उसने कहा।
“अंदर आ जाओ।” मैंने उससे कहा और ज़रा अचंभे से ख़त पर नज़र डाली। ये अल्लन मामूं का ख़त था और उन्होंने लिखा था “हम लोग कराची से हैदराबाद सिंध वापस जा रहे थे। ठठ की माकली हिल पर क़ब्रों के दरमियान इस लड़के को बैठा देखा। इसने अँगूठा उठाकर लिफ़्ट की फ़र्माइश की और हम इसे घर ले आये। ये दुनिया के सफ़र पर निकला है और अब हिन्दोस्तान जा रहा है। ओटो बहुत प्यारा लड़का है मैंने इसे हिन्दोस्तान में अ’ज़ीज़ों के नाम ख़त दे दिये हैं। और उनके पास ठहरेगा। तुम भी इस की मेज़बानी करो।”

नोट: इसके पास पैसे तक़रीबन बिल्कुल नहीं हैं।
लड़के ने कमरे में आकर थैले फ़र्श पर रख दिये और अब आँखें चुंधिया कर दीवारों पर लगी हुई तस्वीरें देख रहा था। इतने ऊंचे क़द के साथ उसका बच्चों का सा चेहरा था, जिस पर हल्की हल्की सुनहरी दाढ़ी मूंछ बहुत अजीब सी लग रही थी। [...]

दो क़ौमें

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मुख़्तार ने शारदा को पहली मर्तबा झरनों में से देखा। वो ऊपर कोठे पर कटा हुआ पतंग लेने गया तो उसे झरनों में से एक झलक दिखाई दी। सामने वाले मकान की बालाई मंज़िल की खिड़की खुली थी। एक लड़की डोंगा हाथ में लिए नहा रही थी। मुख़्तार को बड़ा ता’ज्जुब हुआ कि ये लड़की कहाँ से आ गई, क्योंकि सामने वाले मकान में कोई लड़की नहीं थी, जो थीं, ब्याही जा चुकी थीं। सिर्फ़ रूप कौर थी, उसका पिलपिला ख़ाविंद कालू मल था, उसके तीन लड़के थे और बस।
मुख़्तार ने पतंग उठाया और ठिटक के रह गया... लड़की बहुत ख़ूबसूरत थी। उसके नंगे बदन पर सुनहरे रोएँ थे। उनमें फंसी हुई पानी की नन्ही नन्ही बूंद्नियाँ चमक रही थीं। उसका रंग हल्का साँवला था, साँवला भी नहीं। ताँबे के रंग जैसा, पानी की नन्ही नन्ही बूंद्नियाँ ऐसी लगती थीं जैसे उस का बदन पिघल कर क़तरे क़तरे बन कर गिर रहा है।

मुख़्तार ने झरने के सुराखों के साथ अपनी आँखें जमा दीं और उस लड़की के जो डोंगा हाथ में लिये नहा रही थी, दिलचस्पी और ग़ौर से देखना शुरू कर दिया। उसकी उम्र ज़्यादा से ज़्यादा सोलह बरस की थी, गीले सीने पर उसकी छोटी छोटी गोल छातियां जिन पर पानी के क़तरे फिसल रहे थे, बड़ी दिलफ़रेब थीं। उसको देख कर मुख़्तार के दिल-ओ-दिमाग़ में सिफ़ली जज़्बात पैदा न हुए। एक जवान, ख़ूबसूरत, और बिल्कुल नंगी लड़की उसकी निगाहों के सामने थी। होना ये चाहिए था कि मुख़्तार के अंदर शहवानी हैजान बरपा हो जाता, मगर वो बड़े ठंडे इन्हेमाक से उसे देख रहा था, जैसे किसी मुसव्विर की तस्वीर देख रहा है।
लड़की के निचले होंट के इख़्ततामी कोने पर बड़ा सा तिल था... बेहद मतीन, बेहद संजीदा, जैसे वो अपने वजूद से बेख़बर है, लेकिन दूसरे उसके वजूद से आगाह हैं, सिर्फ़ इस हद तक कि उसे वहीं होना चाहिए था जहां कि वो था। [...]

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