एक तवाइफ़ का ख़त

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पण्डित जवाहर लाल नेहरू और क़ाएद-ए-आज़म जिनाह के नाम
मुझे उम्मीद है कि इससे पहले आपको किसी तवाइफ़ का ख़त न मिला होगा। ये भी उम्मीद करती हूँ कि कि आज तक आपने मेरी और इस क़ुमाश की दूसरी औरतों की सूरत भी न देखी होगी। ये भी जानती हूँ कि आपको मेरा ये ख़त लिखना किस क़दर मायूब है और वो भी ऐसा खुला ख़त मगर क्या करूँ हालात कुछ ऐसे हैं और इन दोनों लड़कियों का तक़ाज़ा इतना शदीद हो कि मैं ये ख़त लिखे बग़ैर नहीं रह सकती। ये ख़त मैं नहीं लिख रही हूँ, ये ख़त मुझसे बेला और बतूल लिखवा रही हैं। मैं सिद्क़-ए-दिल से माफ़ी चाहती हूँ, अगर मेरे ख़त में कोई फ़िक़रा आपको नागवार गुज़रे। उसे मेरी मजबूरी पर महमूल कीजिएगा।

बेला और बतूल मुझसे ये ख़त क्यों लिखवा रही हैं। ये दोनों लड़कियां कौन हैं और उनका तक़ाज़ा इस क़दर शदीद क्यों है। ये सब कुछ बताने से पहले मैं आपको अपने मुताल्लिक़ कुछ बताना चाहती हूँ, घबराइए नहीं। मैं आपको अपनी घिनावनी ज़िंदगी की तारीख़ से आगाह नहीं करना चाहती। मैं ये भी नहीं बताऊंगी कि मैं कब और किन हालात में तवाइफ़ बनी। मैं किसी शरीफ़ाना जज़्बे का सहारा लेकर आपसे किसी झूटे रहम की दरख़्वास्त करने नहीं आई हूँ। मैं आपके दर्द मंद दिल को पहचान कर अपनी सफ़ाई में झूटा अफ़साना मुहब्बत नहीं घड़ना चाहती। इस ख़त के लिखने का मतलब ये नहीं है कि आपको तवाइफ़ीयत के इसरार-ओ-रमूज़ से आगाह करूँ, मुझे अपनी सफ़ाई में कुछ नहीं कहना है। मैं सिर्फ़ अपने मुताल्लिक़ चंद ऐसी बातें बताना चाहती हूँ जिनका आगे चल कर बेला और बतूल की ज़िंदगी पर असर पड़ सकता है।
आप लोग कई बार बंबई आए होंगे जिन्ना साहिब ने तो बंबई को बहुत देखा हो मगर आपने हमारा बाज़ार काहे को देखा होगा। जिस बाज़ार में मैं रहती हूँ वो फ़ारस रोड कहलाता है। फ़ारस रोड, ग्रांट रोड और मदनपुरा के बीच में वाक़े है। ग्रांट रोड के इस पार लेमिंग्टन रोड और ओपर हाऊस और चौपाटी मैरीन ड्राईवर और फोर्ट के इलाक़े हैं जहां बंबई के शुरफ़ा रहते हैं। मदनपुरा में इस तरफ़ ग़रीबों की बस्ती है। फ़ारस रोड इन दोनों के बीच में है ताकि अमीर और ग़रीब इससे यकसाँ मुस्तफ़ीद हो सकें। गौर फ़ारस रोड फिर भी मदनपुरा के ज़्यादा क़रीब है क्योंकि नादारी में और तवाइफ़ीयत में हमेशा बहुत कम फ़ासिला रहता है। ये बाज़ार बहुत ख़ूबसूरत नहीं है, इसके मकीन भी ख़ूबसूरत नहीं हैं उसके बेचों बीच ट्राम की गड़ गड़ाहट शब-ओ-रोज़ जारी रहती है। जहां भर के आवारा कुत्ते और लौंडे और शुह्दे और बेकार और जराइमपेशा मख़लूक़ उसकी गलियों का तवाफ़ करती नज़र आती है। लंगड़े, लूले, ओबाश, मदक़ूक़ तमाशबीन। आतिश्क व सूज़ाक के मारे हुए काने, लुंजे, कोकीन बाज़ और जेब कतरे इस बाज़ार में सीना तान कर चलते हैं। ग़लीज़ होटल, सीले हुए फ़ुटपाथ पर मैले के ढेरों पर भिनभिनाती हुई लाखों मक्खियां लकड़ियों और कोयलों के अफ़्सुर्दा गोदाम, पेशावर दलाल और बासी हार बेचने वाले कोक शास्त्र और नंगी तस्वीरों के दुकानदार चीन हज्जाम और इस्लामी हज्जाम और लंगोटे कस कर गालियां बकने वाले पहलवान, हमारी समाजी ज़िंदगी का सारा कूड़ा करकट आपको फ़ारस रोड पर मिलता है। ज़ाहिर है आप यहां क्यों आएँगे। कोई शरीफ़ आदमी इधर का रुख नहीं करता, शरीफ़ आदमी जितने हैं वो ग्रांट रोड के उस पार रहते हैं और जो बहुत ही शरीफ़ हैं वो मालबार हिल पर क़ियाम करते हैं। में एक-बार जिन्ना साहिब की कोठी के सामने से गुज़री थी और वहां मैंने झुक कर सलाम भी किया था, बतूल भी मेरे साथ थी। बतूल को आपसे (जिन्ना साहिब) जिस क़दर अक़ीदत है उसको मैं कभी ठीक तरह से बयान न कर सकूँगी। ख़ुदा और रसूल के बाद दुनिया में अगर वो किसी को चाहती हो तो सिर्फ़ वो आप हैं। उसने आपको तस्वीर लॉकेट में लगा कर अपने सीने से लगा रखी हो। किसी बुरी नीयत से नहीं। बतूल की उम्र अभी ग्यारह बरस की है, छोटी सी लड़की ही तो है वो। गो फ़ारस रोड वाले अभी से उसके मुताल्लिक़ बुरे बुरे इरादे कर रहे हैं मगर ख़ैर वो कभी भी आपको बताऊंगी। तो ये है फ़ारस रोड जहां मैं रहती हूँ, फ़ारस रोड के मग़रिबी सिरे पर जहां चीनी हज्जाम की दुकान है उसके क़रीब एक अँधेरी गली के मोड़ पर मेरी दुकान है। लोग तो उसे दुकान नहीं कहते, मगर ख़ैर आप दाना हैं आपसे क्या छुपाऊंगी। यही कहूँगी वहां पर मेरी दुकान है और वहां पर मैं इस तरह व्योपार करती हूँ जिस तरह बुनियाद, सब्ज़ी वाला, फल वाला, होटल वाला, मोटर वाला, सिनेमा वाला, कपड़े वाला या कोई और दूकानदार व्योपार करता है और हर व्योपार में गाहक को ख़ुश करने के इलावा अपने फायदे की भी सोचता है। मेरा व्योपार भी इसी तरह का है, फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि मैं ब्लैक मार्किट नहीं करती और मुझमें और दूसरे व्योपारियों में कोई फ़र्क़ नहीं। ये दूकान अच्छी जगह पर वाक़े नहीं है। यहां रात तो कुजा दिन में भी लोग ठोकर खा जाते हैं। इस अँधेरी गली में लोग अपनी जेबें ख़ाली कर के जाते हैं। शराब पी कर जाते हैं। जहां भर की गालियां बकते हैं। यहां बात बात पर छुरा ज़नी होती है वो एक ख़ूँ दूसरे तीसरे रोज़ होते रहते हैं। ग़रज़-कि हर वक़्त जान ज़ैक़ में रहती है और फिर मैं कोई अच्छी तवाइफ़ नहीं हूँ कि पवइ जा के रहूं या वर्ली पर समुंदर के किनारे एक कोठी ले सकूं । मैं एक बहुत ही मामूली दर्जे की तवाइफ़ हूँ और अगर मैंने सारा हिन्दोस्तान देखा है और घाट घाट का पानी पिया है और हर तरह के लोगों की सोहबत में बैठी हूँ लेकिन अब दस साल से इसी शहर बंबई में, इसी फ़ारस रोड पर, इसी दुकान में बैठी हूँ और अब तो मुझे इस दुकान की पगड़ी भी छः हज़ार रुपये तक मिलती है। हालाँकि ये जगह कोई इतनी अच्छी नहीं। फ़िज़ा मुतअफ़्फ़िन है, कीचड़ चारों तरफ़ फैली हुई है। गंदगी के अंबार लगे हुए हैं और ख़ारिश-ज़दा कुत्ते घबराए हुए ग्राहकों की तरफ़ काट खाने को लपकते हैं फिर भी मुझे इस जगह की पगड़ी छः हज़ार रुपये तक मिलती है। इस जगह मेरी दुकान एक मंज़िला मकान में है। इसके दो कमरे हैं। सामने का कमरा मेरी बैठक है। यहां मैं गाती हूँ, नाचती हूँ, ग्राहकों को रिझाती हूँ, पीछे का कमरा, बावर्चीख़ाने और ग़ुस्लख़ाने और सोने के कमरे का काम देता है। यहां एक तरफ़ नल है। एक तरफ़ हंडिया है और एक तरफ़ एक बड़ा सा पलंग है और इसके नीचे एक और छोटा सा पलंग है और इसके नीचे मेरे कपड़ों के संदूक़ हैं, बाहर वाले कमरे में बिजली की रोशनी है लेकिन अंदर वाले कमरे में बिल्कुल अंधेरा है। मालिक मकान ने बरसों से क़लई नहीं कराई न वो कराएगा। इतनी फ़ुर्सत किसे है। मैं तो रात-भर नाचती हूँ, गाती हूँ और दिन को वहीं गाव तकिए पर सर टेक कर सो जाती हूँ, बेला और बतूल को पीछे का कमरा दे रखा है। अक्सर गाहक जब उधर मुँह धोने के लिए जाते हैं तो बेला और बतूल फटी फटी निगाहों से उन्हें देखने लग जाती हैं जो कुछ उनकी निगाहें कहती हैं। मेरा ये ख़त भी वही कहता है। अगर वो मेरे पास इस वक़्त न होतीं तो ये गुनाहगार बंदी आपकी ख़िदमत में ये गुस्ताख़ी न करती, जानती हूँ दुनिया मुझ पर थू थू करेगी , शायद आप तक मेरा ये ख़त भी न पहुँचेगा। फिर भी मजबूर हूँ ये ख़त लिख के रहूंगी कि बेला और बतूल की मर्ज़ी यही है। [...]

नमक का दारोग़ा

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(1)
जब नमक का महकमा क़ाएम हुआ और एक ख़ुदा-दाद नेमत से फ़ायदा उठाने की आम मुमानिअत कर दी गई तो लोग दरवाज़ा-ए-सद्र बंद पा कर रौज़न और शिगाफ़ की फ़िक्र करने लगे।

चारों तरफ़ ख़यानत, ग़बन और तहरीस का बाज़ार गर्म था। पटवार-गिरी का मुअज़्ज़ज़ और पुर-मुनफ़अत ओहदा छोड़-छोड़ कर लोग सीग़ा-ए-नमक की बर्क़-अन्दाज़ी करते थे। और इस महकमे का दारोग़ा वकीलों के लिए भी रश्क का बाइस था।
ये वो ज़माना था। जब अंग्रेज़ी ता'लीम और ईसाइयत मुतरादिफ़ अल्फ़ाज़ थे। फ़ारसी की ता'लीम सनद-ए-इफ़्तिख़ार थी। लोग हुस्न और इश्क़ की कहानियाँ पढ़-पढ़ कर आला-तरीन मदारिज-ए-ज़िंदगी के क़ाबिल हो जाते थे, मुंशी बंसीधर ने भी ज़ुलेख़ा की दास्तान ख़त्म की और मजनूँ और फ़रहाद के क़िस्सा-ए-ग़म को दरियाफ़्त अमरीका या जंग-ए-नील से अ'ज़ीम-तर वाक़िआ' ख़याल करते हुए रोज़गार की तलाश में निकले। उनके बाप एक जहाँ-दीदा बुज़ुर्ग थे, समझाने लगे। बेटा घर की हालत ज़रा देख रहे हो। क़र्ज़े से गर्दनें दबी हुई हैं। लड़कियाँ हैं, वो गंगा-जमुना की तरह बढ़ती चली आ रही हैं, मैं कगारे का दरख़्त हूँ, न मालूम कब गिर पड़ूँ, तुम ही घर के मालिक-ओ-मुख़्तार हो। मशाहिरे और ओहदे का मुतलक़ ख़याल न करना, ये तो पीर का मज़ार है, निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए, ऐसा काम ढूँढ़ो जहाँ कुछ बालाई रक़म की आमद हो। माहवार मुशाहरा पूर्णमाशी का चाँद है। जो एक दिन दिखाई देता है और फिर घटते-घटते ग़ायब हो जाता है, बालाई रक़म पानी का बहता हुआ सोता है, जिससे प्यास हमेशा बुझती रहती है। मुशाहरा इंसान देता है इसीलिए उसमें बरकत नहीं होती, बालाई रक़म ग़ैब से मिलती है इसीलिए उसमें बरकत होती है। और तुम ख़ुद आलिम-ओ-फ़ाज़िल हो, तुम्हें क्या समझाऊँ ये मुआ'मला बहुत कुछ ज़मीर और क़याफ़े की पहचान पर मुनहसिर है, इंसान को देखो, मौक़ा देखो और ख़ूब ग़ौर से काम लो। ग़रज़-मंद के साथ हमेशा बे-रहमी और बे-रुख़ी कर सकते हो लेकिन बे-ग़रज़ से मुआ'मला करना मुश्किल काम है। इन बातों को गिरह बाँध लो, ये मेरी सारी ज़िंदगी की कमाई हैं।” [...]

पाँच दिन

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जम्मू तवी के रास्ते कश्मीर जाइए तो कुद के आगे एक छोटा सा पहाड़ी गांव बटोत आता है। बड़ी पुरफ़िज़ा जगह है। यहां दिक़ के मरीज़ों के लिए एक छोटा सा सिनेटोरियम है। यूं तो आज से आठ नौ बरस पहले बटोत में पूरे तीन महीने गुज़ार चुका हूँ, और इस सेहत अफ़ज़ा मुक़ाम से मेरी जवानी का एक नापुख़्ता रुमान भी वाबस्ता है मगर इस कहानी से मेरी किसी भी कमज़ोरी का तअ’ल्लुक़ नहीं।
छः सात महीने हुए मुझे बटोत में अपने एक दोस्त की बीवी को देखने के लिए जाना पड़ा जो वहां सिनेटोरियम में ज़िंदगी के आख़िरी सांस ले रही थी। मेरे वहां पहुंचते ही एक मरीज़ चल बसा और बेचारी पदमा के सांस जो पहले ही उखड़े हुए थे और भी ग़ैर यक़ीनी होगए। मैं नहीं कह सकता वजह क्या थी लेकिन मेरा ख़याल है कि महज़ इत्तफ़ाक़ था कि चार रोज़ के अंदर अंदर इस छोटे से सिनेटोरियम में तीन मरीज़ ऊपर तले मर गए।

जूंही कोई बिस्तर ख़ाली होता या तीमारदारी करते करते थके हुए इंसानों की थकी हुई चीख़ पुकार सुनाई देती, सारे सिनेटोरियम पर एक अजीब क़िस्म की ख़ाकसतरी उदासी छा जाती और वो मरीज़ जो उम्मीद के पतले धागे के साथ चिमटे होते थे, यास की अथाह गहराइयों में डूब जाते।
मेरे दोस्त की बीवी पदमा तो बिल्कुल दमबख़ुद हो जाती। उसके पतले होंटों पर मौत की ज़रदियाँ काँपने लगतीं और उसकी गहरी आँखों में एक निहायत ही रहम अंगेज़ इस्तफ़सार पैदा हो जाता। सब से आगे एक ख़ौफ़ज़दा “क्यों?” और उसके पीछे बहुत से डरपोक “नहीं।” [...]

ईदगाह

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(1)
रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद आज ईद आई। कितनी सुहानी और रंगीन सुब्ह है। बच्चे की तरह पुर-तबस्सुम दरख़्तों पर कुछ अ'जीब हरियावल है। खेतों में कुछ अ'जीब रौनक़ है। आसमान पर कुछ अ'जीब फ़िज़ा है। आज का आफ़ताब देख कितना प्यारा है। गोया दुनिया को ईद की ख़ुशी पर मुबारकबाद दे रहा है। गाँव में कितनी चहल-पहल है। ईदगाह जाने की धूम है। किसी के कुरते में बटन नहीं हैं तो सुई-तागा लेने दौड़े जा रहा है। किसी के जूते सख़्त हो गए हैं। उसे तेल और पानी से नर्म कर रहा है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैंकड़ों रिश्ते, क़राबत वालों से मिलना मिलाना। दोपहर से पहले लौटना ग़ैर-मुम्किन है।

लड़के सब से ज़्यादा ख़ुश हैं। किसी ने एक रोज़ा रखा, वो भी दोपहर तक। किसी ने वो भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की ख़ुशी इनका हिस्सा है। रोज़े बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे, बच्चों के लिए तो ईद है। रोज़ ईद का नाम रटते थे, आज वो आ गई। अब जल्दी पड़ी हुई है कि ईदगाह क्यूँ नहीं चलते। उन्हें घर की फ़िक़्रों से क्या वास्ता? सेवइयों के लिए घर में दूध और शकर, मेवे हैं या नहीं, इसकी उन्हें क्या फ़िक्र? वो क्या जानें अब्बा क्यूँ बद-हवास गाँव के महाजन चौधरी क़ासिम अली के घर दौड़े जा रहे हैं, उनकी अपनी जेबों में तो क़ारून का ख़ज़ाना रक्खा हुआ है। बार-बार जेब से ख़ज़ाना निकाल कर गिनते हैं। दोस्तों को दिखाते हैं और ख़ुश हो कर रख लेते हैं। इन्हीं दो-चार पैसों में दुनिया की सात नेमतें लाएँगे। खिलौने और मिठाईयाँ और बिगुल और ख़ुदा जाने क्या क्या।
सब से ज़्यादा ख़ुश है हामिद। वो चार साल का ग़रीब ख़ूबसूरत बच्चा है, जिसका बाप पिछले साल हैज़ा की नज़्र हो गया था और माँ न जाने क्यूँ ज़र्द होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता न चला कि बीमारी क्या है। कहती किस से? कौन सुनने वाला था? दिल पर जो गुज़रती थी, सहती थी और जब न सहा गया तो दुनिया से रुख़्सत हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही ख़ुश है। उसके अब्बा जान बड़ी दूर रुपये कमाने गए थे और बहुत सी थैलियाँ लेकर आएँगे। अम्मी जान अल्लाह मियाँ के घर मिठाई लेने गई हैं। इसलिए ख़ामोश है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं। सर पर एक पुरानी धुरानी टोपी है जिसका गोटा स्याह हो गया है फिर भी वो ख़ुश है। जब उसके अब्बा जान थैलियाँ और अम्माँ जान नेमतें लेकर आएँगे, तब वो दिल के अरमान निकालेगा। तब देखेगा कि महमूद और मोहसिन आज़र और समी कहाँ से इतने पैसे लाते हैं। दुनिया में मुसीबतों की सारी फ़ौज लेकर आए, उसकी एक निगाह-ए-मासूम उसे पामाल करने के लिए काफ़ी है। [...]

बूढ़ी काकी

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बुढ़ापा अक्सर बचपन का दौर-ए-सानी हुआ करता है। बूढ़ी काकी में ज़ायक़ा के सिवा कोई हिस बाक़ी न थी और न अपनी शिकायतों की तरफ़ मुख़ातिब करने का, रोने के सिवा कोई दूसरा ज़रिया आँखें हाथ, पैर सब जवाब दे चुके थे। ज़मीन पर पड़ी रहतीं और जब घर वाले कोई बात उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ करते, खाने का वक़्त टल जाता या मिक़दार काफ़ी न होती या बाज़ार से कोई चीज़ आती और उन्हें न मिलती तो रोने लगती थीं और उनका रोना महज़ बिसूरना न था। वो ब-आवाज़ बुलंद रोती थीं। उनके शौहर को मरे हुए एक ज़माना गुज़र गया। सात बेटे जवान हो हो कर दाग़ दे गए और अब एक भतीजे के सिवा दुनिया में उनका और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने सारी जायदाद लिख दी थी। उन हज़रात ने लिखाते वक़्त तो ख़ूब लंबे चौड़े वादे किए लेकिन वो वादे सिर्फ़ कलबी डिपो के दलालों के सब्ज़-बाग़ थे। अगरचे उस जायदाद की सालाना आमदनी डेढ़ दो सौ रुपये से कम न थी लेकिन बूढ़ी काकी को अब पेट भर रूखा दाना भी मुश्किल से मिलता था। बुध राम तबीयत के नेक आदमी थे लेकिन उसी वक़्त तक कि उनकी जेब पर कोई आँच न आए, रूपा तबीयत की तेज़ थी लेकिन ईश्वर से डरती थी, इसलिए बूढ़ी काकी पर उसकी तेज़ी इतनी न खुलती थी जितनी बुध राम की नेकी।
बुध राम को कभी कभी अपनी बे-इंसाफ़ी का एहसास होता। वो सोचते कि इस जायदाद की बदौलत में इस वक़्त भला आदमी बना बैठा हूँ और अगर ज़बान तस्कीन या तशफ्फी से सूरत-ए-हाल में कुछ इस्लाह हो सकती तो उन्हें मुतलक़ दरेग़ न होता लेकिन मज़ीद ख़र्च का ख़ौफ़ उनकी नेकी को दबाए रखता था। उसके बरअक्स अगर दरवाज़े पर कोई भलामानस बैठा होता और बूढ़ी काकी अपना नग़्मा-ए-बे-हंगाम शुरू कर देतीं तो वो आग हो जाते थे और घर में आकर उन्हें ज़ोर से डाँटते थे। लड़के जिन्हें बुड्ढों से एक बुग़्ज़ अल्लाह होता है, वालदैन का ये रंग देखकर बूढ़ी काकी को और भी दिक़ करते। कोई चुटकी लेकर भागता, कोई उन पर पानी की कुल्ली कर देता। काकी चीख़ मार कर रोतीं। लेकिन ये तो मशहूर ही था कि वो सिर्फ़ खाने के लिए रोती हैं। इसलिए कोई उनके नाला-ओ-फ़र्याद पर ध्यान न देता था। वहां अगर काकी कभी गु़स्से में आकर लड़कों को गालियां देने लगतीं तो रूपा मौक़ा-ए-वारदात पर ज़रूर जाती। इस ख़ौफ़ से काकी अपनी शमशीर ज़बानी का शाज़ ही कभी इस्तेमाल करती थीं। हालाँकि रफ़ा शर की ये तदबीर रोने से ज़्यादा कारगर थी।

सारे घर में अगर किसी को काकी से मुहब्बत थी तो वो बुध राम की छोटी लड़की लाडली थी। लाडली अपने दोनों भाइयों के ख़ौफ़ से अपने हिस्से की मिठाई या चबेना बूढ़ी काकी के पास बैठ कर खाया करती थी यही उसका मलजा था और अगरचे काकी की पनाह उनकी मुआनिदाना सरगर्मी के बाइस बहुत गिरां पड़ती थी लेकिन भाइयों के दस्त-ए-ततावुल से बदर जहॉ क़ाबिल-ए-तर्जीह थी इस मुनासिब अग़राज़ ने इन दोनों में मुहब्बत और हमदर्दी पैदा कर दी थी।
रात का वक़्त था। बुध राम के दरवाज़े पर शहनाई बज रही थी और गांव के बच्चों का जम-ए-ग़फ़ीर निगाह हैरत से गाने की दाद दे रहा था, चारपाइयों पर मेहमान लेटे हुए नाइयों से टिकियां लगवा रहे थे, क़रीब ही एक भाट खड़ा कबित सुना रहा था और बा'ज़ सुख़न-फ़हम मेहमान की वाह वाह से ऐसा ख़ुश होता था गोया वही इस दाद का मुस्तहक़ है दो एक अंग्रेज़ी पढ़े हुए नौजवान उन बेहूदगियों से बेज़ार थे। वो इस दहक़ानी मजलिस में बोलना या शरीक होना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते। आज बुध राम के बड़े लड़के सुख राम का तिलक आया है। ये उसी का जश्न है, घर में मस्तूरात गा रही थीं और रूपा मेहमानों की दावत का सामान करने में मसरूफ़ थी, भट्टियों पर कड़ाह चढ़े हुए थे। एक में पूरियां-कचौरियां निकल रही थीं दूसरे में समोसे और पीड़ा केन बनती थीं। एक बड़े हण्डे में मसालेदार तरकारी पक रही थी। घी और मसालहे की इश्तिहा अंगेज़ ख़ुशबू चारों तरफ़ फैली हुई थी। [...]

कालू भंगी

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मैंने इससे पहले हज़ार बार कालू भंगी के बारे में लिखना चाहा है लेकिन मेरा क़लम हर बार ये सोच कर रुक गया है कि कालू भंगी के मुताल्लिक़ लिखा ही क्या जा सकता है। मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से मैंने उसकी ज़िंदगी को देखने, परखने, समझने की कोशिश की है, लेकिन कहीं वो टेढ़ी लकीर दिखाई नहीं देती जिससे दिलचस्प अफ़साना मुरत्तिब हो सकता है। दिलचस्प होना तो दरकिनार कोई सीधा सादा अफ़साना, बे-कैफ़ ओ बे-रंग, बे-जान मुरक़्क़ा भी तो नहीं लिखा जा सकता है। कालू भंगी के मुताल्लिक़, फिर ना जाने क्या बात है, हर अफ़साने के शुरू में मेरे ज़हन में कालू भंगी आन खड़ा होता है और मुझसे मुस्कुरा कर पूछता है... “छोटे साहब मुझ पर कहानी नहीं लिखोगे? कितने साल हो गए तुम्हें लिखते हुए?”
“आठ साल”

“कितनी कहानियाँ लिखीं तुमने?”
“साठ और दो बासठ” [...]

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