डालन वाला

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हर तीसरे दिन, सह-पहर के वक़्त एक बेहद दुबला पुतला बूढ़ा, घुसे और जगह-जगह से चमकते हुए सियाह कोट पतलून में मलबूस, सियाह गोल टोपी ओढ़े, पतली कमानी वाली छोटे-छोटे शीशों की ऐ’नक लगाए, हाथ में छड़ी लिए बरसाती में दाख़िल होता और छड़ी को आहिस्ता-आहिस्ता बजरी पर खटखटाता। फ़क़ीरा बाहर आकर बाजी को आवाज़ देता, “बिटिया। चलिए। साइमन आ गए।”
बूढ़ा बाहर ही से बाग़ की सड़क का चक्कर काट कर पहलू के बरामदे में पहुँचता। एक कोने में जाकर और जेब में से मैला सा रूमाल निकाल कर झुकता, फिर आहिस्ता से पुकारता, “रेशम... रेशम... रेशम...”

रेशम दौड़ती हुई आती। बाजी बड़े आर्टिस्टिक अंदाज़ में सरोद कंधे से लगाए बरामदे में नुमूदार होतीं। तख़्त पर बैठ कर सरोद का सुर्ख़ बनारसी ग़िलाफ़ उतारतीं और सबक़ शुरू’ जाता।
बारिश के बा’द जब बाग़ भीगा-भीगा सा होता और एक अनोखी सी ताज़गी और ख़ुशबू फ़िज़ा में तैरती तो बूढ़े को वापिस जाते वक़्त घास पर गिरी कोई ख़ूबानी मिल जाती। वो उसे उठा कर जेब में रख लेता। रेशम उसके पीछे-पीछे चलती। अक्सर रेशम शिकार की तलाश में झाड़ियों के अंदर ग़ायब हो जाती या किसी दरख़्त पर चढ़ जाती तो बूढ़ा सर उठा कर एक लम्हे के लिए दरख़्त की हिलती हुई शाख़ को देखता और फिर सर झुका कर फाटक से बाहर चला जाता। तीसरे रोज़ सह-पहर को फिर उसी तरह बजरी पर छड़ी खटखटाने की आवाज़ आती। ये मा’मूल बहुत दिनों से जारी था। [...]

परवाज़ के बाद

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जैसे कहीं ख़्वाब में जिंजर राजर्ज़ या डायना डरबिन की आवाज़ में ‘सान फ्रेंडोवैली’ का नग़्मा गाया जा रहा हो और फिर एकदम से आँख खुल जाए, या’नी वो कुछ ऐसा सा था जैसे माईकल एंजलो ने एक तस्वीर को उकताकर यूँही छोड़ दिया होगा और ख़ुद किसी ज़्यादा दिलचस्प मॉडल की तरफ़ मुतवज्जेह हो गया हो, लेकिन फिर भी उसकी संजीदा सी हँसी कह रही थी कि भई मैं ऐसा हूँ कि दुनिया के सारे मुसव्विर और सारे संग-तराश अपनी पूरी कोशिश के बा-वजूद मुझ जैसा शाहकार नहीं बना सकते। चुपके-चुपके मुस्कुराए जाओ बे-वक़ूफ़ो! शायद तुम्हें बा’द में अफ़सोस करना पड़े।
ओ सीफ़ो... ओ साइकी... ओ हेलेन... ऐ हमारे नए रेफ्रीजरेटर...।

गर्मी ज़ियादा होती जा रही थी। पाम के पत्तों पर जो माली ने ऊपर से पानी गिराया था तो गर्द कहीं-कहीं से धुल गई थी और कहीं-कहीं उसी तरह बाक़ी थी। और भीगती हुई रात कोशिश कर रही थी कि कुछ रोमैंटिक सी बन जाए। वो बर्फ़ीली लड़की, जो हमेशा सफ़ेद ग़रारे और सफ़ेद दुपट्टे में अपने आपको सबसे बुलंद और अलग सा महसूस करवाने पर मजबूर करती थी, बहुत ख़ामोशी से हक्सले की एक बेहद लग़्व किताब ‘प्वाईंट काउंटर प्वाईंट’ पढ़े जा रही थी जिसके एक लफ़्ज़ का मतलब भी उसकी समझ में न ठुंस सका था।
वो लैम्प की सफ़ेद रौशनी में इतनी ज़र्द और ग़म-गीं नज़र आ रही थी जैसे उसके बरगंडी कुइटेक्स की सारी शीशियाँ फ़र्श पर गिर के टूट गई हों या उसके फ़ीडो को सख़्त ज़ुकाम हो गया हो... और लग रहा था जैसे एक छोटे से ग्लेशियर पर आफ़ताब की किरनें बिखर रही हैं। [...]

मोज़ेल

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त्रिलोचन ने पहली मर्तबा... चार बरसों में पहली मर्तबा रात को आसमान देखा था और वो भी इसलिए कि उसकी तबीयत सख़्त घबराई हुई थी और वो महज़ खुली हवा में कुछ देर सोचने के लिए अडवानी चैंबर्ज़ के टेरिस पर चला आया था।
आसमान बिल्कुल साफ़ था। बादलों से बेनियाज़, बहुत बड़े ख़ाकिस्तरी तंबू की तरह सारी बंबई पर तना हुआ था। हद्द-ए-नज़र तक जगह जगह बत्तियां रौशन थीं। त्रिलोचन ने ऐसा महसूस किया था कि आसमान से बहुत सारे सितारे झड़ कर बिल्डिंगों से जो रात के अंधेरे में बड़े बड़े दरख़्त मालूम होती थीं, अटक गए हैं और जुगनुओं की तरह टिमटिमा रहे हैं।

त्रिलोचन के लिए ये बिल्कुल एक नया तजुर्बा, एक नई कैफ़ियत थी... रात को खुले आसमान के नीचे होना। उसने महसूस किया कि वो चार बरस तक अपने फ़्लैट में क़ैद रहा और क़ुदरत की एक बहुत बड़ी नेअमत से महरूम। क़रीब क़रीब तीन बजे थे। हवा बेहद हल्की फुल्की थी।
त्रिलोचन पंखे की मैकानिकी हवा का आदी था जो उसके सारे वजूद को बोझल कर देती थी। सुबह उठ कर वो हमेशा यूं महसूस करता था। रात भर उसको मारा पीटा गया है। पर अब सुबह की क़ुदरती हवा में उसके जिस्म का रोंवां रोंवां, तर-ओ-ताज़गी चूस कर ख़ुश हो रहा था। [...]

शाह दूले का चूहा

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सलीमा की जब शादी हुई तो वो इक्कीस बरस की थी। पाँच बरस होगए मगर उसके औलाद न हुई। उसकी माँ और सास को बहुत फ़िक्र थी। माँ को ज़्यादा थी कि कहीं उसका नजीब दूसरी शादी न करले। चुनांचे कई डाक्टरों से मश्वरा किया गया मगर कोई बात पैदा न हुई।
सलीमा बहुत मुतफ़क्किर थी। शादी के बाद बहुत कम लड़कियां ऐसी होती हैं जो औलाद की ख़्वाहिशमंद न हो। उसने अपनी माँ से कई बार मश्वरा किया। माँ की हिदायतों पर भी अमल किया। मगर नतीजा सिफ़र था।

एक दिन उसकी एक सहेली जो बांझ क़रार दे दी गई थी, उसके पास आई। सलीमा को बड़ी हैरत हुई कि उसकी गोद में एक गुल गोथना लड़का था। सलीमा ने उससे बड़े बेंडे अंदाज़ में पूछा, “फ़ातिमा तुम्हारे ये लड़का कैसे पैदा होगया।”
फ़ातिमा उससे पाँच साल बड़ी थी। उसने मुस्कुरा कर कहा, ये शाह दूले साहब की बरकत है। मुझसे एक औरत ने कहा कि अगर तुम औलाद चाहती हो तो गुजरात जाकर शाह दूले साहब के मज़ार पर मन्नत मानो। कहो कि हुज़ूर मेरे जो पहले बच्चा होगा वो आपकी ख़ानक़ाह पर चढ़ा दूंगी। [...]

ख़ालिद मियां

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मुमताज़ ने सुबह सवेरे उठ कर हस्ब-ए-मामूल तीनों कमरे में झाड़ू दी। कोने खद्दरों से सिगरेटों के टुकड़े, माचिस की जली हुई तीलियां और इसी तरह की और चीज़ें ढूंढ ढूंढ कर निकालीं। जब तीनों कमरे अच्छी तरह साफ़ हो गए तो उसने इत्मिनान का सांस लिया। उसकी बीवी बाहर सहन में सो रही थी। बच्चा पँगोड़े में था।
मुमताज़ हर सुबह सवेरे उठ कर सिर्फ़ इसलिए ख़ुद तीनों कमरों में झाड़ू देता था कि उसका लड़का ख़ालिद अब चलता फिरता था और आम बच्चों के मानिंद, हर चीज़ जो उसके सामने आए, उठा कर मुँह में डाल लेता था।

मुमताज़ हर रोज़ तीनों कमरे बड़े एहतियात से साफ़ करता मगर उसको हैरत होती जब ख़ालिद फ़र्श पर उसे अपने छोटे छोटे नाखुनों की मदद से कोई न कोई चीज़ उठा लेता। फ़र्श का पलस्तर कई जगह उखड़ा हुआ था। जहां कूड़े-करकट के छोटे छोटे ज़र्रे फंस जाते थे। मुमताज़ अपनी तरफ़ से पूरी सफ़ाई करता मगर कुछ न कुछ बाक़ी रह जाता जो उसका पलौठी का बेटा ख़ालिद जिसकी उम्र अभी एक बरस की नहीं हुई थी, उठा कर अपने मुँह में डाल लेता।
मुमताज़ को सफ़ाई का ख़ब्त हो गया था। अगर वो ख़ालिद को कोई चीज़ फ़र्श पर से उठा कर अपने मुँह में डालते देखता तो वो ख़ुद को उसका मुल्ज़िम समझता। अपने आपको दिल ही दिल में कोसता कि उसने क्यों बद एहतियाती की। ख़ालिद से उसको प्यार ही नहीं इश्क़ था, लेकिन अजीब बात है कि जूं जूं ख़ालिद की पहली सालगिरह का दिन नज़दीक आता था, उसका ये वहम यक़ीन की सूरत इख़्तियार करता जाता था कि उसका बेटा एक साल का होने से पहले पहले मर जाएगा। [...]

राह-ए-नजात

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सिपाही को अपनी लाल पगड़ी पर, औरत को अपने गहनों पर, और तबीब को अपने पास बैठे हुए मरीज़ों पर जो नाज़ होता है वही किसान को अपने लहलहाते हुए खेत देखकर होता है। झींगुर अपने ऊख के खेतों को देखता तो उस पर नशा सा छा जाता है। तीन बीघे ज़मीन थी। उसके छः सौ तो आप ही मिल जाएंगे, और जो कहीं भगवान ने डंडी तेज़ कर दी। (मुराद नर्ख़ से) तो फिर क्या पूछना, दोनों बैल बूढ़े हो गए। अब की नई गोईं बटेसर के मेला से ले आवेगा कहीं दो बीघे खेत और मिल गए तो लिखा लेगा। रूपयों की क्या फ़िक्र है, बनिए अभी से ख़ुशामद करने लगे थे। ऐसा कोई न था जिस से उसने गांव में लड़ाई न की हो। वो अपने आगे किसी को कुछ समझता ही न था।
एक रोज़ शाम के वक़्त वो अपने बेटे को गोद में लिए मटर की फलियाँ तोड़ रहा था। इतने में इसको एक भेड़ों का झुण्ड अपनी तरफ़ आता दिखाई दिया, वो अपने दिल में कहने लगा, इधर से भेड़ों के निकलने का रास्ता न था, क्या खेत की मेंड पर से भेड़ों का झुण्ड नहीं जा सकता था? भेड़ों को इधर से लाने की क्या ज़रूरत? ये खेत को कुचलेंगी? चरेंगी? उसका दाम कौन देगा मालूम होता है बुद्धू गडरिया है। बच्चे को घमंड हो गया है जभी तो खेतों के बीच में से भेड़ें लिए जा रहा है। ज़रा उसकी ढिटाई तो देखो। देख रहा है कि मैं खड़ा हूँ और फिर भी भेड़ों को लौटाता नहीं। कौन मेरे साथ कभी सुलूक किया है कि मैं उसकी मरम्मत करूँ। अभी एक भेड़ अमोल मांगूँ तो पाँच रुपये सुना देगा। सारी दुनिया में चार रुपये के कम्बल बिकते हैं पर ये पाँच रुपये से कम बात नहीं करता।

इतने में भेड़ें खेत के पास आ गईं। झींगुर ने ललकार कर कहा, अरे ये भेड़ें कहाँ लिए आते हो। कुछ सूझता है कि नहीं?
बुद्धू इन्किसार से बोला, महतो, डांड पर से निकल जाएँगी, घूम कर जाऊँगा तो कोस भर का चक्कर पड़ेगा। झींगुर, तो तुम्हारा चक्कर बचाने के लिए मैं अपना खेत क्यों कुचलाऊँ, डांड ही पर से ले जाना है तो और खेतों के डांडे से क्यों नहीं ले गए? क्या मुझे कोई चमार-भंगी समझ लिया है या रुपये का घमंड हो गया है? लौटाओ उनको। बुद्धू, महतो आज निकल जाने दो। फिर कभी इधर से आऊँ तो जो डन्द (सज़ा) चाहे देना। [...]

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