राह-ए-नजात

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सिपाही को अपनी लाल पगड़ी पर, औरत को अपने गहनों पर, और तबीब को अपने पास बैठे हुए मरीज़ों पर जो नाज़ होता है वही किसान को अपने लहलहाते हुए खेत देखकर होता है। झींगुर अपने ऊख के खेतों को देखता तो उस पर नशा सा छा जाता है। तीन बीघे ज़मीन थी। उसके छः सौ तो आप ही मिल जाएंगे, और जो कहीं भगवान ने डंडी तेज़ कर दी। (मुराद नर्ख़ से) तो फिर क्या पूछना, दोनों बैल बूढ़े हो गए। अब की नई गोईं बटेसर के मेला से ले आवेगा कहीं दो बीघे खेत और मिल गए तो लिखा लेगा। रूपयों की क्या फ़िक्र है, बनिए अभी से ख़ुशामद करने लगे थे। ऐसा कोई न था जिस से उसने गांव में लड़ाई न की हो। वो अपने आगे किसी को कुछ समझता ही न था।
एक रोज़ शाम के वक़्त वो अपने बेटे को गोद में लिए मटर की फलियाँ तोड़ रहा था। इतने में इसको एक भेड़ों का झुण्ड अपनी तरफ़ आता दिखाई दिया, वो अपने दिल में कहने लगा, इधर से भेड़ों के निकलने का रास्ता न था, क्या खेत की मेंड पर से भेड़ों का झुण्ड नहीं जा सकता था? भेड़ों को इधर से लाने की क्या ज़रूरत? ये खेत को कुचलेंगी? चरेंगी? उसका दाम कौन देगा मालूम होता है बुद्धू गडरिया है। बच्चे को घमंड हो गया है जभी तो खेतों के बीच में से भेड़ें लिए जा रहा है। ज़रा उसकी ढिटाई तो देखो। देख रहा है कि मैं खड़ा हूँ और फिर भी भेड़ों को लौटाता नहीं। कौन मेरे साथ कभी सुलूक किया है कि मैं उसकी मरम्मत करूँ। अभी एक भेड़ अमोल मांगूँ तो पाँच रुपये सुना देगा। सारी दुनिया में चार रुपये के कम्बल बिकते हैं पर ये पाँच रुपये से कम बात नहीं करता।

इतने में भेड़ें खेत के पास आ गईं। झींगुर ने ललकार कर कहा, अरे ये भेड़ें कहाँ लिए आते हो। कुछ सूझता है कि नहीं?
बुद्धू इन्किसार से बोला, महतो, डांड पर से निकल जाएँगी, घूम कर जाऊँगा तो कोस भर का चक्कर पड़ेगा। झींगुर, तो तुम्हारा चक्कर बचाने के लिए मैं अपना खेत क्यों कुचलाऊँ, डांड ही पर से ले जाना है तो और खेतों के डांडे से क्यों नहीं ले गए? क्या मुझे कोई चमार-भंगी समझ लिया है या रुपये का घमंड हो गया है? लौटाओ उनको। बुद्धू, महतो आज निकल जाने दो। फिर कभी इधर से आऊँ तो जो डन्द (सज़ा) चाहे देना। [...]

साहिब-ए-करामात

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चौधरी मौजू बूढ़े बरगद की घनी छाँव के नीचे खड़ी चारपाई पर बड़े इत्मिनान से बैठा अपना चिमोड़ा पी रहा था। धुएँ के हल्के हल्के बुक़े उसके मुँह से निकलते थे और दोपहर की ठहरी हुई हवा में होले-होले गुम हो जाते थे।
वो सुबह से अपने छोटे से खेत में हल चलाता रहा था और अब थक गया था। धूप इस क़दर तेज़ थी कि चील भी अपना अंडा छोड़ दे मगर अब वो इत्मिनान से बैठा अपने चिमोड़े का मज़ा ले रहा था जो चुटकियों में उसकी थकन दूर कर देता था।

उसका पसीना ख़ुश्क हो गया था। इसलिए ठहरी हवा उसे कोई ठंडक नहीं पहुंचा रही थी मगर चिमोड़े का ठंडा-ठंडा लज़ीज़ धुआँ उसके दिल-ओ-दिमाग़ में ना-क़ाबिल-ए-बयान सुरूर की लहरें पैदा कर रहा था।
अब वक़्त हो चुका था कि घर से उसकी इकलौती लड़की जीनां रोटी लस्सी लेकर आ जाए। वो ठीक वक़्त पर पहुंच जाती थी। हालाँकि घर में उसका हाथ बटाने वाला और कोई भी नहीं था। उसकी माँ थी जिसको दो साल हुए मौजू ने एक तवील झगड़े के बाद इंतिहाई ग़ुस्से में तलाक़ दे दी थी। [...]

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