घर में बड़ी चहल पहल थी। तमाम कमरे लड़के-लड़कियों, बच्चे-बच्चियों और औरतों से भरे थे और वो शोर बरपा हो रहा था कि कान पड़ी आवाज़ सुनाई न देती थी। अगर उस कमरे में दो तीन बच्चे अपनी माओं से लिपटे दूध पीने के लिए बिलबिला रहे हैं तो दूसरे कमरे में छोटी छोटी लड़कियां ढोलकी से बेसुरी तानें उड़ा रही हैं। न ताल की ख़बर है न लय की। बस गाए जा रही हैं। नीचे ड्युढ़ी से लेकर बालाई मंज़िल के शह-नशीनों तक मकान मेहमानों से खचाखच भरा था, क्यों न हो। एक मकान में दो ब्याह रचे थे। मेरे दोनों भाई अपनी चांद सी दुल्हनें ब्याह कर लाए थे। रात के ग्यारह बजे के लगभग दोनों डोलियां आईं और गली में इस क़दर शोर बरपा हुआ कि अल-अमान, मगर वो नज़ारा बड़ा रूह अफ़ज़ा था। जब गली की सब शोख़-ओ-शंग लड़कियां बाहर निकल आईं और तीतरियों की तरह इधर उधर फड़फड़ाने लगीं। साड़ियों की रेशमी सरसराहट, कलफ़ लगी शलवारों की खड़खड़ाहट और चूड़ियों की खनखनाहट हवा में तैरने लगी। तमतमाते हुए मुखड़ों पर बार बार गिरती हुई लटें, नन्हे नन्हे सीनों पर ज़ोर दे कर निकाली हुई बलंद आवाज़ें, ऊंची एड़ी के बूटों पर थिरकती हुई टांगें, लचकती हुई उंगलियां, धड़कते हुए लहजे, फड़कती हुईं रगें और फिर उन अल्हड़ लड़कियों की आपस की सरगोशियां! ये सब कुछ देख कर ऐसा लगता था कि गली के पथरीले फ़र्श पर हुस्न-ओ-शबाब अपने क़लम से मआ’नी लिख रहा है! अब्बास मेरे पास खड़ा था। हम दोनों औरतों के हुजूम में घिरे हुए थे, दफ़अ’तन अब्बास ने गली के नुक्कड़ पर नज़रें गाड़ कर कहा, “शो शो कहाँ है?”
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