शहज़ादा

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सुधा ख़ूबसूरत थी न बदसूरत, बस मामूली सी लड़की थी। साँवली रंगत, साफ़ सुथरे हाथ पांव, मिज़ाज की ठंडी मगर घरेलू, खाने पकाने में होशियार, सीने-पिरोने में ताक़, पढ़ने-लिखने की शौक़ीन, मगर न ख़ूबसूरत थी न अमीर, न चंचल, दिल को लुभाने वाली कोई बात इस में न थी। बस वो तो एक बेहद शर्मीली सी और ख़ामोश-तबीअत वाली लड़की थी... बचपन ही से अकेली खेला करती, मिट्टी की गुड़ियाँ बनाती और उनसे बातें करती। उन्हें तिनकों की रसोई में बिठा देती और ख़ुद अपने हाथ से खेला करती। जब कोई दूसरी लड़की उसके क़रीब आती तो गुड़ियों से बातें करते-करते चुप हो जाती। जब कोई शरीर बच्चा उस का घरौंदा बिगाड़ देता तो ख़ामोशी से रोने लगती। रो कर ख़ुद ही चुप हो जाती और थोड़ी देर के बाद दूसरा घरौंदा बनाने लगती।
कॉलेज में भी उसकी सहेलियाँ और दोस्त बहुत कम थे। वो शर्मीली तबीयत अभी तक उसके साथ चल रही थी, जैसे उसके माँ-बाप की ग़रीबी ने बढ़ावा दे दिया हो। उसका बाप जीवन राम नाथु मिल वाच मर्चैंट के यहां चाँदनी चौक की दूकान पर तीस साल से सेल्ज़ मैन चला आ रहा था। उसकी हैसियत ऐसी न थी कि वो अपनी बेटी को कॉलेज की तालीम दे सके। उस पर भी जो उसने अपनी बेटी को कॉलेज में भेजा था, महज़ इस ख़्याल से कि शायद इस तरीक़े से उसकी लड़की को कोई अच्छा ख़ाविंद मिल जाएगा। कभी कभी उसके दिल में ये ख़्याल भी आता था, मुम्किन है कॉलेज का कोई अच्छा लड़का ही उसपर आशिक़ हो जाये। मगर जब वो सुधा की सूरत देखता, झुकी हुई गर्दन, सिकुड़ा हुआ सीना, ख़ामोश निगाहें... और उसकी कम गोई का अंदाज़ा करता तो एक आह भर कर चुप हो जाता और अपना हुक़्क़ा गुड़ गुड़ाने लगता।

सुधा के लिए तो कोई बर घेर घार कर ही लाना होगा। मगर मुसीबत ये है कि इस तरह के बर बड़ा जहेज़ मांगते थे और उसकी हैसियत ऐसी न थी कि वो बड़ा तो क्या छोटा सा भी जहेज़ दे सके। ज़हन के बहाव में बहते बहते उसने ये भी सोचा कि आजकल मुहब्बत की शादी बड़ी सस्ती रहती है। अब मालिक राम की बेटी गोपी को ही देखो, बाप हेल्थ मिनिस्ट्री में तीसरे दर्जे का क्लर्क है मगर बेटी ने एक लखपती ठेकेदार से शादी कर ली है जो उसके साथ कॉलेज में पढ़ता था। बाप क्वार्टरों में रहता है। मगर लड़की एयर कंडीशंड मोटरकार में बैठ कर अपने मैके वालों से मिलने आती है। हाँ, मगर गोपी तो बहुत ख़ूबसूरत है और हमारी सुधा तो बस ऐसी है जैसे उस की माँ...
उसके लिए तो किसी बर को घेरना ही पड़ेगा जिस तरह सुधा की माँ और उसके रिश्ते वालों ने मुझे घेरा था। [...]

टूटे हुए तारे

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रात की थकन से उसके शाने अभी तक बोझल थे। आँखें ख़ुमार-आलूदा और लबों पर तरेट के डाक बंगले की बीयर का कसैला ज़ायक़ा। वो बार-बार अपनी ज़बान को होंटों पर फेर कर उसके फीके और बे-लज़्ज़त से ज़ायक़े को दूर करने की कोशिश कर रहा था। गो उस की आँखें मंदी हुई थी, लेकिन पहाड़ों के मोड़ उसे इस तरह याद थे, जैसे अलिफ़, बे की पहली सतर, और वो निहायत चाबुकदस्ती से अपनी मोटर को जिसमें सिर्फ दो आदमी बैठ सकते थे, (एक आदमी और ग़ालिबन एक औरत उन ख़तरनाक मोड़ों पर घुमाये ले जा रहा था। कहीं-कहीं तो ये मोड़ बहुत ख़तरनाक हो जाते।
एक तरफ़ उमूदी चट्टानें, दूसरी तरफ़ खाई, जिसकी तह में झेलम के नीले पानी और सफ़ेद झाग की एक टेढ़ी सी लकीर नज़र आ जाती, उन्हीं मोड़ों पर से तो कार को तेज़ चलाने में लुत्फ़ हासिल होता था। सारे जिस्म में एक फुरेरी सी आ जाती थी। सुबह की हवा भी बर्फ़ीली और ख़ुश-गवार थी, उसमें ऊंची चोटियों की और घाटियों पर फैले हुए जंगलों के जेगन की महक घुली हुई थी। कैसी अनोखी महक थी, अजीब, बेनाम सी तर-ओ-ताज़ा, निहालू के लबों की तरह, वो अपनी नीम-वा पलकों के साए में पिछली रात के बीते हुए तरबनाक लम्हों को वापस बुलाने लगा। बीयर की रंगत में डूबते हुए सूरज का सोना घुला हुआ था। उसके कसैले-पन में एक अजीब सी लताफ़त थी। रात की भीगी हुई ख़ामोशियों में दूर कहीं एक बुलबुल नग़मा-रेज़ थी। बुलबुल ने अपने नग़मे में ख़ामोशी और आवाज़ को यूं मिला दिया था कि दोनों एक दूसरे की सदाए बाज़-गश्त मालूम होते थे। और वो ये मालूम ना कर सका था कि ये ख़ामोशी कहाँ ख़त्म होती है। और ये मौसीक़ी कहाँ शुरू होती है... चाँदनी-रात में सेब के फूल हंस रहे थे और निहालू के लब मुस्कुरा रहे थे।

वो लब-ए-जो बार-बार चूमे जाने पर भी मासूम दिखाई देते थे, ऐसा मालूम होता था कि दुनिया की कोई चीज़ भी उन्हें नहीं छू सकती, कैसा अजीब एहसास था। रात की तन्हाइयों में निहालू का हुस्न ग़ैर-फ़ानी और ग़ैर ज़मीनी मालूम होता था। उसके लब, उस की आँखों की नरमी, उसके बाल स्याह घने और मुलाइम, जैसे रात की भीगी हुई ख़ामोशी, और फिर उन बालों में सेब के चंद चटकते हुए ग़ुंचे, जैसे रात की भीगी हुई ख़ामोशी में बुलबुल के मीठे नग़मे, और वो ये मालूम ना कर सका कि ख़ामोशी कहाँ शुरू होती है और ये मौसीक़ी कहाँ ख़त्म होती है।
लेकिन अब तो वो डाक बंगला भी बहुत पीछे रह गया था, और इस वक़्त किसी पुरस्तानी क़िले की तरह मालूम हो रहा था। मोड़ों के उलझाव में कार घूमती हुई जा रही थी और उसके तख़य्युल में निहालू के लब, जेगन की महक, बुलबुल का नग़मा और बियर का सुनहरा रंग चांदी के तार की तरह चमकती हुई सड़क पर उलझते गए। नीचे झेलम का पानी वहशी राग गाने लगा और फ़िज़ा में सेब के लाखों फूल आँखें खोल कर चहचहाने लगे, और उसने सोचा कि क्यों ना वो अपनी मोटर को इसी खाई की वसीअ ख़ला पर एक बे-फ़िक्र परिंदे की तरह उड़ा कर ले जाये, ये ख़्याल आते ही उसने अपने जिस्म में एक सनसनी सी महसूस की और उसकी नीम-वा आँखें खुल गईं। [...]

तरक़्क़ी पसंद

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जोगिंदर सिंह के अफ़साने जब मक़बूल होना शुरू हुए तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो मशहूर अदीबों और शायरों को अपने घर बुलाए और उनकी दा’वत करे। उसका ख़याल था कि यूं उस की शोहरत और मक़बूलियत और भी ज़्यादा हो जाएगी।
जोगिंदर सिंह बड़ा ख़ुशफ़हम इंसान था। मशहूर अदीबों और शायरों को अपने घर बुलाकर और उनकी ख़ातिर तवाज़ो करने के बाद जब वो अपनी बीवी अमृत कौर के पास बैठता तो कुछ देर के लिए बिल्कुल भूल जाता कि उसका काम डाकखाना में चिट्ठियों की देख भाल करना है। अपनी तीन गज़ी पटियाला फ़ैशन की रंगी हुई पगड़ी उतार कर जब वो एक तरफ़ रख देता तो उसे ऐसा महसूस होता कि उसके लंबे लंबे काले गेसूओं के नीचे जो छोटा सा सर छुपा हुआ है उसमें तरक़्क़ी पसंद अदब कूट कूट कर भरा है।

इस एहसास से उसके दिमाग़ में एक अ’जीब क़िस्म की अहमियत पैदा हो जाती है और वो ये समझता कि दुनिया में जिस क़दर अफ़साना निगार और नॉवेल नवीस मौजूद हैं सबके सब उसके साथ एक निहायत ही लतीफ़ रिश्ते के ज़रिये से मुंसलिक हैं।
अमृत कौर की समझ में ये बात नहीं आती थी कि उसका ख़ाविंद लोगों को मदऊ करने पर उससे हर बार ये क्यों कहा करता है, “अमृत, ये जो आज चाय पर आरहे हैं हिंदुस्तान के बहुत बड़े शायर हैं समझीं, बहुत बड़े शायर। देखो उनकी ख़ातिर तवाज़ो में कोई कसर न रहे।” [...]

कारमन

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रात के ग्यारह बजे टैक्सी शहर की ख़ामोश सड़कों पर से गुज़रती एक पुरानी वज़ा’ के फाटक के सामने जाकर रुकी। ड्राईवर ने दरवाज़ा खोल कर बड़े यक़ीन के साथ मेरा सूटकेस उतार कर फ़ुट-पाथ पर रख दिया और पैसों के लिए हाथ फैलाए तो मुझे ज़रा अ'जीब सा लगा।
“यही जगह है?”, मैंने शुबा से पूछा।

“जी हाँ”, उसने इत्मीनान से जवाब दिया।
मैं नीचे उत्तरी। टैक्सी गली के अँधेरे में ग़ाइब हो गई और मैं सुनसान फ़ुट-पाथ पर खड़ी रह गई। मैंने फाटक खोलने की कोशिश की मगर वो अंदर से बंद था। तब मैंने बड़े दरवाज़े में जो खिड़की लगती थी, उसे खटखटाया। कुछ देर बा'द खिड़की खुली। मैंने चोरों की तरह अंदर झाँका। अंदर नीम-तारीक आँगन था जिसके एक कोने में दो लड़कियाँ रात के कपड़ों में मलबूस आहिस्ता-आहिस्ता बातें कर रही थीं। आँगन के सिरे पर एक छोटी सी शिकस्ता इमारत इस्तादा थी। मुझे एक लम्हे के लिए घुसियारी मंडी लखनऊ का स्कूल याद आ गया, जहाँ से मैंने बनारस यूनीवर्सिटी का मैट्रिक पास किया था। मैंने पलट कर गली की तरफ़ देखा जहाँ मुकम्मल ख़ामोशी तारी थी। फ़र्ज़ कीजिए... मैंने अपने आपसे कहा कि ये जगह अफ़ीमचियों, बुर्दा-फ़रोशों और स्मगलरों का अड्डा निकली तो...? मैं एक अजनबी मुल्क के अजनबी शहर में रात के ग्यारह बजे एक गुमनाम इमारत का दरवाज़ा खटखटा रही थी जो घुसियारी मंडी के स्कूल से मिलता-जुलता था। एक लड़की खिड़की की तरफ़ आई। [...]

माई जनते

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माई जनते स्लीपर फटफटाती घिसटती कुछ इस अंदाज़ में अपने मैले चिकट में दाख़िल हुआ ही थी कि सब घर वालों को मालूम हो गया कि वो आ पहुंची है। वो रहती उसी घर में थी जो ख़्वाजा करीम बख़्श मरहूम का था अपने पीछे काफ़ी जायदाद एक बेवा और दो जवान बच्चियां छोड़ गया था।
आदमी पुरानी वज़अ का था। जूंही ये लड़कियां नौ दस बरस की हुईं उनको घर की चार दीवारी में बिठा दिया और पहरा भी ऐसा कि वो खिड़की तक के पास खड़ी नहीं हो सकतीं मगर जब वो अल्लाह को प्यारा हुआ तो उनको आहिस्ता आहिस्ता थोड़ी सी आज़ादी हो गई। अब वह लुक छुप के नावेल भी पढ़ती थीं। अपने कमरे के दरवाज़े बंद कर के पॉउडर और लिप स्टक भी लगाती थीं। उनके पास विलायत की सी हुई अंगिया भी थीं। मालूम नहीं ये सब चीज़ें कहाँ से मिल गई थीं। बहरहाल इतना ज़रूर है कि उनकी माँ को जो अभी तक अपने ख़ाविंद के सदमे को भूल न सकी थी इन बातों का कोई इ’ल्म नहीं था। वो ज़्यादातर क़ुरआन मजीद की तिलावत और पाँच वक़्त की नमाज़ों की अदायगी में मसरूफ़ रहती और अपने मरहूम शौहर की रूह को सवाब पहुंचाती रहती।

घर में कोई मर्द नौकर नहीं था, मरहूम के बाप की ज़िंदगी में, न मरहूम के ज़माने में, ये उनकी पुरानी वज़ा’दारी का सबूत है। आमतौर पर एक या दो मुलाज़िमाएं होती थीं जो बाहर से सौदा सुल्फ़ भी लाएं और घर का काम भी करें।
दसवीं जमात ख़ुद मरहूम ने अपनी बच्चियों को पढ़ा कर पास कराई थी। कॉलिज की ता’लीम के वो यकसर ख़िलाफ़ थे, वो उनकी फ़ौरन शादी कर देना चाहते थे मगर ये तमन्ना उनके दिल ही में रही एक दिन अचानक फ़ालिज गिरा। इस मूज़ी मर्ज़ ने उनके दिल पर असर किया और वो एक घंटे के अंदर अंदर राहि-ए-मुल्क-ए-अदम हुए। [...]

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