कोठी से मुल्हक़ा वसीअ’-ओ-अ’रीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन-रात कोठी के अंदर बाहर भौंकते और गंदगी बिखेरते रहते थे। उनको ज़हर दे दिया गया... एक एक कर के सब मर गए थे। उनकी माँ भी... उनका बाप मालूम नहीं कहाँ था। वो होता तो उसकी मौत भी यक़ीनी थी। जाने कितने बरस गुज़र चुके थे। कोठी से मुल्हक़ा बाग़ की झाड़ियां सैंकड़ों हज़ारों मर्तबा कतरी-ब्योंती, काटी-छांटी जा चुकी थीं। कई बिल्लियों और कुत्तियों ने उनके पीछे बच्चे दिए थे जिनका नाम-ओ-निशान भी न रहा था। उसकी अक्सर बद आदत मुर्ग़ियां वहाँ अंडे दे दिया करती थीं जिन को हर सुबह उठा कर वो अंदर ले जाती थी। उसी बाग़ में किसी आदमी ने उनकी नौजवान मुलाज़िमा को बड़ी बेदर्दी से क़त्ल कर दिया था। उसके गले में उसका फुंदनों वाला सुर्ख़ रेशमी इज़ार-बंद जो उसने दो रोज़ पहले फेरी वाले से आठ आने में ख़रीदा था, फंसा हुआ था। इस ज़ोर से क़ातिल ने पेच दिए थे कि उसकी आँखें बाहर निकल आई थीं। उसको देख कर उसको इतना तेज़ बुख़ार चढ़ा था कि बेहोश हो गई थी और शायद अभी तक बेहोश थी। लेकिन नहीं, ऐसा क्योंकर हो सकता था, इसलिए कि इस क़त्ल के देर बाद मुर्ग़ियों ने अंडे, न ही बिल्लियों ने बच्चे दिए थे और एक शादी हुई थी... कुतिया थी जिसके गले में लाल दुपट्टा था। मुकेशी... झिलमिल झिलमिल करता। उसकी आँखें बाहर निकली हुई नहीं थीं, अंदर धंसी हुई थीं।
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