दुनिया का सबसे अनमोल रतन

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दिल-फ़िगार एक पुरख़ार दरख़्त के नीचे दामन चाक किए बैठा हुआ ख़ून के आँसू बहा रहा था। वो हुस्न की देवी यानी मलिका दिल-फ़रेब का सच्चा और जाँ-बाज़ आशिक़ था। उन उश्शाक में नहीं जो इत्र-फुलेल में बस कर और लिबास-ए-फ़ाखिरा में सज कर आशिक़ के भेस में माशूक़ियत का दम भरते हैं, बल्कि उन सीधे सादे भोले भाले फ़िदाइयों में जो कोह और बयाबाँ में सर टकराते और नाला-ओ-फ़रियाद मचाते फिरते हैं। दिल-फ़रेब ने उससे कहा था कि, “अगर तू मेरा सच्चा आशिक़ है तो जा और दुनिया की सबसे बेश-बहा शय लेकर मेरे दरबार में आ। तब मैं तुझे अपनी गु़लामी में क़बूल करुँगी। अगर तुझे वो चीज़ न मिले तो ख़बरदार! इधर का रुख़ न करना वर्ना दार पर खींचवा दूँगी।” दिल-फ़िगार को अपने जज़्बे के इज़हार का, शिकवा-शिकायत और जमाल-ए-यार के दीदार का मुतलक़ मौक़ा न दिया गया। दिल-फ़रेब ने जूँ ही ये फ़ैसला सुनाया, उसके चोबदारों ने ग़रीब दिल-फ़िगार को धक्के दे कर बाहर निकाल दिया और आज तीन दिन से ये सितम-रसीदा शख़्स उसी पुरख़ार दरख़्त के नीचे इसी वहशत-नाक मैदान में बैठा हुआ सोच रहा है कि क्या करूँ? दुनिया की सब से बेश-बहा शय! ना-मुम्किन! और वो है क्या? क़ारून का ख़ज़ाना? आब-ए-हयात? ताज-ए-ख़ुसरो? जाम-ए-जम? तख़्त-ए-ताऊस? ज़र-ए-परवेज़? नहीं ये चीज़ें हरगिज़ नहीं। दुनिया में ज़रूर इनसे गिराँ तर, इनसे भी बेश-बहा चीज़ें मौजूद हैं। मगर वो क्या हैं? कहाँ हैं? कैसे मिलेंगी? या ख़ुदा मेरी मुश्किल क्यों कर आसान होगी!
दिल-फ़िगार इन्ही ख़यालात में चक्कर खा रहा था और अक़्ल कुछ काम न करती थी। मुनीर-ए-शामी को हातिम सा मददगार मिल गया। ऐ काश कोई मेरा भी मददगार हो जाता। ऐ काश मुझे भी उस चीज़ का, जो दुनिया की सब से बेश-बहा है, नाम बतला दिया जाता। बला से वो शय दस्तयाब न होती मगर मुझे इतना मालूम हो जाता कि वो किस क़िस्म की चीज़ है। मैं घड़े बराबर मोती की खोज में जा सकता हूँ। मैं समंदर का नग़्मा, पत्थर का दिल, क़ज़ा की आवाज़, और उनसे भी ज़्यादा बे-निशान चीज़ों की तलाश में कमर हिम्मत बाँध सकता हूँ। मगर दुनिया की सब से बेश-बहा शय, ये मेरे पर परवाज़ से बाला-ए-तर है।

आसमान पर तारे निकल आए थे। दिल-फ़िगार यकायक ख़ुदा का नाम लेकर उठा और एक तरफ़ को चल खड़ा हुआ, भूका-प्यासा। बरहना तन ख़स्ता-ओ-ज़ार, वो बरसों वीरानों और आबादियों की ख़ाक छानता फिरा। तलवे काँटों से छलनी हो गए। जिस्म में तार-ए-सतर की तरह हड्डियाँ ही हड्डियाँ नज़र आने लगीं। मगर वो चीज़ जो दुनिया की सब से बेश-बहा शय थी। मयस्सर न हुई। और न उस का कुछ निशान मिला।
एक रोज़ भूलता-भटकता एक मैदान में निकला। जहाँ हज़ारों आदमी हल्क़ा बाँधे खड़े थे। बीच में अम्मामे और अबा वाले रीशाईल क़ाज़ी शान-ए-तहक्कुम से बैठे हुए बाहम कुछ ग़ुरफ़िश कर रहे थे और उस जमा'अत से ज़रा दूर पर एक सूली खड़ी थी। दिल-फ़िगार कुछ ना-तवानी के ग़लबे से और कुछ यहाँ की कैफ़ियत देखने के इरादे से ठिटक गया। क्या देखता है कि कई बरक़नदार एक दस्त-ओ-पा-ब-ज़ंजीर क़ैदी के ले चले आ रहे हैं। सूली के क़रीब पहुँच कर सब सिपाही रुक गए। और क़ैदी की हथकड़ियाँ बेड़ियाँ सब उतार ली गईं। उस बद-क़िस्मत शख़्स का दामन सद-हा-बे-गुनाहों के ख़ून के छींटों से रंगीन हो रहा था। और उसका दिल नेकी के ख़याल और रहम की आवाज़ से मुतलक़ मानूस न था। उसे काला चोर कहते थे। सिपाहियों ने उसे सूली के तख़्ते पर खड़ा कर दिया। मौत की फाँसी उसकी गर्दन में डाल दी। और जल्लादों ने तख़्ता खींचने का इरादा किया। कि बद-क़िस्मत मुजरिम चीख़ कर बोला, “लिल्लाह मुझे एक दम के लिए फाँसी से उतार दो। ताकि अपने दिल की आख़िरी आरज़ू निकाल लूँ।” ये सुनते ही चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया। लोग हैरत में आकर ताकने लगे। क़ाज़ियों ने एक मरने वाले शख़्स की आख़िरी इस्तिदा को रद्द करना मुनासिब न समझा। और बद-नसीब सियह-कार काला चोर ज़रा देर के लिए फाँसी से उतार लिया गया। [...]

रियासत का दीवान

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मिस्टर मेहता उन बद-नसीबों में से थे जो अपने आक़ा को ख़ुश नहीं रख सकते। वो दिल से अपना काम करते थे बड़ी यकसूई और ज़िम्मेदारी के साथ और ये भूल जाते थे कि वो काम के तो नौकर हैं ही अपने आक़ा के नौकर भी हैं। जब उनके दूसरे भाई दरबार में बैठे ख़ुश-गप्पियाँ करते वो दफ़्तर में बैठे काग़ज़ों से सर मारते और उसका नतीजा था कि जो आक़ा परवर थे उनकी तरक़्कियां होती थीं। इनाम-ओ-इकराम पाते थे और ये हज़रत जो फ़र्ज़ परवर थे, रांदा दरगाह समझे जाते थे और किसी न किसी इल्ज़ाम में निकाल लिए जाते थे, ज़िंदगी में तल्ख़ तजुर्बे उन्हें कई बार हुए थे। इसलिए जब अब की राजा साहिब सत्या ने अपने हाँ एक मुअज़्ज़ज़ ओह्दा दे दिया तो उन्होंने अह्द कर लिया था कि अब मैं भी आक़ा का रुख देखकर काम करूँगा और उनकी मिज़ाजदारी को अपना शिआर बनाऊँगा। लगन के साथ काम करने का फल पा चुका। अब ऐसी ग़लती न करूँगा। दो साल भी न गुज़रे थे कि राजा साहब ने उन्हें अपना दीवान बना लिया। एक मुख़्तार रियासत की दीवानी का क्या कहना। तनख़्वाह तो बहुत कम थी मगर इख़्तियारात ग़ैर महदूद। राजा साहब अपने सैर व शिकार और ऐश व नशात में मसरूफ़ रहते थे सारी ज़िम्मेदारी मिस्टर मेहता पर थी। रियासत के हुक्काम उनके सामने सर-ए-नियाज़ ख़म करते। रूसा नज़राने देते। तजार सज्दे बजा लाते। यहां तक कि रानियां भी उनकी ख़ुशामद करती थीं। राजा साहब भी बदमिज़ाज आदमी थे और बदज़बान भी कभी कभी सख़्त सुस्त कह बैठते। मगर मेहता ने अपना वतीरा बनालिया था। कि सफ़ाई या उज़्र में एक लफ़्ज़ भी मुँह से न निकालते। सब कुछ सर झुका कर सुन लेते। राजा साहब का गु़स्सा फ़रौ हो जाता।
गर्मियों के दिन थे पॉलिटिकल एजेंट का दौरा था, रियासत में उनके ख़ैरमक़्दम की तैयारियां हो रही थीं। राजा साहब ने मिस्टर मेहता को बुला कर कहा, मैं चाहता हूँ कि साहब बहादुर यहां से मेरा कलमा पढ़ते हुए जाएं।

मेहता ने सर उठा कर कहा, कोशिश तो ऐसी ही कर रहा हूँ अन्नदाता।
मैं कोशिश नहीं चाहता, जिसमें नाकामी का पहलू भी शामिल है। क़तई वादा चाहता हूँ। [...]

सवा सेर गेहूँ

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किसी गाँव में शंकर नामी एक किसान रहता था। सीधा-सादा ग़रीब आदमी था। अपने काम से काम, न किसी के लेने में, न किसी के देने में, छक्का-पंजा न जानता था। छल-कपट की उसे छूत भी न लगी थी। ठगे जाने की फ़िक्र न थी। विद्या न जानता था। खाना मिला तो खा लिया न मिला तो चरबन पर क़नाअत की। चरबन भी न मिला तो पानी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा। मगर जब कोई मेहमान दरवाज़े पर आ जाता तो उसे ये इस्तिग़्ना का रास्ता तर्क कर देना पड़ता था। ख़ुसूसन जब कोई साधू महात्मा आ जाते थे तो उसे लाज़िमन दुनियावी बातों का सहारा लेना पड़ता। ख़ुद भूका सो सकता था मगर साधू को कैसे भूका सुलाता। भगवान के भगत जो ठहरे।
एक रोज़ शाम को एक महात्मा ने आकर उसके दरवाज़े पर डेरा जमा दिया। चेहरे पर जलाल था। पीताम्बर गले में, जटा सर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाऊँ पैर में, ऐनक आँखों पर, ग़रज़ कि पूरा भेस उन महात्मा का सा था जो रऊसा के महलों में रियाज़त, हवा-गाड़ियों पर मंदिरों का तवाफ़ और योग (मुराक़िबा) में कमाल हासिल करने के लिए लज़ीज़ ग़िज़ाएँ खाते हैं! घर में जौ का आटा था, वो उन्हें कैसे खिलाता? ज़माना-ए-क़दीम में जौ की ख़्वाह कुछ अहमियत रही हो, मगर ज़माना-ए-हाल में जौ की ख़ूरिश महात्मा लोगों के लिए सक़ील और देर-हज़्म हुई है, बड़ी फ़िक्र हुई कि महात्मा जी को क्या खिलाऊँ?

आख़िर तय किया कि कहीं से गेहूँ का आटा उधार लाऊँ। गाँव भर में गेहूँ का आटा न मिला। गाँव भर में सब आदमी ही आदमी थे, देवता एक भी न था, देवताओं को ख़ूरिश कैसे मिलती? ख़ुश-क़िस्मती से गाँव के पुरोहित जी के यहाँ थोड़े से गेहूँ मिल गए। उनसे सवा सेर गेहूँ उधार लिए और बीवी से कहा कि पीस दे। महात्मा ने खाया। लंबी तान कर सोए और सुबह आशीर्वाद दे कर अपना रास्ता लिया।
पुरोहित जी साल में दो बार खलियानी लिया करते थे। शंकर ने दिल में कहा कि सवा सेर गेहूँ क्या लौटाऊँ। पंसेरी के बदले कुछ ज़्यादा खलियानी दे दूँगा। वो भी समझ जाएँगे, मैं भी समझ जाऊँगा। चैत में जब वो पुरोहित जी पहुँचे तो उन्हें डेढ़ पंसेरी के क़रीब गेहूँ दे दिए और अपने को सुबुक-दोश समझ कर इसका कोई तज़किरा न किया। पुरोहित जी ने भी फिर कभी न माँगा। सीधे-साधे शंकर को क्या मालूम कि ये सवा सेर गेहूँ चुकाने के लिए मुझे दुबारा जन्म लेना पड़ेगा? [...]

शतरंज की बाज़ी

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(1)
नवाब वाजिद अली शाह का ज़माना था। लखनऊ ऐश-ओ-इशरत के रंग में डूबा हुआ था। छोटे बड़े अमीर-ओ-ग़रीब सब रंग-रलियाँ मना रहे थे, कहीं निशात की महफ़िलें आरास्ता थीं। कोई अफ़यून की पीनक के मज़े लेता था। ज़िंदगी के हर एक शोबे में रिंदी-ओ-मस्ती का ज़ोर था। उमूर-ए-सियासत में, शेर-ओ-सुख़न में, तर्ज़-ए-मुआशरत में, सनअत-ओ-हिरफ़त में, तिजारत-ओ-तबादला में, सभी जगह नफ़्स-परस्ती की दुहाई थी। अराकीन-ए-सल्तनत मय-ख़ोरी के ग़ुलाम हो रहे थे। शोरा बोसा-ओ-कनार में मस्त, अहल-ए-हर्फ़ा कलाबत्तू और चिकन बनाने में, अहल-ए-सैफ़ तीतर-बाज़ी में, अहल-ए-रोज़गार सुर्मा-ओ-मिस्सी, इत्र-ओ-तेल की ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त का दिलदादा।

ग़रज़ सारा मुल्क नफ़्स-परवरी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। सबकी आँखों में साग़र-ओ-जाम का नशा छाया हुआ था। दुनिया में क्या हो रहा है... इल्म-ओ-हिकमत किन-किन ईजादों में मसरूफ़ है... बहर-ओ-बर पर मग़रिबी अक़्वाम किस तरह हावी होती जाती हैं... इसकी किसी को ख़बर न थी। बटेर लड़ रहे हैं, तीतरों में पालियाँ हो रही थीं, कहीं चौसर हो रही है। पौ-बारा का शोर मचा हुआ है, कहीं शतरंज के मारके छिड़े हुए हैं। फ़ौजें ज़ेरो-ज़बर हो रही हैं।
नवाब का हाल इससे बदतर था। वहाँ गत्तों और तालों की ईजाद होती थी। ख़ित्ता-ए-नफ़्स के लिए नए लटके नए नए नुस्ख़े सोचे जाते थे। यहाँ तक कि फ़क़्र ख़ैरात के पैसे पाते तो रोटियाँ ख़रीदने की बजाय मदक और चण्डू के मज़े लेते थे। रईस-ज़ादे हाज़िर जवाबी और बज़ला-संजी की ता'लीम हासिल करने के लिए अरबाब-ए-निशात से क़लम-बंद करते थे। फ़िक्र को जौलाँ, अक़्ल को रसा और ज़हन को तेज़ करने के लिए शतरंज कीमिया समझा जाता था। अब भी इस क़ौम के लोग कहीं कहीं मौजूद हैं। जो इस दलील को बड़े शद्द-ओ-मद से पेश करते हैं। इसलिए अगर मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अपनी ज़िंदगी का बेश्तर हिस्सा अक़्ल को तेज़ करने में सर्फ़ किया करते थे। तो किसी ज़ी-फ़हम को एतिराज़ करने का मौक़ा न था। हाँ जेहला उन्हें जो चाहें समझें। [...]

दुनिया का सब से अनमोल रतन

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दिलफ़िगार एक पुर ख़ार दरख़्त के नीचे दामन चाक किये बैठा हुआ ख़ून के आँसू बहा रहा था। वो हुस्न की देवी यानी मलिका दिलफ़रेब का सच्चा और जाँबाज़ आशिक़ था। उन उश्शाक में नहीं जो इत्र-फुलेल में बस कर और लिबास फ़ाखिरा सज कर आशिक़ के भेस में माशूक़ियत का दम भरते हैं, बल्कि उन सीधे सादे भोले भाले फ़िदाइयों में जो कोह और ब्याबां में सर टकराते और नाला-व-फ़र्याद मचाते फिरते हैं। दिलफ़रेब ने उससे कहा था कि अगर तू मेरा सच्चा आशिक़ है तो जा और दुनिया की सबसे बेशबहा शय लेकर मेरे दरबार में आ तब में तुझे अपनी गु़लामी में क़बूल करूंगी। अगर तुझे वो चीज़ न मिले तो ख़बरदार! इधर का रुख़ न करना वर्ना दार पर खींचवा दूंगी। दिलफ़िगार को अपने जज़्बे के इज़हार का शिकवा शिकायत और जमाल-ए-यार के दीदार का मुतलक़ मौक़ा न दिया गया। दिलफ़रेब ने जूं ही ये फ़ैसला सुनाया। उसके चोबदारों ने ग़रीब दिलफ़िगार को धक्के दे कर बाहर निकाल दिया और आज तीन दिन से ये सितम रसीदा शख़्स उसी पुर ख़ार दरख़्त के नीचे इसी वहशतनाक मैदान में बैठा हुआ सोच रहा है कि क्या करूं? दुनिया की सब से बेश-बहा शय! नामुमकिन! और वो है क्या? क़ारून का ख़ज़ाना? आब-ए-हयात? ताज ए ख़ुसरो? जाम ए जम? तख़्त-ए-ताऊस? ज़र परवेज़? नहीं ये चीज़ें हरगिज़ नहीं दुनिया में ज़रूर उनसे गिरां तर, उनसे भी बेशबहा चीज़ें मौजूद हैं। मगर वो क्या हैं? कहाँ हैं? कैसे मिलेंगी? या ख़ुदा मेरी मुश्किल क्यों कर आसान होगी!
दिलफ़िगार उन्ही ख़्यालात में चक्कर खा रहा था और अक़ल कुछ काम न करती थी मुनीर ए शामी को हातिम सा मदद गार मिल गया। ए काश कोई मेरा भी मददगार हो जाता। ए काश मुझे भी उस चीज़ का जो दुनिया की सब से बेशबहा है, नाम बतला दिया जाता बला से वो शैय दस्तयाब न होती मगर मुझे इतना मालूम हो जाता कि वो किस किस्म की चीज़ है। मै घड़े बराबर मोती की खोज में जा सकता हूँ। में समुंद्र का नग़मा, पत्थर का दिल, क़ज़ा की आवाज़, और उनसे भी ज़्यादा ने निशान चीज़ों की तलाश में कमर हिम्मत बांध सकता हूँ।मगर दुनिया की सब से बेशबहा शैय ये मेरे पर परवाज़ से बाला-ए-तर है।

आसमान पर तारे निकल आए थे। दिलफ़िगार यकायक ख़ुदा का नाम लेकर उठा और एक तरफ़ को चल खड़ा हुआ भूका प्यासा। ब्रहना तन ख़स्ता-व-ज़ार वो बरसों वीरानों और आबादीयों की ख़ाक छानता फिरा। तलवे कांटों से छलनी हो गए। जिस्म में तार सतर की तरह हड्डियां ही हड्डियां नज़र आने लगीं। मगर वो चीज़ जो दुनिया की सब से बेशबहा शैय थी। मयस्सर न हुई। और न इस का कुछ निशान मिला।
एक रोज़ भूलता भटकता एक मैदान में निकला। जहां हज़ारों आदमी हलक़ा बांधे खड़े थे। बीच में अमामे और अबा वाले रीशाईल क़ाज़ी शान तहक्कुम से बैठे हुए बाहम कुछ ग़रफ़श कर रहे थे और उस जमात से ज़रा दूर पर एक सूली खड़ी थी। दिलफ़िगार कुछ नातवानी के ग़लबे से। और कुछ यहां की कैफ़ीयत देखने के इरादे से ठटक गया। क्या देखता है कि कई बरकनदार एक दस्त-व-पा बज़नजीर क़ैदी के ले चले आ रहे हैं। सूली के क़रीब पहूंच कर सब सिपाही रुक गए। और क़ैदी की हथकड़ीयां बेड़ियां सब उतार ली गईं। उस बदक़िस्मत शख़्स का दामन सदहा बेगुनाहों के ख़ून के छींटों से रंगीन हो रहा था। और उसका दिल नेकी के ख़्याल और रहम की आवाज़ से मुतलक़ मानूस न था। उसे काला चोर कहते थे। सिपाहीयों ने उसे सूली के तख़्ते पर खड़ा कर दिया। मौत की फांसी उसकी गर्दन मं डाल दी। और जल्लादों ने तख़्ता खींच का इरादा किया। कि बदक़िस्मत मुजरिम चीख़ कर बोला लिल्ला मुझे एक दम के लिए फांसी से उतार दो। ताकि अपने दिल की आख़िरी आरज़ू निकाल लूं। ये सुनते ये चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया। लोग हैरत में आकर ताकने लगे। क़ाज़ीयों ने एक मरने वाले शख़्स की आख़िरी इस्तिदा को रद्द करना मुनासिब ना समझा। और बदनसीब सिहा कार काला चोर ज़रा देर के लिए फांसी से उतार लिया गया। [...]

रियासत का दीवान

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मिस्टर मेहता उन बद-नसीबों में से थे जो अपने आक़ा को ख़ुश नहीं रख सकते। वो दिल से अपना काम करते थे बड़ी यकसूई और ज़िम्मेदारी के साथ और ये भूल जाते थे कि वो काम के तो नौकर हैं ही अपने आक़ा के नौकर भी हैं। जब उनके दूसरे भाई दरबार में बैठे ख़ुश-गप्पियाँ करते वो दफ़्तर में बैठे काग़ज़ों से सर मारते और उसका नतीजा था कि जो आक़ा परवर थे उनकी तरक़्कियां होती थीं। इनाम-ओ-इकराम पाते थे और ये हज़रत जो फ़र्ज़ परवर थे, रांदा दरगाह समझे जाते थे और किसी न किसी इल्ज़ाम में निकाल लिए जाते थे, ज़िंदगी में तल्ख़ तजुर्बे उन्हें कई बार हुए थे। इसलिए जब अब की राजा साहिब सत्या ने अपने हाँ एक मुअज़्ज़ज़ ओह्दा दे दिया तो उन्होंने अह्द कर लिया था कि अब मैं भी आक़ा का रुख देखकर काम करूँगा और उनकी मिज़ाजदारी को अपना शिआर बनाऊँगा। लगन के साथ काम करने का फल पा चुका। अब ऐसी ग़लती न करूँगा। दो साल भी न गुज़रे थे कि राजा साहब ने उन्हें अपना दीवान बना लिया। एक मुख़्तार रियासत की दीवानी का क्या कहना। तनख़्वाह तो बहुत कम थी मगर इख़्तियारात ग़ैर महदूद। राजा साहब अपने सैर व शिकार और ऐश व नशात में मसरूफ़ रहते थे सारी ज़िम्मेदारी मिस्टर मेहता पर थी। रियासत के हुक्काम उनके सामने सर-ए-नियाज़ ख़म करते। रूसा नज़राने देते। तजार सज्दे बजा लाते। यहां तक कि रानियां भी उनकी ख़ुशामद करती थीं। राजा साहब भी बदमिज़ाज आदमी थे और बदज़बान भी कभी कभी सख़्त सुस्त कह बैठते। मगर मेहता ने अपना वतीरा बनालिया था। कि सफ़ाई या उज़्र में एक लफ़्ज़ भी मुँह से न निकालते। सब कुछ सर झुका कर सुन लेते। राजा साहब का गु़स्सा फ़रौ हो जाता।
गर्मियों के दिन थे पॉलिटिकल एजेंट का दौरा था, रियासत में उनके ख़ैरमक़्दम की तैयारियां हो रही थीं। राजा साहब ने मिस्टर मेहता को बुला कर कहा, "मैं चाहता हूँ कि साहब बहादुर यहां से मेरा कलमा पढ़ते हुए जाएं।"

मेहता ने सर उठा कर कहा, "कोशिश तो ऐसी ही कर रहा हूँ अन्नदाता।"
"मैं कोशिश नहीं चाहता, जिसमें नाकामी का पहलू भी शामिल है। क़तई वादा चाहता हूँ।" [...]

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