वक़ार महल का साया

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वक़ार महल की छतें गिर चुकी हैं लेकिन दीवारें जूं की तूं खड़ी हैं। जिन्हें तोड़ने के लिए बीसियों जवान मज़दूर कई एक साल से कुदाल चलाने में मसरूफ़ हैं।
वक़ार महल न्यू कॉलोनी के मर्कज़ में वाक़्य है न्यू कॉलोनी के किसी हिस्से से देखिए। खिड़की से सर निकालिए, रोशन दान से झांकिए। टियर्स से नज़र दोड़ाईए। हर सूरत में वक़ार महल सामने आ खड़ा होता है। मज़बूत, वीरान, बोझल, रोबदार, डरावना सर-बुलंद, खोखला। अज़ीम।

ऐसा मालूम होता है कि सारी न्यू कॉलोनी आसेब-ज़दा हो और वक़ार महल आसीब हो।
नौजवान देखते हैं तो दिलों में ग़ुस्सा उभरता है। न्यू कॉलोनी के चेहरे का फोड़ा। रिसती बस्ती कॉलोनी में आसारे-ए-क़दीमा। चेहरे नफ़रत से बिगड़ जाते हैं, हटाओ उसे। लेकिन वो महल से अपनी निगाहें हटा नहीं सकते। [...]

परवाज़ के बाद

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जैसे कहीं ख़्वाब में जिंजर राजर्ज़ या डायना डरबिन की आवाज़ में ‘सान फ्रेंडोवैली’ का नग़्मा गाया जा रहा हो और फिर एकदम से आँख खुल जाए, या’नी वो कुछ ऐसा सा था जैसे माईकल एंजलो ने एक तस्वीर को उकताकर यूँही छोड़ दिया होगा और ख़ुद किसी ज़्यादा दिलचस्प मॉडल की तरफ़ मुतवज्जेह हो गया हो, लेकिन फिर भी उसकी संजीदा सी हँसी कह रही थी कि भई मैं ऐसा हूँ कि दुनिया के सारे मुसव्विर और सारे संग-तराश अपनी पूरी कोशिश के बा-वजूद मुझ जैसा शाहकार नहीं बना सकते। चुपके-चुपके मुस्कुराए जाओ बे-वक़ूफ़ो! शायद तुम्हें बा’द में अफ़सोस करना पड़े।
ओ सीफ़ो... ओ साइकी... ओ हेलेन... ऐ हमारे नए रेफ्रीजरेटर...।

गर्मी ज़ियादा होती जा रही थी। पाम के पत्तों पर जो माली ने ऊपर से पानी गिराया था तो गर्द कहीं-कहीं से धुल गई थी और कहीं-कहीं उसी तरह बाक़ी थी। और भीगती हुई रात कोशिश कर रही थी कि कुछ रोमैंटिक सी बन जाए। वो बर्फ़ीली लड़की, जो हमेशा सफ़ेद ग़रारे और सफ़ेद दुपट्टे में अपने आपको सबसे बुलंद और अलग सा महसूस करवाने पर मजबूर करती थी, बहुत ख़ामोशी से हक्सले की एक बेहद लग़्व किताब ‘प्वाईंट काउंटर प्वाईंट’ पढ़े जा रही थी जिसके एक लफ़्ज़ का मतलब भी उसकी समझ में न ठुंस सका था।
वो लैम्प की सफ़ेद रौशनी में इतनी ज़र्द और ग़म-गीं नज़र आ रही थी जैसे उसके बरगंडी कुइटेक्स की सारी शीशियाँ फ़र्श पर गिर के टूट गई हों या उसके फ़ीडो को सख़्त ज़ुकाम हो गया हो... और लग रहा था जैसे एक छोटे से ग्लेशियर पर आफ़ताब की किरनें बिखर रही हैं। [...]

घास वाली

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(1)
मुलिया हरी हरी घास का गट्ठा लेकर लौटी तो उसका गेहुवाँ रंग कुछ सुर्ख़ हो गया था और बड़ी बड़ी मख़मूर आँखें कुछ सहमी हुईं थीं। महाबीर ने पूछा, क्या है मुलिया? आज कैसा जी है। मुलिया ने कुछ जवाब न दिया। उसकी आँखें डबडबा गईं और मुँह फेर लिया।

महाबीर ने क़रीब आकर पूछा, क्या हुआ है? बताती क्यों नहीं? किसी ने कुछ कहा है? अम्माँ ने डाँटा है? क्यों इतनी उदास है?
मुलिया ने सिसक कर कहा, कुछ नहीं, हुआ क्या है। अच्छी तो हूँ। [...]

छोकरी की लूट

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बचपन की बहुत सी बातों के अ'लावा प्रसादी राम को छोकरी की लूट की रस्म अच्छी तरह याद थी।
दो ब्याहे हुए भाइयों का सारी उम्र एक ही घर में रहना किसी क़दर मुश्किल होता है। ख़ुसूसन जबकि उनमें से एक तो सुब्ह-ओ-शाम घी शकर में मिला कर खाना पसंद करे और दूसरा अपनी क़ुबूल सूरत बीवी के सामने ऐसी छोटी-छोटी बातों के लिए कानों का कच्चा बने। लेकिन मोहल्ला शहसवानी टोला में प्रसादी के पिता चंबा राम और ताया ठंडी राम जगत गुरू अपने बाप दादा के मकान में इकट्ठे रहते आए थे। ये इकट्ठे रहने की वजह ही तो थी कि चंबा राम का कारोबार अच्छा चलता था और ठंडी राम को नौकरी से अच्छी ख़ासी आमदनी हो जाती थी। औरतों की गोदियाँ हरी थीं और सेहन को बरकत थी और वहाँ आम के एक बड़े दरख़्त के साथ खिरनी का एक ख़ूबसूरत सा पेड़ उग रहा था, जिसके पत्तों से खिचड़ी होती हुई ककरौंदे की बेल बाज़ार में छदामी की दुकान तक पहुंच गई थी और आस-पास के गाँवों से आए हुए लोगों को ठंडी-मीठी छाँव देती थी।

परमात्मा की करनी, प्रसादी की पैदाइश के डेढ़ दो साल बाद चंबा राम काल बस हो गए, मगर जगत गुरूजी ने भावज को बेटी कर के जाना और प्रसादी को अपना बेटा कर के पहचाना और ताई अम्माँ भी तो यूँ बुरी न थीं। असाढ़ी और सावनी के दो मौक़ों के सिवा जब कि बटवारा घर में आता, वो प्रसादी की अम्माँ के साथ ख़ंदा-पेशानी से पेश आतीं। कभी तो ये गुमान होने लगता जैसे दोनों माँ जाई बहनें हैं। इस इत्तिफ़ाक़ की वजह से सेहन की बरकत जूँ की तूँ रही। सेहन में चार-पाँच बरस से लेकर बीस इक्कीस बरस तक लड़कियाँ सहीले, बधाई, बछोड़े और देस-देस के गीत गातीं। चरखे काततीं और सूत की बड़ी बड़ी अंटियाँ मेंढियों की तरह गूँध कर बुनाई के लिए जोलाहे के हाँ भेज देतीं। कभी-कभी खुले मौसम में उनका रत-जगा होता तो सेहन में ख़ूब रौनक़ हो जाती। उस वक़्त तो प्रसादी से छोकरे को पिटारियों में से गुलगुले, मेवे, बादाम, बर्फ़ी वग़ैरा खाने के लिए मिल जाती।
प्रसादी की बहन रतनी... उसकी ताई की लड़की, उम्र में प्रसादी से ग्यारह-बारह बरस बड़ी थी। रतनी से उम्र के इस फ़र्क़ का प्रसादी को बहुत गिला था और गिला था भी बिल्कुल बजा। सच पूछो तो रतनी एक पल भी उसके साथ न खेलती थी। अलबत्ता सर्दियों में सोती ज़रूर थी और जब तक वो प्रसादी के साथ सो कर उसके बिस्तर को गर्म न कर देती, प्रसादी मचलता रहता। [...]

दो बहनें

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दो बहनें दो साल बाद एक तीसरे अज़ीज़ के घर मिलीं और ख़ूब रो धोकर ख़ामोश हुईं तो बड़ी बहन रूप कुमारी ने देखा कि छोटी बहन राम दुलारी सर से पांव तक गहनों से लदी हुई है। कुछ उसका रंग खिल गया। मिज़ाज में कुछ तमकनत आगई है और बातचीत करने में कुछ ज़्यादा मुश्ताक़ हो गई है। बेशक़ीमत साड़ी और बेलदार उन्नाबी मख़मल के जंपर ने उसके हुस्न को और भी चमका दिया है। वही राम दुलारी जो लड़कपन में सर के बाल खोले फूहड़ सी इधर उधर खेला करती थी। आख़िरी बार रूप कुमारी ने उसे उसकी शादी में देखा था दो साल क़ब्ल तक भी उसकी शक्ल व सूरत में कुछ ज़्यादा तग़य्युर न हुआ था। लंबी तो हो गई थी मगर थी उतनी ही दुबली। उतनी ही ज़र्द रु व उतनी ही बदतमीज़, ज़रा-ज़रा सी बात पर रूठने वाली। मगर आज तो कुछ हालत ही और थी। जैसे कली खिल गई हो। और हुस्न उसने कहाँ छिपा रखा था, नहीं नज़रों को धोका हो रहा है। ये हुस्न नहीं महज़ दीदा ज़ेबी है। रेशम मख़मल और सोने की बदौलत नक़्शा थोड़ा ही बदल जाएगा। फिर भी वो आँखों में समाई जाती है। पचासों औरतें जमा हैं। मगर ये सह्र, ये कशिश और किसी में नहीं। और उसके दिल में हसद का एक शोला सा दहक उठा।
कहीं आईना मिलता तो वो ज़रा अपनी सूरत भी देखती। घर से चलते वक़्त उसने अपनी सूरत देखी थी। उसे चमकाने के लिए जितना सैक़ल कर सकती थी वो किया था लेकिन अब वो सूरत जैसे याददाश्त से मिट गई है। उसकी महज़ एक धुँदली सी परछाईं ज़ह्न में है उसे फिर से देखने के लिए वो बेक़रार हो रही है। यूं तो उसके साथ मेक-अप के लवाज़मात के साथ आईना भी है लेकिन मजमें में वो आईना देखने या बनाव सिंघार करने की आदी नहीं है। ये औरतें दिल में ख़ुदा जाने क्या समझें। यहां कोई आईना तो होगा ही।

ड्राइंगरूम में तो ज़रूर होगा। वो उठकर ड्राइंगरूम में गई और क़द-ए-आदम शीशा में अपनी सूरत देखी, उसके ख़द्द-ओ-ख़ाल बे ऐब हैं। मगर वो ताज़गी वो शगुफ़्तगी वो नज़र फ़रेबी नहीं है। राम दुलारी आज खुली है और उसे खुले हुए ज़माना हो गया लेकिन इस ख़याल से उसे तस्कीन नहीं हुई। वो राम दुलारी से हेटी बन कर नहीं रह सकती। ये मर्द भी कितने अहमक़ होते हैं किसी में असली हुस्न की परख नहीं। उन्हें तो जवानी ,शोख़ी और नफ़ासत चाहिए। आँखें रखकर भी अंधे बनते हैं। मेरे कपड़ों में राम दुलारी को खड़ा कर दो। फिर देखो। ये सारा जादू कहाँ उड़गया है। चुड़ैल सी नज़र आए। इन अहमक़ों को कौन समझाए।
राम दुलारी के घर वाले तो इतने ख़ुशहाल न थे। शादी में जो जोड़े और ज़ेवर आए थे वो बहुत ही दिल-शिकन थे। इमारत का कोई दूसरा सामान ही न था। उसके सुसर एक रियासत के मुख़्तार-ए-आम थे और शौहर कॉलेज में पढ़ता था। इस दो साल में कैसे हुन बरस गया। कौन जाने ज़ेवर किसी से मांग कर लाई हो। कपड़े भी दो-चार दिन के लिए मांग लिए हों। उसे ये स्वाँग मुबारक रहे। मैं जैसी हूँ वैसी ही अच्छी हूँ। अपनी हैसियत को बढ़ा कर दिखाने का मर्ज़ कितना बढ़ता जाता है। घर में रोटियों का ठिकाना नहीं है। लेकिन इस तरह बन-ठन कर निकलेंगी गोया कहीं कि राजकुमारी हैं। बिसातियों के दर्ज़ियों के और बज़्ज़ाज़ के तक़ाज़े सहेंगी शौहर की घुड़कियां खाएँगी, रोएँगी, रूठेंगी। मगर नुमाइश के जुनून को नहीं रोक सकीं। घर वाले भी सोचते होंगे कितनी छिछोरी तबीयत है इसकी मगर यहां तो बे-हयाई पर कमर बांध ली। कोई कितना ही हँसे बे-हया की बला दूर। बस यही धुन सवार है कि जिधर से निकल जाएं उधर उसकी ख़ूब तारीफ़ें की जाएं। राम दुलारी ने ज़रूर किसी से ज़ेवर और कपड़े मांग लिए हैं। बेशर्म जो है। उसके चेहरे पर ग़ुरूर की सुर्ख़ी झलक पड़ी। ना सही उस के पास ज़ेवर और कपड़े किसी के सामने शर्मिंदा तो नहीं होना पड़ता। एक एक लाख के तो उसके दो लड़के हैं। भगवान उन्हें ज़िंदा सलामत रखे। वो इसी में ख़ुश है। ख़ुद अच्छा पहन लेने और अच्छा खा लेने ही से तो ज़िंदगी का मक़सद पूरा नहीं हो जाता। उसके घर वाले ग़रीब हैं पर इज़्ज़त तो है किसी का गला तो नहीं दबाते। किसी की बद-दुआ तो नहीं लेते। [...]

बूढ़ी काकी

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बुढ़ापा अक्सर बचपन का दौर-ए-सानी हुआ करता है। बूढ़ी काकी में ज़ायक़ा के सिवा कोई हिस बाक़ी न थी और न अपनी शिकायतों की तरफ़ मुख़ातिब करने का, रोने के सिवा कोई दूसरा ज़रिया आँखें हाथ, पैर सब जवाब दे चुके थे। ज़मीन पर पड़ी रहतीं और जब घर वाले कोई बात उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ करते, खाने का वक़्त टल जाता या मिक़दार काफ़ी न होती या बाज़ार से कोई चीज़ आती और उन्हें न मिलती तो रोने लगती थीं और उनका रोना महज़ बिसूरना न था। वो ब-आवाज़ बुलंद रोती थीं। उनके शौहर को मरे हुए एक ज़माना गुज़र गया। सात बेटे जवान हो हो कर दाग़ दे गए और अब एक भतीजे के सिवा दुनिया में उनका और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने सारी जायदाद लिख दी थी। उन हज़रात ने लिखाते वक़्त तो ख़ूब लंबे चौड़े वादे किए लेकिन वो वादे सिर्फ़ कलबी डिपो के दलालों के सब्ज़-बाग़ थे। अगरचे उस जायदाद की सालाना आमदनी डेढ़ दो सौ रुपये से कम न थी लेकिन बूढ़ी काकी को अब पेट भर रूखा दाना भी मुश्किल से मिलता था। बुध राम तबीयत के नेक आदमी थे लेकिन उसी वक़्त तक कि उनकी जेब पर कोई आँच न आए, रूपा तबीयत की तेज़ थी लेकिन ईश्वर से डरती थी, इसलिए बूढ़ी काकी पर उसकी तेज़ी इतनी न खुलती थी जितनी बुध राम की नेकी।
बुध राम को कभी कभी अपनी बे-इंसाफ़ी का एहसास होता। वो सोचते कि इस जायदाद की बदौलत में इस वक़्त भला आदमी बना बैठा हूँ और अगर ज़बान तस्कीन या तशफ्फी से सूरत-ए-हाल में कुछ इस्लाह हो सकती तो उन्हें मुतलक़ दरेग़ न होता लेकिन मज़ीद ख़र्च का ख़ौफ़ उनकी नेकी को दबाए रखता था। उसके बरअक्स अगर दरवाज़े पर कोई भलामानस बैठा होता और बूढ़ी काकी अपना नग़्मा-ए-बे-हंगाम शुरू कर देतीं तो वो आग हो जाते थे और घर में आकर उन्हें ज़ोर से डाँटते थे। लड़के जिन्हें बुड्ढों से एक बुग़्ज़ अल्लाह होता है, वालदैन का ये रंग देखकर बूढ़ी काकी को और भी दिक़ करते। कोई चुटकी लेकर भागता, कोई उन पर पानी की कुल्ली कर देता। काकी चीख़ मार कर रोतीं। लेकिन ये तो मशहूर ही था कि वो सिर्फ़ खाने के लिए रोती हैं। इसलिए कोई उनके नाला-ओ-फ़र्याद पर ध्यान न देता था। वहां अगर काकी कभी गु़स्से में आकर लड़कों को गालियां देने लगतीं तो रूपा मौक़ा-ए-वारदात पर ज़रूर जाती। इस ख़ौफ़ से काकी अपनी शमशीर ज़बानी का शाज़ ही कभी इस्तेमाल करती थीं। हालाँकि रफ़ा शर की ये तदबीर रोने से ज़्यादा कारगर थी।

सारे घर में अगर किसी को काकी से मुहब्बत थी तो वो बुध राम की छोटी लड़की लाडली थी। लाडली अपने दोनों भाइयों के ख़ौफ़ से अपने हिस्से की मिठाई या चबेना बूढ़ी काकी के पास बैठ कर खाया करती थी यही उसका मलजा था और अगरचे काकी की पनाह उनकी मुआनिदाना सरगर्मी के बाइस बहुत गिरां पड़ती थी लेकिन भाइयों के दस्त-ए-ततावुल से बदर जहॉ क़ाबिल-ए-तर्जीह थी इस मुनासिब अग़राज़ ने इन दोनों में मुहब्बत और हमदर्दी पैदा कर दी थी।
रात का वक़्त था। बुध राम के दरवाज़े पर शहनाई बज रही थी और गांव के बच्चों का जम-ए-ग़फ़ीर निगाह हैरत से गाने की दाद दे रहा था, चारपाइयों पर मेहमान लेटे हुए नाइयों से टिकियां लगवा रहे थे, क़रीब ही एक भाट खड़ा कबित सुना रहा था और बा'ज़ सुख़न-फ़हम मेहमान की वाह वाह से ऐसा ख़ुश होता था गोया वही इस दाद का मुस्तहक़ है दो एक अंग्रेज़ी पढ़े हुए नौजवान उन बेहूदगियों से बेज़ार थे। वो इस दहक़ानी मजलिस में बोलना या शरीक होना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते। आज बुध राम के बड़े लड़के सुख राम का तिलक आया है। ये उसी का जश्न है, घर में मस्तूरात गा रही थीं और रूपा मेहमानों की दावत का सामान करने में मसरूफ़ थी, भट्टियों पर कड़ाह चढ़े हुए थे। एक में पूरियां-कचौरियां निकल रही थीं दूसरे में समोसे और पीड़ा केन बनती थीं। एक बड़े हण्डे में मसालेदार तरकारी पक रही थी। घी और मसालहे की इश्तिहा अंगेज़ ख़ुशबू चारों तरफ़ फैली हुई थी। [...]

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