मुझे एक मुद्दत से समरद के खंडर देखने का इश्तियाक़ था। इत्तिफ़ाक़ से एक दिन बातों-बातों में मैंने अपने शौक़ का ज़िक्र बूढ़े डाक्टर गार से किया। वो सुनते ही बोले, “इतना इश्तियाक़ है तो बेटी वहाँ की सैर को जाती क्यों नहीं? तुम्हारे क़याम का इंतिज़ाम मैं किए देता हूँ। मादाम हुमरा दिली ख़ुशी से तुम्हें अपना मेहमान बनाएँगी। कहो तो आज ही उन्हें ख़त लिख दूँ?” “मादाम हुमरा कौन हैं?”, मैंने सवाल किया। बूढ़े डाक्टर गार ने नस्वार की डिबिया पतलून की जेब से निकाली और उस पर उंगली मारते हुए बोला, “तुम मादाम हुमरा को नहीं जानतीं रूही? दो साल हुए ये ख़ातून समरद से कोई चालीस मील के फ़ासले पर कार के हादिसे में बुरी तरह ज़ख़्मी हो गई थीं। इत्तिफ़ाक़ की बात, उसी ज़माने में हमारी पार्टी शिकार की ग़रज़ से निकली हुई थी। खे़मे क़रीब ही लगे। रात का वक़्त था। शहर दूर था। एक मैं ही वहाँ डाक्टर था। अल्लाह ने वक़्त पर मुझे तौफ़ीक़ दी और मैं उस बेचारी ख़ातून को अपने खे़मे में उठा लाया। चोटें सख़्त आई थीं मगर चार दिन की तीमार-दारी और इ’लाज ने ख़तरे से बाहर कर दिया और मैंने उन्हें अपनी कार में बिठा कर उनके घर पहुँचा दिया। वो दिन और आज का दिन, हमेशा उनका इसरार रहा कि मैं कुछ दिन को उनके हाँ जाऊँ और उनका मेहमान रहूँ मगर बा-वजूद उस बेचारी की शदीद इसरार के मैं उधर अब तक न जा सका। न खंडरों की सैर के लिए वक़्त निकाल सका। बीमारी की ख़िदमत से जो वक़्त बचता है वो मुताले’ की नज़्र हो जाता है। अब ये मौक़ा’ अच्छा पैदा हो गया। अपनी बजाए मैं तुम्हें भेज दूँगा। उन्हें ख़ुशी होगी, तुम्हारी ज़रूरत पूरी हो जाएगी।”
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