हामिद का बच्चा

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लाहौर से बाबू हरगोपाल आए तो हामिद घर का रहा न घाट का। उन्होंने आते ही हामिद से कहा, “लो, भई फ़ौरन एक टैक्सी का बंदोबस्त करो।”
हामिद ने कहा, “आप ज़रा तो आराम कर लीजिए। इतना लंबा सफ़र तय करके यहां आए हैं। थकावट होगी।”

बाबू हरगोपाल अपनी धुन के पक्के थे, “नहीं भाई मुझे थकावट-वकावट कुछ नहीं। मैं यहां सैर की ग़रज़ से आया हूँ। आराम करने नहीं आया। बड़ी मुश्किल से दस दिन निकाले हैं। ये दस दिन तुम मेरे हो। जो मैं कहूंगा तुम्हें मानना होगा। मैं अब के अय्याशी की इंतिहा करदेना चाहता हूँ... सोडा मँगवाओ।”
हामिद ने बहुत मना किया कि देखिए बाबू हरगोपाल सुबह-सवेरे मत शुरू कीजिए मगर वो न माने। बक्स खोल कर जॉनी वॉकर की बोतल निकाली और उसे खोलना शुरू कर दिया। [...]

मेहमान-दारी

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मुझे एक मुद्दत से समरद के खंडर देखने का इश्तियाक़ था। इत्तिफ़ाक़ से एक दिन बातों-बातों में मैंने अपने शौक़ का ज़िक्र बूढ़े डाक्टर गार से किया। वो सुनते ही बोले, “इतना इश्तियाक़ है तो बेटी वहाँ की सैर को जाती क्यों नहीं? तुम्हारे क़याम का इंतिज़ाम मैं किए देता हूँ। मादाम हुमरा दिली ख़ुशी से तुम्हें अपना मेहमान बनाएँगी। कहो तो आज ही उन्हें ख़त लिख दूँ?”
“मादाम हुमरा कौन हैं?”, मैंने सवाल किया।

बूढ़े डाक्टर गार ने नस्वार की डिबिया पतलून की जेब से निकाली और उस पर उंगली मारते हुए बोला, “तुम मादाम हुमरा को नहीं जानतीं रूही? दो साल हुए ये ख़ातून समरद से कोई चालीस मील के फ़ासले पर कार के हादिसे में बुरी तरह ज़ख़्मी हो गई थीं। इत्तिफ़ाक़ की बात, उसी ज़माने में हमारी पार्टी शिकार की ग़रज़ से निकली हुई थी। खे़मे क़रीब ही लगे। रात का वक़्त था। शहर दूर था। एक मैं ही वहाँ डाक्टर था। अल्लाह ने वक़्त पर मुझे तौफ़ीक़ दी और मैं उस बेचारी ख़ातून को अपने खे़मे में उठा लाया। चोटें सख़्त आई थीं मगर चार दिन की तीमार-दारी और इ’लाज ने ख़तरे से बाहर कर दिया और मैंने उन्हें अपनी कार में बिठा कर उनके घर पहुँचा दिया।
वो दिन और आज का दिन, हमेशा उनका इसरार रहा कि मैं कुछ दिन को उनके हाँ जाऊँ और उनका मेहमान रहूँ मगर बा-वजूद उस बेचारी की शदीद इसरार के मैं उधर अब तक न जा सका। न खंडरों की सैर के लिए वक़्त निकाल सका। बीमारी की ख़िदमत से जो वक़्त बचता है वो मुताले’ की नज़्र हो जाता है। अब ये मौक़ा’ अच्छा पैदा हो गया। अपनी बजाए मैं तुम्हें भेज दूँगा। उन्हें ख़ुशी होगी, तुम्हारी ज़रूरत पूरी हो जाएगी।” [...]

ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे

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ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यों होती है? मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिनको आमतौर पर शादी से कोई दिलचस्पी नहीं होती।
यूं तो इस क़िस्म के मर्द उमूमन सनकी और अजीब-ओ-ग़रीब आदात के मालिक होते हैं, लेकिन ये बात समझ में नहीं आती कि उन्हें ख़ाली बोतलों और डिब्बों से क्यों इतना प्यार होता है...? परिंदे और जानवर अक्सर उन लोगों के पालतू होते हैं। ये मैलान समझ में आ सकता है कि तन्हाई में उनका कोई तो मूनिस होना चाहिए, लेकिन ख़ाली बोतलें और ख़ाली डिब्बे उन की क्या ग़मगुसारी कर सकते हैं?

सनक और अजीब-ओ-ग़रीब आदात का जवाज़ ढूंढना कोई मुश्किल नहीं कि फ़ितरत की ख़िलाफ़वरज़ी ऐसे बिगाड़ पैदा कर सकती है, लेकिन उसकी नफ़सियाती बारीकियों में जाना अलबत्ता बहुत मुश्किल है।
मेरे एक अज़ीज़ हैं। उम्र आपकी इस वक़्त पचास के क़रीब क़रीब है। आपको कबूतर और कुत्ते पालने का शौक़ है और इसमें कोई अजीब-ओ-ग़रीब-पन नहीं लेकिन आपको ये मरज़ है कि बाज़ार से हर रोज़ दूध की बालाई ख़रीद कर लाते हैं। चूल्हे पर रख कर उसका रोग़न निकालते हैं और उस रोग़न में अपने लिए अलाहिदा सालन तैयार करते हैं। उनका ख़याल है कि इस तरह ख़ालिस घी तैयार होता है। [...]

लालटेन

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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये न भूलेगी... क्या दिन थे! बार-बार मेरे दिल की गहराईयों से ये आवाज़ बलंद होती है और मैं कई कई घंटे इसके ज़ेर-ए-असर बेखु़द-ओ-मदहोश रहता हूँ। किसी ने ठीक कहा है कि इंसान अपनी गुज़श्ता ज़िंदगी के खंडरों पर मुस्तक़बिल की दीवारें उस्तुवार करता है। इन दिनों मैं भी यही कर रहा हूँ या’नी बीते हुए अय्याम की याद को अपनी मुज़्महिल रगों में ज़िंदगी बख़्श इंजेक्शन के तौर पर इस्तेमाल कर रहा हूँ।
जो कल हुआ था उसे अगर आज देखा जाये तो उसके और हमारे दरमियान सदियों का फ़ासला नज़र आएगा और जो कल होना ही है उसके मुतअ’ल्लिक़ हम कुछ नहीं जानते और न जान सकते हैं। आज से पूरे चार महीने की तरफ़ देखा जाये तो बटोत में मेरी ज़िंदगी एक अफ़साना मालूम होती है। ऐसा अफ़साना जिसका मसविदा साफ़ न किया गया हो।

इस खोई हुई चीज़ को हासिल करना दूसरे इंसानों की तरह मेरे बस में भी नहीं। जब में इस्तक़बाल के आईना में अपनी आने वाली ज़िंदगी का अ’क्स देखना चाहता हूँ तो इसमें मुझे हाल ही की तस्वीर नज़र आती है और कभी कभी इस तस्वीर के पस-ए-मंज़र में माज़ी के धुँदले नुक़ूश नज़र आ जाते हैं। इनमें बा’ज़ नक़्श इस क़दर तीखे और शोख़ रंग हैं कि शायद ही उन्हें ज़माने का हाथ मुकम्मल तौर पर मिटा सके।
ज़िंदगी के इस खोए हुए टुकड़े को मैं इस वक़्त ज़माने के हाथ में देख रहा हूँ जो शरीर बच्चे की तरह मुझे बार बार उसकी झलक दिखा कर अपनी पीठ पीछे छुपा लेता है... और मैं इस खेल ही से ख़ुश हूँ। इसी को ग़नीमत समझता हूँ। [...]

पाँच दिन

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जम्मू तवी के रास्ते कश्मीर जाइए तो कुद के आगे एक छोटा सा पहाड़ी गांव बटोत आता है। बड़ी पुरफ़िज़ा जगह है। यहां दिक़ के मरीज़ों के लिए एक छोटा सा सिनेटोरियम है। यूं तो आज से आठ नौ बरस पहले बटोत में पूरे तीन महीने गुज़ार चुका हूँ, और इस सेहत अफ़ज़ा मुक़ाम से मेरी जवानी का एक नापुख़्ता रुमान भी वाबस्ता है मगर इस कहानी से मेरी किसी भी कमज़ोरी का तअ’ल्लुक़ नहीं।
छः सात महीने हुए मुझे बटोत में अपने एक दोस्त की बीवी को देखने के लिए जाना पड़ा जो वहां सिनेटोरियम में ज़िंदगी के आख़िरी सांस ले रही थी। मेरे वहां पहुंचते ही एक मरीज़ चल बसा और बेचारी पदमा के सांस जो पहले ही उखड़े हुए थे और भी ग़ैर यक़ीनी होगए। मैं नहीं कह सकता वजह क्या थी लेकिन मेरा ख़याल है कि महज़ इत्तफ़ाक़ था कि चार रोज़ के अंदर अंदर इस छोटे से सिनेटोरियम में तीन मरीज़ ऊपर तले मर गए।

जूंही कोई बिस्तर ख़ाली होता या तीमारदारी करते करते थके हुए इंसानों की थकी हुई चीख़ पुकार सुनाई देती, सारे सिनेटोरियम पर एक अजीब क़िस्म की ख़ाकसतरी उदासी छा जाती और वो मरीज़ जो उम्मीद के पतले धागे के साथ चिमटे होते थे, यास की अथाह गहराइयों में डूब जाते।
मेरे दोस्त की बीवी पदमा तो बिल्कुल दमबख़ुद हो जाती। उसके पतले होंटों पर मौत की ज़रदियाँ काँपने लगतीं और उसकी गहरी आँखों में एक निहायत ही रहम अंगेज़ इस्तफ़सार पैदा हो जाता। सब से आगे एक ख़ौफ़ज़दा “क्यों?” और उसके पीछे बहुत से डरपोक “नहीं।” [...]

वो ख़त जो पोस्ट न किये गए

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हव्वा की एक बेटी के चंद ख़ुतूत जो उसने फ़ुर्सत के वक़्त मुहल्ले के चंद लोगों को लिखे। मगर इन वजूह की बिना पर पोस्ट न किए गए जो उन ख़ुतूत में नुमायां नज़र आती हैं।
(नाम और मक़ाम फ़र्ज़ी हैं)

पहला ख़त... मिसेज़ कृपलानी के नाम
खातून-ए-मुकर्रम, [...]

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