ख़त और उसका जवाब

Shayari By

मंटो भाई !
तस्लीमात! मेरा नाम आपके लिए बिल्कुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ और मैं समझती हूँ कि इस कोशिश में कामयाब हूँ।

मैं और अच्छे अदीबों के साथ आपके अफ़साने भी बड़ी दिलचस्पी से पढ़ती हूँ। आपसे मुझे हर बार नए मौज़ू की उम्मीद रही और आपने दर-हक़ीक़त हर बार नया मौज़ू पेश किया। लेकिन जो मौज़ू मेरे ज़ेहन में है वो कोई अफ़सानानिगार पेश न कर सका। यहां तक कि सआदत हसन मंटो भी जो नफ़्सियात और जिन्सियात का इमाम तस्लीम किया जाता है।
हो सकता है वो मौज़ू आप की कहानियों के मौज़ूआ’त की क़ितार में हो और किसी वक़्त भी आप उसे अपनी कहानी के लिए मुंतख़ब करलें। लेकिन फिर सोचती हूँ कि हो सकता है, सआदत हसन मंटो ऐसा बेरहम अफ़सानानिगार भी इस मौज़ू से चश्म-पोशी कर जाये। इसलिए कि इस मौज़ू को नंगा करने से सारी क़ौम नंगी होती है और शायद मंटो क़ौम को नंगा देख नहीं सकता। [...]

सिर्फ़ एक आवाज़

Shayari By

सुब्ह का वक़्त था। ठाकुर दर्शन सिंह के घर में एक हंगामा बरपा था। आज रात को चन्द्र गरहन होने वाला था। ठाकुर साहब अपनी बूढ़ी ठकुराइन के साथ गंगा जी जाते थे। इसलिए सारा घर उनकी पुरशोर तैयारी में मसरूफ़ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुरता टांक रही थी। दूसरी बहू उनकी पगड़ी लिए सोचती थी कि क्यूँकर इसकी मरम्मत करूँ। दोनों लड़कियां नाशता तैयार करने में मह्व थीं जो ज़्यादा दिलचस्प काम था, और बच्चों ने अपनी आदत के मुवाफ़िक़ एक कोहराम मच रखा था। क्यों कि हर एक आने-जाने के मौक़े पर उनका जोश गिरिया-ए-उमंग पर होता था, जाने के वक़्त साथ जाने के लिए रोते। आने के वक़्त इसलिए रोते कि शीरीनी की तक़्सीम ख़ातिर-ख़्वाह नहीं हुई। बूढ़ी ठकुराइन बच्चों को फुसलाती थीं और बीच बीच में अपनी बहुओं को समझाती थीं, देखो ख़बरदार जब तक आगरा न हो जाएगी घर से बाहर न निकलना। हंसिया, छुरी, कुल्हाड़ी हाथ से मत छूना, समझाए देती हूँ। मानना चाहे न मानना। तुम्हें मेरी बात की कौन परवाह है, मुँह में पानी की बूँद न पड़े। नारायण के घर बिपत पड़ी है जो साधू-भिकारी दरवाज़े पर आजाए, उसे फेरना मत। बहुओं ने सुना और नहीं सुना। वो मना रही थीं कि किसी तरह यहां से टलें। फागुन का महीना है। गाने को तरस गए, आज ख़ूब गाना बजाना होगा।
ठाकुर साहब थे तो बूढ़े। लेकिन ज़ोफ़ का असर दिल तक नहीं पहुंचा था। उन्हें इस बात का घमंड था कि कोई गहन बग़ैर गंगा अश्नान के नहीं छूटा। उनकी इल्मी क़ाबिलिय्यत हैरत अंगेज़ थी। सिर्फ़ पत्रों को देखकर महीनों पहले सूरज गरहन और दूसरी तक़रीबों के दिन बता देते थे। इसलिए गांव वालों की निगाह में उनकी इज़्ज़त अगर पंडितों से ज़्यादा न थी तो कम भी न थी जवानी में कुछ दिनों फ़ौजी मुलाज़िमत भी की थी। उसकी गर्मी अब तक बाक़ी थी। मजाल न थी कि कोई उनकी तरफ़ तीखी आँख से देख सके। एक मज़कूरी चपरासी को ऐसी इल्मी तंबीह की थी जिसकी नज़ीर क़ुर्ब-ओ-जवार के दस पाँच गांव में भी नहीं मिल सकती। हिम्मत और हौसले के कामों में अब भी पेशक़दमी कर जाते थे, किसी काम को मुश्किल बना देना, उनकी हिम्मत को तहरीक देता था। जहां सबकी ज़बानें बंद हो जाएं वहां वो शेरों की तरह गरजते थे। जब खूबी गांव में दारोगा जी तशरीफ़ लाते तो ठाकुर साहब ही का दिल गुर्दा था कि उनसे आँखें मिला कर दू-ब-दू बात कर सकें। आलिमाना मुबाहिसे के मैदान में भी उनके कारनामे कुछ कम न थे। झगड़ालू पण्डित हमेशा उनसे मुँह छुपाया करते थे। ग़रज़ ठाकुर साहब की जिबिल्ली रऊनत और एतिमाद-ओ-नफ़्स उन्हें हर बात में दूल्हा बनने पर मजबूर कर देती थी। हाँ कमज़ोरी इतनी थी कि अपनी आल्हा भी आप ही गा लेते और मज़े ले-ले कर क्योंकि तस्नीफ़ को मुसन्निफ़ ही ख़ूब बयान करता है।

जब दोपहर होते होते ठाकुर और ठकुराइन गांव से चले तो सैंकड़ों आदमी उनके साथ थे और पुख़्ता सड़क पर पहुंचे तो जात्रियों का ऐसा ताँता लगा हुआ था गोया कोई बाज़ार है। ऐसे ऐसे बूढ़े लाठियां टेकते या डोलियों पर सवार चले जाते थे। जिन्हें तकलीफ़ देने की मल्कु-उल-मौत ने भी कोई ज़रूरत न समझी थी। अंधे दूसरों की लकड़ी के सहारे क़दम बढ़ाए आते थे। बाज़ आदमियों ने अपनी बूढ़ी माताओं को पीठ पर लाद लिया था। किसी के सर पर कपड़ों का बुक़चा, किसी के कंधे पर लोटा, डोर किसी के पर, और कितने ही आदमियों ने पैरों पर चीथड़े लपेट लिए थे। जूते कहाँ से लाएंगे। मगर मज़हबी जोश की ये बरकत थी कि मन किसी का मैला न था। सब के चेहरे शगुफ़्ता, हंसते बातें करते सरगर्म रफ़्तार से कुछ औरतें गा रही थीं।
चांद सूरज दोनों के मालिक एक दिना उन्हों पर बनती [...]

ख़लाई दौर की मुहब्बत

Shayari By

अपना ख़लाई सूट पहने आँखों और कानों पर ख़ौल चढ़ाए ख़लाई दौर में अपनी चमकदार और ख़ूबसूरत आँखों से वो ख़ला के कितने ही सय्यारे देख चुकी थी। हर रंग के आसमान हर रंग की ज़मीन और हर रंग के हज़ार रूप।
उसे ज़मीन से दूर ख़लाई मर्कज़ में रहते हुए दस साल बीत गए थे। ज़मीन मेरी प्यारी ज़मीन उसे हर सय्यारे से अपनी ज़मीन प्यारी लगती। वो ज़मीन की तरफ़ हाथ कर के अपने होंटों से अपनी उँगलियाँ चूम लेती और उसका ये उड़ता हुआ बोसा ज़मीन को उसके पास ले आता। उसे ये महसूस होता कि वो अपने नन्हे से ख़ूबसूरत कुंबे में मौजूद है।

उसका बाप अपने कमरे में बैठा बटन दबाकर ज़मीन पर हल चला रहा है और ख़ुद-कार मशीनों से घास के गट्ठे इकट्ठे हो जाते हैं। उसकी माँ अभी तक अपने हाथ से खाना पकाना पसंद करती है, इसलिए बावर्ची-ख़ाने में है। माँ के हाथ का बनाया हुआ ख़ुशबूदार सूप उसे ख़ला में उड़ते हुए भी अक्सर याद आता। मगर इन दस सालों से वो सिर्फ़ चार रंग-बिरंगी गोलियों को ख़ुराक के तौर पर इस्तिमाल करती थी। उनमें से हर गोली में इतनी ग़िजाइयत थी कि उसे सारे दिन में बस तीन गोलियाँ लेनी पड़ती थीं। पानी उसके पास मौजूद होता था। ख़लाई जहाज़ में पानी की कमी न थी।
उसने दस साल की उ'म्र में ख़लाई ट्रेनिंग लेना शुरू’ की थी और अब तक वो हर क़िस्म के कैप्सूलों और ख़लाई रेलों और जहाज़ों में सफ़र कर चुकी थी। वो अपनी फुर्ती और समझदारी की वज्ह से ख़ला के अहम-तरीन मिशन में शामिल होती थी। मुख़्तलिफ़ सय्यारों के दरमियान भाई-चारे और ख़ैर-सिगाली को फ़रोग़ देने वालों में उसका नाम अहम था। कभी-कभी उसका जी चाहता था कि ख़लाई जहाज़ और ख़लाई स्टेशन और सय्यारों से दूर अपनी ज़मीन पर जाकर वो पूरा एक दिन गुज़ारे। कम-अज़-कम एक दिन की छुट्टी मिले तो वो ज़मीन पर जाए। [...]

स्वराज के लिए

Shayari By

मुझे सन् याद नहीं रहा लेकिन वही दिन थे। जब अमृतसर में हर तरफ़ “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” के नारे गूंजते थे। उन नारों में, मुझे अच्छी तरह याद है, एक अ’जीब क़िस्म का जोश था... एक जवानी... एक अ’जीब क़िस्म की जवानी। बिल्कुल अमृतसर की गुजरियों की सी जो सर पर ऊपलों के टोकरे उठाए बाज़ारों को जैसे काटती हुई चलती हैं... ख़ूब दिन थे। फ़िज़ा में जो जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे का उदास ख़ौफ़ समोया रहता था। उस वक़्त बिल्कुल मफ़क़ूद था। अब उसकी जगह एक बेख़ौफ तड़प ने ले ली थी। एक अंधाधुंद जस्त ने जो अपनी मंज़िल से नावाक़िफ़ थी।
लोग नारे लगाते थे, जलूस निकालते थे और सैंकड़ों की ता’दाद में धड़ाधड़ क़ैद हो रहे थे। गिरफ़्तार होना एक दिलचस्प शग़ल बिन गया था। सुबह क़ैद हुए, शाम छोड़ दिए गए। मुक़द्दमा चला, चंद महीनों की क़ैद हुई, वापस आए, एक नारा लगाया, फिर क़ैद हो गए।

ज़िंदगी से भरपूर दिन थे। एक नन्हा सा बुलबुला फटने पर भी एक बहुत बड़ा भंवर बन जाता था। किसी ने चौक में खड़े हो कर तक़रीर की और कहा, हड़ताल होनी चाहिए, चलिए जी हड़ताल हो गई... एक लहर उठी कि हर शख़्स को खादी पहननी चाहिए ताकि लंका शाइर के सारे कारख़ाने बंद हो जाएं... बिदेशी कपड़ों का बायकॉट शुरू हो गया और हर चौक में अलाव जलने लगे। लोग जोश में आकर खड़े खड़े वहीं कपड़े उतारते और अलाव में फेंकते जाते, कोई औरत अपने मकान के शहनशीन से अपनी नापसंदीदा साड़ी उछालती तो हुजूम तालियां पीट पीट कर अपने हाथ लाल कर लेता।
मुझे याद है कोतवाली के सामने टाउन हाल के पास एक अलाव जल रहा था... शेख़ू ने जो मेरा हम-जमाअ’त था, जोश में आकर अपना रेशमी कोट उतारा और बिदेशी कपड़ों की चिता में डाल दिया। तालियों का समुंदर बहने लगा क्योंकि शेख़ू एक बहुत बड़े “टोडी बच्चे” का लड़का था। उस ग़रीब का जोश और भी ज़्यादा बढ़ गया। अपनी बोस्की की क़मीज़ उतार वो भी शो’लों की नज़र करदी, लेकिन बाद में ख़याल आया कि उसके साथ सोने के बटन थे। [...]

ख़त और उसका जवाब

Shayari By

मंटो भाई !
तस्लीमात! मेरा नाम आपके लिए बिल्कुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ और मैं समझती हूँ कि इस कोशिश में कामयाब हूँ।

मैं और अच्छे अदीबों के साथ आपके अफ़साने भी बड़ी दिलचस्पी से पढ़ती हूँ। आपसे मुझे हर बार नए मौज़ू की उम्मीद रही और आपने दर-हक़ीक़त हर बार नया मौज़ू पेश किया। लेकिन जो मौज़ू मेरे ज़ेहन में है वो कोई अफ़सानानिगार पेश न कर सका। यहां तक कि सआदत हसन मंटो भी जो नफ़्सियात और जिन्सियात का इमाम तस्लीम किया जाता है।
हो सकता है वो मौज़ू आप की कहानियों के मौज़ूआ’त की क़ितार में हो और किसी वक़्त भी आप उसे अपनी कहानी के लिए मुंतख़ब करलें। लेकिन फिर सोचती हूँ कि हो सकता है, सआदत हसन मंटो ऐसा बेरहम अफ़सानानिगार भी इस मौज़ू से चश्म-पोशी कर जाये। इसलिए कि इस मौज़ू को नंगा करने से सारी क़ौम नंगी होती है और शायद मंटो क़ौम को नंगा देख नहीं सकता। [...]

बी-ज़मानी बेगम

Shayari By

ज़मीन शक़ हो रही है। आसमान काँप रहा है। हर तरफ़ धुआँ ही धुआँ है। आग के शोलों में दुनिया उबल रही है। ज़लज़ले पर ज़लज़ले आ रहे हैं। ये क्या हो रहा है?
“तुम्हें मालूम नहीं?”

“नहीं तो।”
“लो सुनो… दुनिया भर को मालूम है।” [...]

Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close