प्रेम कहानी

Shayari By

मैं आज उस वाक़िए’ का हाल सुनाता हूँ। तुम शायद ये कहो कि मैं अपने आपको धोका दे रहा हूँ। लेकिन तुमने कभी इस बात का तो मुशाहिदा किया होगा कि वो शख़्स जो ज़िंदगी से मुहब्बत करता है कभी-कभी ऐसी हरकतें भी कर बैठता है जिनसे सर्द-मेहरी और ज़िंदगी से नफ़रत टपकती है।
इसकी वज्ह ये है कि उसको ज़िंदगी ने कुछ ऐसी ईज़ा पहुँचाई है कि वो ज़िंदगी की ख़्वाहिश को घोंट कर उससे दूर भागने लगता है और अपने गोशा-ए-आफ़ियत में उसकी राहों को भूल जाता है। लेकिन उसकी मुहब्बत कभी मर नहीं सकती और उसकी आग ख़्वाबों के खंडरात की तह में अंदर ही सुलगती रहती है।

चूँकि ख़्वाबों की दुनिया में रहने की वज्ह से वो ज़िंदगी से बे-बहरा हो जाता है, इसलिए अपनी मंज़िल-ए-मक़्सूद के क़रीब पहुँच कर वो ख़ुशी और ग़ुरूर से इस क़दर भर जाता है कि अपनी सब तदबीरों को ख़ुद ही उल्टा कर देता है और इस ख़याल में कि अब तो मा-हसल मिल गया वो अपनी महबूबा को बजाए ख़ुश करने के मुतनफ़्फ़िर कर देता है। बस यही मेरे साथ भी हुआ।
अब अपनी ज़िंदगी के हालात दोहराने से किया हासिल? ताहम तुम्हें मेरी ज़िंदगी का वो ला-जवाब और सोगवार ज़माना तो याद होगा जब मुझे उससे मुहब्बत थी। मुझे तुम्हारी मुहब्बत भरी तसल्ली-ओ-तशफ़्फ़ी ख़ूब याद है, लेकिन इसके बा-वजूद भी मैं अपने किए को न मिटा सका। मैंने मुहब्बत का ख़ून मुहब्बत से कर डाला, और हालाँकि मैं उस वक़्त अपने को क़ातिल न समझता था मगर अब मुझे अपने जुर्म का यक़ीन है। [...]

महावटों की एक रात

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गड़ गड़! गड़ड़ड़! इलाही ख़ैर! मालूम होता है कि आसमान टूट पड़ेगा। कहीं छत तो नहीं गिर रही। गड़ड़ड़ड़! उस के साथ ही टूटे हुए किवाड़ों की झिर्रियाँ एक तड़पती हुई रोशनी से चमक उठीं। हवा के एक तेज़ झोंके ने सारी इमारत को हिला कर रख दिया। सो-सौ सौ दर्द! क्या सर्दी है! यख़ जमी जाती है। बर्फ़ जमी जाती है, कपकपी है कि सारे जिस्म को तोड़े डालती है।
एक छोटे से मकान 24x 24 फिट और उसमें भी आधे से ज़्यादा में एक तंग दालान और उसके पीछे एक पतला सा कमरा, नीचा और अंधेरा। कोई फ़र्श नहीं। कुछ फटे पुराने बोरिये और टाट ज़मीन पर बिछे हैं जो गर्द और सिल से चिप-चिप कर रहे हैं। कोनों में बुग़चियों और गूदड़ का एक ढेर है। एक अकेला काठ का टूटा हुआ संदूक़, उस पर भी मिट्टी के बर्तन जो साल-हा-साल के इस्तिमाल से काले हो गए हैं और टूटते टूटते आधे पौने रह गए हैं। उनमें एक ताँबे की पतीली भी है जिसके किनारे झड़ चुके हैं। बरसों से क़लई तक नहीं हुई और घिसते घिसते पेन्दा जवाब देने के क़रीब है।

छत है कि कड़ियाँ रह गईं हैं और उस पर बारिश! या अल्लाह क्या महावटें अब के ऐसी बरसेंगी कि गोया उनको फिर बरसना ही नहीं। अब तो रोक दो। कहाँ जाऊं, क्या करूँ। इससे तो मौत ही आ जाये! तू ने ग़रीब ही क्यों बनाया। या अच्छे दिन ही ना दिखाये होते या ये हालत है कि लेटने को जगह नहीं। छत छलनी की तरह टपके जाती है। बिल्ली के बच्चों की तरह सब कोने झांक लिए लेकिन चैन कहाँ। मेरा तो ख़ैर कुछ नहीं, बच्चे निगोड मारों की मुसीबत है। ना मालूम सो भी कैसे गए हैं।
सर्दी है कि उफ़! बोटी बोटी काँपी जाती है और इस पर एक लिहाफ़ और चार जानें! ए मेरे अल्लाह ज़रा तो रहम कर। या वो ज़माना था कि महल थे, नौकर थे, गिरिश और पलंग थे। आह! वो मेरा कमरा! एक छप्पर खट सुनहरी पर्दों से ज़रक़-बरक़, मख़मल की चादरें और सुंबुल के तकिए। क्या नरम नरम तोशक थी कि लेटने से नींद आ जाये और लिहाफ़ आह! रेशमें छींट का और इस पर सच्चे फटे की गोट। अन्नाएं मामाएं खड़ी हैं, बीवी सर दबाऊं, बीवी पैर दबाऊं? कोई तेल डाल रही है कोई हाथ मल रही है। गुदगुदा गुदगुदा बिस्तरा, ऊपर से ये सब चोंचले, नींद है कि कहकशानी कपड़े पहने सामने खड़ी है। [...]

मिस एडना जैक्सन

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कॉलिज की पुरानी प्रिंसिपल के तबादले का ए’लान हुआ, तालिबात ने बड़ा शोर मचाया। वो नहीं चाहती थीं कि उनकी महबूब प्रिंसिपल उनके कॉलेज से कहीं और चली जाये। बड़ा एहतिजाज हुआ। यहाँ तक कि चंद लड़कियों ने भूक हड़ताल भी की, मगर फ़ैसला अटल था... उनका जज़बातीपन थोड़े अ’र्से के बाद ख़त्म हो गया।
नई प्रिंसिपल ने पुरानी प्रिंसिपल की जगह ले ली। तालिबात ने शुरू शुरू में उससे बड़ी नफ़रत-ओ-हिक़ारत का इज़हार किया मगर उसने उनसे कुछ न कहा, हालाँकि उसके इख़्तियार में सब कुछ था। वो उनको कड़ी से कड़ी सज़ा दे सकती थी।

हर वक़्त उसके पतले पतले होंटों पर मुस्कुराहट तैरती रहती... वो सर-ता-पा तबस्सुम थी। कॉलेज में खिली हुई कली की तरह आती और जब वापस जाती तो दिन भर गूना-गूं मस्रूफ़ियतों के बावजूद उस में मुरझाहट के कोई आसार न होते।
उसको ख़फ़गी का इज़हार करना ही नहीं आता था। अगर वो किसी वक़्त उसका इज़हार भी करती तो ऐसा मालूम होता कि वह को आह में तबदील करने की नाकाम कोशिश की गई है। [...]

ख़्वाब-ए-ख़रगोश

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सुरय्या हंस रही थी। बेतरह हंस रही थी। उसकी नन्ही सी कमर इसके बाइस दुहरी हो गई थी। उसकी बड़ी बहन को बड़ा ग़ुस्सा आया। आगे बढ़ी तो सुरय्या पीछे हट गई और कहा, “जा मेरी बहन, बड़े ताक़ में से मेरी चूड़ियों का बक्स उठाला। पर ऐसे कि अम्मी जान को ख़बर न हो।”
सुरय्या अपनी बड़ी बहन से पाँच बरस छोटी थी। बिलक़ीस उन्नीस की थी। सुरय्या ने झुंझलाहट से हंसते हुए कहा, “और जो मैं न लाऊं तो?”

बिलक़ीस ने जल कर उसे कहा, “एक फ़क़त तू मुझ अल्लाह मारी का काम नहीं करेगी, निगोड़ियां हमसाइयाँ चाहे तुमसे उपले तक थपवालें।”
सुरय्या को अपनी बहन पर प्यार आगया। उसके गले से चिमट गई, “नहीं बाजी, हमसाइयाँ जाएं जहन्नम में। मैं तो तुम्हारी ख़िदमत के लिए भी तैयार हूँ... मैं चूड़ियों का बक्स अभी लाती हूँ।” [...]

नज़्जारा दर्मियाँ है

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ताराबाई की आँखें तारों की ऐसी रौशन हैं और वो गर्द-ओ-पेश की हर चीज़ को हैरत से तकती है। दर असल ताराबाई के चेहरे पर आँखें ही आँखें हैं । वो क़हत की सूखी मारी लड़की है। जिसे बेगम अल्मास ख़ुरशीद आलम के हाँ काम करते हुए सिर्फ़ चंद माह हुए हैं, और वो अपनी मालकिन के शानदार फ़्लैट के साज़-ओ-सामान को आँखें फाड़-फाड़ देखती रहती है कि ऐसा ऐश-ओ-इशरत उसे पहले कभी ख़्वाब में भी नज़र न आया था। वो गोरखपुर के एक गांव की बाल विध्वा है। जिसके सुसर और माँ-बाप के मरने के बाद उसके मामा ने जो मुंबई में दूध वाला भय्या है उसे, यहां बुला भेजा था।
अल्मास बेगम के ब्याह को अभी तीन-चार महीने ही गुज़रे हैं। उनकी मंगलोरियन आया जो उनके साथ मैके से आई थी ‘‘मुल्क’’ चली गई तो उनकी बेहद मुंतज़िम ख़ाला बेगम उस्मानी ने जो एक नामवर सोशल वर्कर हैं इम्पलायमेंट ऐक्सचेंज फ़ोन किया और ताराबाई पट बीजने की तरह आँखें झपकाती कम्बालाहिल के ‘‘स्काई स्क्रैपर’’ गुल नस्तरन की दसवीं मंज़िल पर आन पहुंचीं। अल्मास बेगम ने उनको हर तरह क़ाबिले इत्मिनान पाया, मगर जब दूसरे मुलाज़िमों ने उन्हें ताराबाई कह कर पुकारा तो वो बहुत बिगड़ीं “हम कोई पतुरिया हूँ?” उन्होंने एहतिजाज किया। मगर अब उनको तारा दई के बजाय ताराबाई कहलाने की आ’दत हो गई है। और वो चुप-चाप काम में मसरूफ़ रहती हैं। और बेगम साहिब और उनके साहिब को आँखें झपका-झपका कर देखा करती हैं।

अल्मास बेगम का अगर बस चले तो वो अपने तरहदार शौहर को एक लम्हे के लिए अपनी नज़रों से ओझल न होने दें और वो जवान जहान आया को मुलाज़िम रखने की हरगिज़ क़ाइल नहीं। मगर ताराबाई जैसी बे-जान और सुघड़ ख़ादिमा को देखकर उन्होंने अपनी तजुर्बेकार ख़ाला के इंतिख़ाब पर ए’तराज़ नहीं किया।
ताराबाई सुबह को बेडरूम में चाय लाती है बड़ी अ’क़ीदत से साहिब के जूतों पर पालिश और कपड़ों पर इस्त्री करती है, उनके शेव का पानी लगाती है, झाड़ू पोंछा करते वक़्त वो बड़ी हैरत से उन ख़ूबसूरत चीज़ों पर हाथ फेरती है, जो साहिब अपने साथ पैरिस से लाये हैं, उनका वायलिन वार्डरोब के ऊपर रखा है, जब पहली बार ताराबाई ने बेडरूम की सफ़ाई की तो वायलिन पर बड़ी देर तक हाथ फेरा, मगर परसों सुबह हस्ब-ए-मा’मूल जब वो बड़ी नफ़ासत से वायलिन साफ़ कर रही थी तो नर्म मिज़ाज और शरीफ़ साहिब उसी वक़्त कमरे में आ गए और उस पर बरस पड़े कि वायलिन को हाथ क्यों लगाया और ताराबाई के हाथ से छीन कर उसे अलमारी के ऊपर पटख़ दिया, ताराबाई सहम गई और उसकी आँखों में आँसू आ गए और साहिब ज़रा शर्मिंदा से हो कर बाहर बरामदे में चले गये, जहां बेगम साहिबा चाय पी रही थी, वैसे बेगम साहिबा की सुबह हेयर ड्रेसर और ब्यूटी सैलून में गुज़रती है मैनीक्योर, पैडीक्योर, ताज नेशनल एक से एक बढ़िया साड़ियां, दर्जनों रंग बिरंगे सेंट्स, और इ’त्र के डिब्बे और गहने उनकी अलमारियों में पड़े हैं। मगर ताराबाई सोचती है, भगवान ने मेमसाहब को दौलत भी, इज्जत भी और ऐसा सुंदर पति दिया, बस शक्ल देने में कंजूसी कर गए। [...]

आपा

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जब कभी बैठे बिठाए, मुझे आपा याद आती है तो मेरी आँखों के आगे छोटा सा बिल्लौरी दीया आ जाता है जो नीम लौ से जल रहा हो।
मुझे याद है कि एक रात हम सब चुपचाप बावर्चीख़ाने में बैठे थे।मैं, आपा और अम्मी जान, कि छोटा बद्दू भागता हुआ आया। उन दिनों बद्दू छः-सात साल का होगा। कहने लगा, अम्मी जान! मैं भी बाह करूंगा।

वाह अभी से? अम्मां ने मुस्कुराते हुए कहा। फिर कहने लगीं, अच्छा बद्दू तुम्हारा ब्याह आपा से कर दें?
ऊँहूँ बद्दू ने सर हिलाते हुए कहा। [...]

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