हामिद का बच्चा

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लाहौर से बाबू हरगोपाल आए तो हामिद घर का रहा न घाट का। उन्होंने आते ही हामिद से कहा, “लो, भई फ़ौरन एक टैक्सी का बंदोबस्त करो।”
हामिद ने कहा, “आप ज़रा तो आराम कर लीजिए। इतना लंबा सफ़र तय करके यहां आए हैं। थकावट होगी।”

बाबू हरगोपाल अपनी धुन के पक्के थे, “नहीं भाई मुझे थकावट-वकावट कुछ नहीं। मैं यहां सैर की ग़रज़ से आया हूँ। आराम करने नहीं आया। बड़ी मुश्किल से दस दिन निकाले हैं। ये दस दिन तुम मेरे हो। जो मैं कहूंगा तुम्हें मानना होगा। मैं अब के अय्याशी की इंतिहा करदेना चाहता हूँ... सोडा मँगवाओ।”
हामिद ने बहुत मना किया कि देखिए बाबू हरगोपाल सुबह-सवेरे मत शुरू कीजिए मगर वो न माने। बक्स खोल कर जॉनी वॉकर की बोतल निकाली और उसे खोलना शुरू कर दिया। [...]

मोना लिसा

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परियों की सर-ज़मीन को एक रास्ता जाता है शाह बलूत और सनोबर के जंगलों में से गुज़रता हुआ जहाँ रुपहली नद्दियों के किनारे चेरी और बादाम के सायों में ख़ूबसूरत चरवाहे छोटी-छोटी बाँसुरियों पर ख़्वाबों के नग़्मे अलापते हैं। ये सुनहरे चाँद की वादी है। never never।and के मग़रूर और ख़ूबसूरत शहज़ादे। पीटर पैन का मुल्क जहाँ हमेशा सारी बातें अच्छी-अच्छी हुआ करती हैं। आइसक्रीम की बर्फ़ पड़ती है। चॉकलेट और प्लम केक के मकानों में रहा जाता है। मोटरें पैट्रोल के बजाए चाय से चलती हैं। बग़ैर पढ़े डिग्रियाँ मिल जाती हैं।
और कहानियों के इस मुल्क को जाने वाले रास्ते के किनारे-किनारे बहुत से साइन पोस्ट खड़े हैं जिन पर लिखा है, “सिर्फ़ मोटरों के लिए”

“ये आम रास्ता नहीं”, और शाम के अँधरे में ज़न्नाटे से आती हुई कारों की तेज़ रौशनी में नर्गिस के फूलों की छोटी सी पहाड़ी में से झाँकते हुए ये अल्फ़ाज़ जगमगा उठते हैं, “प्लीज़ आहिस्ता चलाइए... शुक्रिया!”
और बहार की शगुफ़्ता और रौशन दोपहरों में सुनहरे बालों वाली कर्ली लौक्स, सिंड्रेला और स्नो-वाईट छोटी-छोटी फूलों की टोकरियाँ लेकर इस रास्ते पर चेरी के शगूफ़े और सितारा-ए-सहरी की कलियाँ जमा’ करने आया करती थीं। [...]

नवाब सलीमुल्लाह ख़ान

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नवाब सलीमुल्लाह ख़ां बड़े ठाट के आदमी थे। अपने शहर में उनका शुमार बहुत बड़े रईसों में होता था। मगर वो ओबाश नहीं थे, ना ऐश-परस्त। बड़ी ख़ामोश और संजीदा ज़िंदगी बसर करते थे। गिनती के चंद आदमियों से मिलना और बस वो भी जो उनकी पसंद के हैं।
दावतें आम होती थीं। शराब के दौर भी चलते थे, मगर हद-ए-एतिदाल तक। वो ज़िंदगी के हर शोबे में एतिदाल के क़ाइल थे।

उनकी उम्र पचपन बरस के लगभग थी। जब वो चालीस बरस के थे तो उनकी बीवी दिल के आरिज़े के बाइस इंतिक़ाल कर गई, उनको बहुत सदमा हुआ। मगर मशियत-ए-एज़दी को यही मंज़ूर था। चुनांचे इस सदमे को बर्दाश्त कर लिया।
उनके औलाद नहीं हुई थी... इसलिए वो बिल्कुल अकेले थे... बहुत बड़ी कोठी जिसमें वो रहते थे। चार नौकर थे जो उनकी आसाइश का ख़याल रखते और मेहमानों की तवाज़ो करते। अपनी बीवी की वफ़ात के पंद्रह बरस बाद अचानक उनका दिल अपने वतन से उचाट होगया। उन्होंने अपने चहेते मुलाज़िम मुअज़्ज़म अली को बुलाया और उससे कहा, “देखो, कोई ऐसा एजेंट तलाश करो जो सारी जायदाद मुनासिब दामों पर बिकवा दे।” [...]

सौदा बेचने वाली

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सुहैल और जमील दोनों बचपन के दोस्त थे। उनकी दोस्ती को लोग मिसाल के तौर पर पेश करते थे। दोनों स्कूल में इकट्ठे पढ़े। फिर उसके बाद सुहैल के बाप का तबादला हो गया और वो रावलपिंडी चला गया। लेकिन उनकी दोस्ती फिर भी क़ायम रही। कभी जमील रावलपिंडी चला जाता और कभी सुहैल लाहौर आ जाता।
दोनों की दोस्ती का अस्ल सबब ये था कि वो हुस्न पसंद थे। वो ख़ूबसूरत थे। बहुत ख़ूबसूरत लेकिन वो आम ख़ूबसूरत लड़कों की मानिंद बदकिर्दार नहीं थे। उनमें कोई ऐ’ब नहीं था।

दोनों ने बी.ए. पास किया। सुहैल ने रावलपिंडी के गार्डेन कॉलेज और जमील ने लाहौर के गर्वनमेंट कॉलेज से बड़े अच्छे नंबरों पर। इस ख़ुशी में उन्होंने बहुत बड़ी दा’वत की। इसमें कई लड़कियां भी शरीक थीं।
जमील क़रीब क़रीब सब लड़कियों को जानता था, मगर एक लड़की को जब उसने देखा, जिससे वो क़तअ’न नाआश्ना था, तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि उसके सारे ख़्वाब पूरे हो गए हैं। [...]

सितारों से आगे

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करतार सिंह ने ऊंची आवाज़ में एक और गीत गाना शुरू कर दिया। वो बहुत देर से माहिया अलाप रहा था जिसको सुनते सुनते हमीदा करतार सिंह की पंकज जैसी तानों से, उसकी ख़ूबसूरत दाढ़ी से, सारी काइनात से अब इस शिद्दत के साथ बेज़ार हो चुकी थी कि उसे ख़ौफ़ हो चला था कि कहीं वो सचमुच इस ख़्वाह मख़्वाह की नफ़रत-व-बेज़ारी का ऐलान न कर बैठे और कामरेड करतार ऐसा स्वीट है फ़ौरन बुरा मान जाएगा। आज के बीच में अगर वो शामिल न होता तो बाक़ी के साथी तो इस क़दर संजीदगी के मूड में थे कि हमीदा ज़िंदगी से उकता कर ख़ुदकुशी कर जाती। करतार सिंह गुड्डू ग्रामोफोन तक साथ उठा लाया था। मलिका पुखराज का एक रिकार्ड तो कैंप ही में टूट चुका था, लेकिन ख़ैर।
हमीदा अपनी सुर्ख़ किनारे वाली सारी के आंचल को शानों के गिर्द बहुत एहतियात से लपेट कर ज़रा और ऊपर को हो के बैठ गई जैसे कॉमरेड करतार सिंह के माहिया को बेहद दिलचस्पी से सुन रही है लेकिन न मालूम कैसी उल्टी पलटी उलझी उलझी बे-तुकी बातें उस वक़्त उसके दिमाग़ में घुसी आ रही थीं। वो जाग सोज़-ए-इश्क़ जाग वाला बेचारा रिकार्ड शकुंतला ने तोड़ दिया था।

ओफ्फोह भई। बैलगाड़ी के हिचकोलों से उसके सर में हल्का हल्का दर्द होने लगा और अभी कितने बहुत से काम करने को पड़े थे। पूरे गाँव को हैजे़ के टीके लगाने को पड़े थे। तौबा! कामरेड सबीहुद्दीन के घूंगरियाले बालों के सर के नीचे रखे हुए दवाओं के बक्स में से निकल के दवाओं की तेज़ बू सीधी उसके दिमाग़ में पहुँच रही थी और उसे मुस्तक़िल तौर पर याद दिलाए जा रही थी कि ज़िंदगी वाक़ई बहुत तल्ख़ और नागवार है एक घिसा हुआ, बेकार और फ़ालतू सा रिकार्ड जिसमें से सूई की ठेस लगते ही वही मद्धम और लरज़ती हुई तानें बुलंद हो जाती थीं जो नग़्मे की लहरों में क़ैद रहते रहते दिखा चुकी थीं। अगर इस रिकार्ड को, जो मुद्दतों से रेडियो ग्राम के निचले ख़ाने में ताज़ा तरीन एलबम के नीचे दबा पड़ा था, ज़ोर से ज़मीन पर पटख़ दिया जाता तो हमीदा ख़ुशी से नाच उठी। कितनी बहुत सी ऐसी चीज़ें थीं जो वो चाहती थी कि दुनिया में न होतीं तो कैसा मज़ा रहता और उस वक़्त तो ऐसा लगा जैसे सचमुच उसने i dream i dwell in marble halls. वाले घिसे हुए रिकार्ड को फ़र्श पर पटख़ के टुकड़े टुकड़े कर दिया है और झुक कर उसकी किरचें चुनते हुए उसे बहुत ही लुत्फ़ आ रहा है। उन्नाबी मुज़ैक के इस फ़र्श पर, जिस पर एक दफ़ा एक हल्के फुल्के 'fox tort' में बहते हुए उसने सोचा था कि बस ज़िंदगी सिमट सिमटा के इस चमकीली सतह, उन ज़र्द पर्दों की रुमान आफ़रीन सलवटों और दीवारों में से झाँकती हुई इन मद्धम बर्क़ी रोशनियों के ख़्वाब-आवर धुँन्द्धलके में समा गई है, ये तपिश अंगेज़ जाज़ यूँ ही बजता रहेगा, अंधेरे कोनों में रखे हुए स्याही माइल सब्ज़ फ़र्न की डालियाँ हवा के हल्के हल्के झोंकों में इस तरह हिचकोले खाती रहेंगी और रेडियोग्राम पर हमेशा पोलका और रम्बा के नए नए रिकार्ड लगते जाएँगे। ये थोड़ा ही मुम्किन है कि जो बातें उसे क़तई पसंद नहीं वो बस होती ही चली जाएँ, रिकार्ड घिसते जाएँ और टूटते जाएँ। लेकिन ये रेकॉर्डों का फ़लसफ़ा किया है आख़िर? हमीदा को हंसी आ गई। उसने जल्दी से करतार सिंह की तरफ़ देखा। कहीं वो ये न समझ ले कि वो उसके गाने पर हंस रही है।
कामरेड करतार गाए जा रहा था। वस वस वे ढोलना उफ़! ये पंजाबी के बा'ज़ अलफ़ाज़ किस क़दर भोंडे होते हैं। हमीदा एक ही तरीक़े से बैठे बैठे देखा के बाँस के सहारे आगे की तरफ़ झुक गई। बहती हुई हवा में उसका सुर्ख़ आंचल फटफटाए जा रहा था। [...]

ये परी चेहरा लोग

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पतझड़ का मौसम शुरू हो चुका था। बेगम बिल्क़ीस तुराब अली हर साल की तरह अब के भी अपने बँगले के बाग़ीचे में माली से पौदों और पेड़ों की काँट छांट करा रही थीं। उस वक़्त दिन के कोई ग्यारह बजे होंगे। सेठ तुराब अली अपने काम पर और लड़के-लड़कियां स्कूलों-कॉलिजों में जा चुके थे। चुनांचे बेगम साहिब बड़ी बेफ़िकरी के साथ आराम कुर्सी पर बैठी माली के काम की निगरानी कर रही थीं।
बेगम तुराब अली को निगरानी के कामों से हमेशा बड़ी दिलचस्पी रही थी। आज से पंद्रह साल पहले जब उनके शौहर ने जो उस वक़्त सेठ तुराब अली नहीं बल्कि शेख़ तुराब अली कहलाते थे और सरकारी तामीरात के ठेके लिया करते थे। इस नवाह में बंगला बनवाना शुरू किया था तो बेगम साहिब ने इसकी तामीरात के काम की बड़ी कड़ी निगरानी की थी और ये उसी का नतीजा था कि ये बंगला बड़ी किफ़ायत के साथ और थोड़े ही दिनों में बन कर तैयार हो गया था।

बेगम तुराब अली का डीलडौल मर्दों जैसा था। आवाज़ ऊंची और घंबीर और रंग साँवला जो ग़ुस्से की हालत में स्याह पड़ जाया करता। चुनांचे नौकर-चाकर उनकी डाँट-डपट से थर-थर काँपने लगते और घर भर पर सन्नाटा छा जाता। उनकी औलाद में से तीन लड़के और दो लड़कियां सन-ए-बलूग़त को पहुंच चुके थे मगर क्या मजाल जो माँ के कामों में दख़ल देना या उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई काम करना पसंद करते थे। चुनांचे बेगम साहिब पूरे ख़ानदान पर एक मलिका की तरह हुक्मराँ थीं। उम्र और ख़ुशहाली के साथ साथ उनकी फ़र्बही भी बढ़ती जा रही थी और फ़र्बही के साथ रोब और दबदबा भी।
इन पंद्रह बरस में जो उन्होंने इस नवाह में गुज़ारे थे वो यहां के क़रीब-क़रीब सभी रहने वालों से बख़ूबी वाक़िफ़ हो गई थीं। बा'ज़ घरों से मेल-मिलाप भी था और कुछ बीबियों से दोस्ती भी। वो इस इलाक़े के हालात से ख़ुद को बा-ख़बर रखती थीं। यहां तक कि इमलाक की ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त और बंगलों में नए किरायादारों की आमद और पुराने किरायादारों की रुख़्सत की भी उन्हें पूरी पूरी ख़बर रहती थी। [...]

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