कारमन

Shayari By

रात के ग्यारह बजे टैक्सी शहर की ख़ामोश सड़कों पर से गुज़रती एक पुरानी वज़ा’ के फाटक के सामने जाकर रुकी। ड्राईवर ने दरवाज़ा खोल कर बड़े यक़ीन के साथ मेरा सूटकेस उतार कर फ़ुट-पाथ पर रख दिया और पैसों के लिए हाथ फैलाए तो मुझे ज़रा अ'जीब सा लगा।
“यही जगह है?”, मैंने शुबा से पूछा।

“जी हाँ”, उसने इत्मीनान से जवाब दिया।
मैं नीचे उत्तरी। टैक्सी गली के अँधेरे में ग़ाइब हो गई और मैं सुनसान फ़ुट-पाथ पर खड़ी रह गई। मैंने फाटक खोलने की कोशिश की मगर वो अंदर से बंद था। तब मैंने बड़े दरवाज़े में जो खिड़की लगती थी, उसे खटखटाया। कुछ देर बा'द खिड़की खुली। मैंने चोरों की तरह अंदर झाँका। अंदर नीम-तारीक आँगन था जिसके एक कोने में दो लड़कियाँ रात के कपड़ों में मलबूस आहिस्ता-आहिस्ता बातें कर रही थीं। आँगन के सिरे पर एक छोटी सी शिकस्ता इमारत इस्तादा थी। मुझे एक लम्हे के लिए घुसियारी मंडी लखनऊ का स्कूल याद आ गया, जहाँ से मैंने बनारस यूनीवर्सिटी का मैट्रिक पास किया था। मैंने पलट कर गली की तरफ़ देखा जहाँ मुकम्मल ख़ामोशी तारी थी। फ़र्ज़ कीजिए... मैंने अपने आपसे कहा कि ये जगह अफ़ीमचियों, बुर्दा-फ़रोशों और स्मगलरों का अड्डा निकली तो...? मैं एक अजनबी मुल्क के अजनबी शहर में रात के ग्यारह बजे एक गुमनाम इमारत का दरवाज़ा खटखटा रही थी जो घुसियारी मंडी के स्कूल से मिलता-जुलता था। एक लड़की खिड़की की तरफ़ आई। [...]

स्वराज के लिए

Shayari By

मुझे सन् याद नहीं रहा लेकिन वही दिन थे। जब अमृतसर में हर तरफ़ “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” के नारे गूंजते थे। उन नारों में, मुझे अच्छी तरह याद है, एक अ’जीब क़िस्म का जोश था... एक जवानी... एक अ’जीब क़िस्म की जवानी। बिल्कुल अमृतसर की गुजरियों की सी जो सर पर ऊपलों के टोकरे उठाए बाज़ारों को जैसे काटती हुई चलती हैं... ख़ूब दिन थे। फ़िज़ा में जो जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे का उदास ख़ौफ़ समोया रहता था। उस वक़्त बिल्कुल मफ़क़ूद था। अब उसकी जगह एक बेख़ौफ तड़प ने ले ली थी। एक अंधाधुंद जस्त ने जो अपनी मंज़िल से नावाक़िफ़ थी।
लोग नारे लगाते थे, जलूस निकालते थे और सैंकड़ों की ता’दाद में धड़ाधड़ क़ैद हो रहे थे। गिरफ़्तार होना एक दिलचस्प शग़ल बिन गया था। सुबह क़ैद हुए, शाम छोड़ दिए गए। मुक़द्दमा चला, चंद महीनों की क़ैद हुई, वापस आए, एक नारा लगाया, फिर क़ैद हो गए।

ज़िंदगी से भरपूर दिन थे। एक नन्हा सा बुलबुला फटने पर भी एक बहुत बड़ा भंवर बन जाता था। किसी ने चौक में खड़े हो कर तक़रीर की और कहा, हड़ताल होनी चाहिए, चलिए जी हड़ताल हो गई... एक लहर उठी कि हर शख़्स को खादी पहननी चाहिए ताकि लंका शाइर के सारे कारख़ाने बंद हो जाएं... बिदेशी कपड़ों का बायकॉट शुरू हो गया और हर चौक में अलाव जलने लगे। लोग जोश में आकर खड़े खड़े वहीं कपड़े उतारते और अलाव में फेंकते जाते, कोई औरत अपने मकान के शहनशीन से अपनी नापसंदीदा साड़ी उछालती तो हुजूम तालियां पीट पीट कर अपने हाथ लाल कर लेता।
मुझे याद है कोतवाली के सामने टाउन हाल के पास एक अलाव जल रहा था... शेख़ू ने जो मेरा हम-जमाअ’त था, जोश में आकर अपना रेशमी कोट उतारा और बिदेशी कपड़ों की चिता में डाल दिया। तालियों का समुंदर बहने लगा क्योंकि शेख़ू एक बहुत बड़े “टोडी बच्चे” का लड़का था। उस ग़रीब का जोश और भी ज़्यादा बढ़ गया। अपनी बोस्की की क़मीज़ उतार वो भी शो’लों की नज़र करदी, लेकिन बाद में ख़याल आया कि उसके साथ सोने के बटन थे। [...]

आवारा-गर्द

Shayari By

पिछले साल, एक रोज़ शाम के वक़्त दरवाज़े की घंटी बजी। मैं बाहर गयी। एक लंबा तड़ंगा यूरोपीयन लड़का कैनवस का थैला कंधे पर उठाये सामने खड़ा था। दूसरा बंडल उसने हाथ में सँभाल रखा था और पैरों में ख़ाकआलूद पेशावरी चप्पल थे। मुझे देखकर उसने अपनी दोनों एड़ियाँ ज़रा सी जोड़ कर सर ख़म किया। मेरा नाम पूछा और एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया। “आपके मामूं ने ये ख़त दिया है।” उसने कहा।
“अंदर आ जाओ।” मैंने उससे कहा और ज़रा अचंभे से ख़त पर नज़र डाली। ये अल्लन मामूं का ख़त था और उन्होंने लिखा था... “हम लोग कराची से हैदराबाद सिंध वापस जा रहे थे। ठठ की माकली हिल पर क़ब्रों के दरमियान इस लड़के को बैठा देखा। इसने अँगूठा उठाकर लिफ़्ट की फ़र्माइश की और हम इसे घर ले आये। ये दुनिया के सफ़र पर निकला है और अब हिन्दोस्तान जा रहा है। ओटो बहुत प्यारा लड़का है मैंने इसे हिन्दोस्तान में अ’ज़ीज़ों के नाम ख़त दे दिये हैं। और उनके पास ठहरेगा। तुम भी इस की मेज़बानी करो।”

नोट: इसके पास पैसे तक़रीबन बिल्कुल नहीं हैं।
लड़के ने कमरे में आकर थैले फ़र्श पर रख दिये और अब आँखें चुंधिया कर दीवारों पर लगी हुई तस्वीरें देख रहा था। इतने ऊंचे क़द के साथ उसका बच्चों का सा चेहरा था, जिस पर हल्की हल्की सुनहरी दाढ़ी मूंछ बहुत अजीब सी लग रही थी। [...]

टेटवाल का कुत्ता

Shayari By

कई दिन से तरफ़ैन अपने अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस बारह फ़ायर किए जाते जिनकी आवाज़ के साथ कोई इंसानी चीख़ बुलंद नहीं होती थी। मौसम बहुत ख़ुशगवार था। हवा ख़ुद रो फूलों की महक में बसी हुई थी। पहाड़ियों की ऊंचाइयों और ढलवानों पर जंग से बेख़बर क़ुदरत अपने मुक़र्ररा अश्ग़ाल में मसरूफ़ थी। परिंदे उसी तरह चहचहाते थे। फूल उसी तरह खिल रहे थे और शहद की सुस्त रो मक्खियां उसी पुराने ढंग से उन पर ऊँघ ऊँघ कर रस चूसती थीं।
जब पहाड़ियों में किसी फ़ायर की आवाज़ गूंजती तो चहचहाते हुए परिंदे चौंक कर उड़ने लगते, जैसे किसी का हाथ साज़ के ग़लत तार से जा टकराया है और उनकी समाअत को सदमा पहुंचाने का मूजिब हुआ है।

सितंबर का अंजाम अक्तूबर के आग़ाज़ से बड़े गुलाबी अंदाज़ में बग़लगीर हो रहा था। ऐसा लगता था कि मौसम-ए-सरमा और गर्मा में सुलह-सफ़ाई हो रही है। नीले-नीले आसमान पर धुनकी हुई रुई ऐसे पतले-पतले और हल्के -हल्के बादल यूं तैरते थे जैसे अपने सफ़ेद बजरों में तफ़रीह कर रहे हैं।
पहाड़ी मोर्चों में दोनों तरफ़ के सिपाही कई दिन से बड़ी कोफ़्त महसूस कर रहे थे कि कोई फ़ैसलाकुन बात क्यों वक़ूअ पज़ीर नहीं होती। उकता कर उनका जी चाहता था कि मौक़ा-बे-मौक़ा एक दूसरे को शेअर सुनाएँ। कोई न सुने तो ऐसे ही गुनगुनाते रहें। [...]

आख़िरी सल्यूट

Shayari By

ये कश्मीर की लड़ाई भी अजीब-ओ-ग़रीब थी। सूबेदार रब नवाज़ का दिमाग़ ऐसी बंदूक़ बन गया था। जंग का घोड़ा ख़राब हो गया हो।
पिछली बड़ी जंग में वो कई महाज़ों पर लड़ चुका था। मारना और मरना जानता था। छोटे बड़े अफ़सरों की नज़रों में उसकी बड़ी तौक़ीर थी, इसलिए कि वो बड़ा बहादुर, निडर और समझदार सिपाही था। प्लाटून कमांडर मुश्किल काम हमेशा उसे ही सौंपते थे और वो उनसे ओह्दा बरआ होता था। मगर इस लड़ाई का ढंग ही निराला था।

दिल में बड़ा वलवला, बड़ा जोश था। भूक-प्यास से बेपर्वा सिर्फ़ एक ही लगन थी, दुश्मन का सफ़ाया कर देने की, मगर जब उससे सामना होता, तो जानी-पहचानी सूरतें नज़र आतीं। बा'ज़ दोस्त दिखाई देते, बड़े बग़ली क़िस्म के दोस्त, जो पिछली लड़ाई में उसके दोश बदोश, इत्तिहादियों के दुश्मनों से लड़े थे, पर अब जान के प्यासे बने हुए थे।
सूबेदार रब नवाज़ सोचता था कि ये सब ख़्वाब तो नहीं। पिछली बड़ी जंग का ऐलान। भर्ती, क़दर आवर छातियों की पैमाइश, पी टी, चांद मारी और फिर महाज़। उधर से इधर, इधर से उधर, आख़िर जंग का ख़ातमा। [...]

आवारा-गर्द

Shayari By

पिछले साल, एक रोज़ शाम के वक़्त दरवाज़े की घंटी बजी। मैं बाहर गयी। एक लंबा तड़ंगा यूरोपीयन लड़का कैनवस का थैला कंधे पर उठाये सामने खड़ा था। दूसरा बंडल उसने हाथ में सँभाल रखा था और पैरों में ख़ाकआलूद पेशावरी चप्पल थे। मुझे देखकर उसने अपनी दोनों एड़ियाँ ज़रा सी जोड़ कर सर ख़म किया। मेरा नाम पूछा और एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया। “आपके मामूं ने ये ख़त दिया है।” उसने कहा।
“अंदर आ जाओ।” मैंने उससे कहा और ज़रा अचंभे से ख़त पर नज़र डाली। ये अल्लन मामूं का ख़त था और उन्होंने लिखा था “हम लोग कराची से हैदराबाद सिंध वापस जा रहे थे। ठठ की माकली हिल पर क़ब्रों के दरमियान इस लड़के को बैठा देखा। इसने अँगूठा उठाकर लिफ़्ट की फ़र्माइश की और हम इसे घर ले आये। ये दुनिया के सफ़र पर निकला है और अब हिन्दोस्तान जा रहा है। ओटो बहुत प्यारा लड़का है मैंने इसे हिन्दोस्तान में अ’ज़ीज़ों के नाम ख़त दे दिये हैं। और उनके पास ठहरेगा। तुम भी इस की मेज़बानी करो।”

नोट: इसके पास पैसे तक़रीबन बिल्कुल नहीं हैं।
लड़के ने कमरे में आकर थैले फ़र्श पर रख दिये और अब आँखें चुंधिया कर दीवारों पर लगी हुई तस्वीरें देख रहा था। इतने ऊंचे क़द के साथ उसका बच्चों का सा चेहरा था, जिस पर हल्की हल्की सुनहरी दाढ़ी मूंछ बहुत अजीब सी लग रही थी। [...]

Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close