अक्सीर

Shayari By

बेवा होजाने के बाद बूटी के मिज़ाज में कुछ तल्ख़ी आगई थी जब ख़ानादारी की परेशानियों से बहुत जी जलता तो अपने जन्नत नसीब को सलवातें सुनाती, आप तो सिधार गए मेरे लिए ये सारा जंजाल छोड़ गए। जब इतनी जल्दी जाना था तो शादी न जाने किस लिए की थी, घर में भूनी भंग न थी चले थे शादी करने। बूटी चाहती तो दूसरी सगाई कर लेती। अहीरों में इस का रिवाज है इस वक़्त वो देखने सुनने में भी बुरी न थी दो एक उसके ख़्वास्तगार भी थे। लेकिन बूटी इफ़्फ़त परवरी के ख़्याल को न रोक सकी और ये सारा गु़स्सा उतरता था, उसके बड़े लड़के मोहन पर जिसका सोलहवां साल था। सोहन अभी छोटा था और मीना लड़की थी। ये दोनों अभी किस लायक़ थे। अगर ये तीन बच्चे उसकी छाती पर सवार न होते तो क्यों इतनी तकलीफ़ होती। जिसके घर में थोड़ा सा काम कर देती वो रोटी कपड़ा दे देता। जब चाहती किस के घर बैठ जाती अब अगर कहीं बैठ जाये तो लोग यही कहेंगे कि तीन तीन बच्चों के होते हुए ये उसे क्या सूझी, मोहन अपनी बिसात के मुताबिक़ उसका बार हल्का करने की कोशिश करता था। जानवरों को सानी-पानी ढोना, मथना ये सब वो कर लेता लेकिन बूटी का मुँह सीधा न होता था रोज़ाना एक न एक बात निकालती रहती और मोहन ने भी आजिज़ हो कर उसकी तल्ख़ नवाइयों की परवाह करना छोड़ दिया था। बूटी को शौहर से यही गिला था कि वो उसके गले पर गृहस्ती का जंजाल छोड़कर चला गया, उस ग़रीब की ज़िंदगी ही तबाह कर दी।न खाने का सुख मयस्सर हुआ न पहनने का। न और किसी बात का वो इस घर में आई गोया भट्टी में पड़ गई उसके अरमानों की तिश्ना कामी और बेवगी के क़ुयूद में हमेशा एक जंग सी छिड़ी रहती थी और जलन में सारी मिठास जल कर ख़ाक हो गई थी। और शौहर की वफ़ात के बाद बूटी के पास और कुछ नहीं तो चार पाँच सौ के ज़ेवर थे। लेकिन एक एक करके वो सब उसके हाथ से निकल गए। उसके मुहल्ले उसकी बिरादरी में कितनी औरतें हैं जो उम्र में उससे बड़ी होने के बावजूद गहने झुमका कर, आँखों में काजल लगा कर, मांग में सिंदूर की मोटी सी लकीर डाल कर गोया उसे जलाती रहती हैं इसलिए जब उसमें से कोई बेवा हो जाती है तो बूटी को एक हासिदाना मसर्रत होती। वो शायद सारी दुनिया की औरतों को अपनी ही जैसी देखना चाहती थी और उसकी महरूम आरज़ूओं को अपनी पाकदामनी की तारीफ़ और दूसरों की पर्दादारी और हर्फ़गीरी के सिवा सुकून-ए-क़ल्ब का और क्या ज़रिया था कैसे अपने आँसू पोंछती। वो चाहती थी उसका ख़ानदान हुस्न-ए-सीरत का नमूना हुआ। उसके लड़के तर्ग़ीबात से बे-असर रहीं। ये नेक-नामी भी उसकी पाकदामनी के ग़रूर को मुश्तइल करती रहती थी।
इसलिए ये क्यूँ-कर मुम्किन था कि वो मोहन के मुताल्लिक़ कोई शिकायत सुने और ज़ब्त कर जाये तर्दीद की गुंजाइश न थी ।ग़ीबत की इस दुनिया में रहते रहते वो एक ख़ास क़िस्म की बातों में बे-इंतिहा सहल एतिक़ाद हो गई गोया वो कोई ऐसा सहारा ढूंढती रहती थी जिस पर चढ़ कर वो अपने को दूसरों से ऊंची दिखा सके। आज उसके ग़रूर को ठेस लगी। मोहन जूंही दूध बेच कर घर आया, बूटी ने उसे क़हर की निगाहों से देखकर कहा, देखती हूँ अब तुझे हवा लग रही है।

मोहन इशारा न समझ सका। पुर सवाल नज़रों से देखता हुआ बोला,
मैं कुछ समझा नहीं, क्या बात है? [...]

अक्सीर

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बेवा होजाने के बाद बूटी के मिज़ाज में कुछ तल्ख़ी आगई थी जब ख़ानादारी की परेशानियों से बहुत जी जलता तो अपने जन्नत नसीब को सलवातें सुनाती, "आप तो सिधार गए मेरे लिए ये सारा जंजाल छोड़ गए।" जब इतनी जल्दी जाना था तो शादी न जाने किस लिए की थी, "घर में भूनी भंग न थी चले थे शादी करने।" बूटी चाहती तो दूसरी सगाई कर लेती। अहीरों में इस का रिवाज है इस वक़्त वो देखने सुनने में भी बुरी न थी दो एक उसके ख़्वास्तगार भी थे। लेकिन बूटी इफ़्फ़त परवरी के ख़्याल को न रोक सकी और ये सारा गु़स्सा उतरता था, उसके बड़े लड़के मोहन पर जिसका सोलहवां साल था। सोहन अभी छोटा था और मीना लड़की थी। ये दोनों अभी किस लायक़ थे। अगर ये तीन बच्चे उसकी छाती पर सवार न होते तो क्यों इतनी तकलीफ़ होती। जिसके घर में थोड़ा सा काम कर देती वो रोटी कपड़ा दे देता। जब चाहती किस के घर बैठ जाती अब अगर कहीं बैठ जाये तो लोग यही कहेंगे कि तीन तीन बच्चों के होते हुए ये उसे क्या सूझी, मोहन अपनी बिसात के मुताबिक़ उसका बार हल्का करने की कोशिश करता था। जानवरों को सानी-पानी ढोना, मथना ये सब वो कर लेता लेकिन बूटी का मुँह सीधा न होता था रोज़ाना एक न एक बात निकालती रहती और मोहन ने भी आजिज़ हो कर उसकी तल्ख़ नवाइयों की परवाह करना छोड़ दिया था। बूटी को शौहर से यही गिला था कि वो उसके गले पर गृहस्ती का जंजाल छोड़कर चला गया, उस ग़रीब की ज़िंदगी ही तबाह कर दी।न खाने का सुख मयस्सर हुआ न पहनने का। न और किसी बात का वो इस घर में आई गोया भट्टी में पड़ गई उसके अरमानों की तिश्ना कामी और बेवगी के क़ुयूद में हमेशा एक जंग सी छिड़ी रहती थी और जलन में सारी मिठास जल कर ख़ाक हो गई थी। और शौहर की वफ़ात के बाद बूटी के पास और कुछ नहीं तो चार पाँच सौ के ज़ेवर थे। लेकिन एक एक करके वो सब उसके हाथ से निकल गए। उसके मुहल्ले उसकी बिरादरी में कितनी औरतें हैं जो उम्र में उससे बड़ी होने के बावजूद गहने झुमका कर, आँखों में काजल लगा कर, मांग में सिंदूर की मोटी सी लकीर डाल कर गोया उसे जलाती रहती हैं इसलिए जब उसमें से कोई बेवा हो जाती है तो बूटी को एक हासिदाना मसर्रत होती। वो शायद सारी दुनिया की औरतों को अपनी ही जैसी देखना चाहती थी और उसकी महरूम आरज़ूओं को अपनी पाकदामनी की तारीफ़ और दूसरों की पर्दादारी और हर्फ़गीरी के सिवा सुकून-ए-क़ल्ब का और क्या ज़रिया था कैसे अपने आँसू पोंछती। वो चाहती थी उसका ख़ानदान हुस्न-ए-सीरत का नमूना हुआ। उसके लड़के तर्ग़ीबात से बे-असर रहीं। ये नेक-नामी भी उसकी पाकदामनी के ग़रूर को मुश्तइल करती रहती थी।
इसलिए ये क्यूँ-कर मुम्किन था कि वो मोहन के मुताल्लिक़ कोई शिकायत सुने और ज़ब्त कर जाये तर्दीद की गुंजाइश न थी ।ग़ीबत की इस दुनिया में रहते रहते वो एक ख़ास क़िस्म की बातों में बे-इंतिहा सहल एतिक़ाद हो गई गोया वो कोई ऐसा सहारा ढूंढती रहती थी जिस पर चढ़ कर वो अपने को दूसरों से ऊंची दिखा सके। आज उसके ग़रूर को ठेस लगी। मोहन जूंही दूध बेच कर घर आया, बूटी ने उसे क़हर की निगाहों से देखकर कहा, "देखती हूँ अब तुझे हवा लग रही है।"

मोहन इशारा न समझ सका। पुर सवाल नज़रों से देखता हुआ बोला,
"मैं कुछ समझा नहीं, क्या बात है?" [...]

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