पहले दिन जब उसने वक़ार को देखा तो वो उसे देखती ही रह गई थी। अस्मा की पार्टी में किसी ने उसे मिलवाया था, “इनसे मिलो ये वक़ार हैं।” वक़ार उसके लिए मुकम्मल अजनबी था मगर उस अजनबी-पन में एक अजीब सी जान-पहचान थी। जैसे बरसों या शायद सदियों के बाद आज वो दोनों मिले हों, और किसी एक ही भूली हुई बात को याद करने की कोशिश कर रहे हों। दूसरी बार शाहिदा की कॉफ़ी पार्टी में मुलाक़ात हुई थी, और इस बार भी बज़ाहिर उस बेगानगी के अंदर वही यग़ानगत उन दोनों को महसूस हो रही थी। ये पहली निगाह वाली मुहब्बत नहीं थी। एक अजीब सी क़ुरबत और गहरी जान पहचान का एहसास था। जो दोनों के दिलों में उमड़ रहा था जैसे बहुत पहले वो कहीं मिले हैं। बहुत लंबी-लंबी बहसें की हैं। आदात, ख़्यालात और ज़ाती पसंद के ताने-बाने पर एक दूसरे को परखा है। वो दोनों एक दूसरे के हाथ की गर्मी को जानते हैं। उस बर्क़ी रौ को पहचानते हैं जो निगाहों ही निगाहों में एक दूसरे को देखते ही दौड़ने लगती है। वो डोर जो दिल ही दिल में अंदर बंध जाती है और एक दूसरे से अलग होने के बाद अपने अपने घरों में अलग अलग, अपने अपने कमरों में अकेले आराम, सुकून और चैन से बैठे हुए भी यूँ महसूस होता है, जैसे वो डोर हिल रही है। एक ही समय में, वक़्त और एहसास के एक ही सानहे में वो दोनों एक दूसरे को याद कर रहे हैं। रात की तन्हाई में अज़्रा को अपने बिस्तर पर अकेले लेटे-लेटे एक दम एहसास हुआ जैसे उसके बहुत ही क़रीब उसके चेहरे पर वक़ार झुका हुआ है। घबरा कर उसने बेड स्विच दबा कर रौशनी की। कमरे में कोई ना था। फिर भी वो घबरा सी गई। लजा सी गई उस एक लम्हे में ऐसा महसूस हुआ जैसे उसका राज़ वक़ार को मालूम हो गया। तीसरी बार जब वक़ार से रऊफ़ की दावत पर मिली तो बे इख़तियार उस की आँखें झुक गईं और रुख़्सारों पे रंग आ गया। मुहब्बत करने वाली औरत का दिल बहुत शफ़्फ़ाफ़ है। वक़ार और अज़्रा को एक दूसरे के क़रीब आते ज़्यादा देर नहीं लगी। कुछ ऐसा महसूस होता है जैसे बनाने वाले ने उन दोनों को बनाया तो एक दूसरे के लिए ही था। दोनों ज़िद्दी और मग़रूर थे। रास्त बाज़ और मेहनती, ना किसी से दबने वाले ना किसी से बेजा ख़ुशामद करने वाले, दोनों किसी क़दर कज-बहस भी थे। और शायद वो बहस सदियों पहले उनके दरमियान शुरू हुई थी अब फिर जारी हो रही थी। दोनों साईंस के बहुत अच्छे तालिब-ए-इल्म थे। और यूनीवर्सिटी के चीदा स्कॉलरों में उनका शुमार होता था और आजकल साईंस में फ़लसफ़े से कहीं ज़्यादा बहस करने का मौक़ा है। इस पर तुर्रा ये कि दोनों वजीहा, ख़ूबसूरत और हसीन थे। लगता था क़ुदरत ने दोनों को एक ही साँचे और ठप्पे में ढाल कर एक दूसरे से दूर फेंक दिया था। हालात के महवर पर गर्दिश करते-करते अचानक वो एक दूसरे से आन मिले थे और अब ऐसा लगता था जैसे कभी एक दूसरे से अलग ना होंगे। ये पहचान तीन-चार साल तक चलती गई और गहरी होती गई। इस अरसे में वक़ार आई ए एस के इंतिख़ाब में आ चुका था और ट्रेनिंग हासिल कर रहा था। अज़्रा भी नैशनल लेबॉरेट्रीज़ में मुलाज़िम हो चुकी थी और अपने महबूब मौज़ू क्रिस्टोलॉजी पर रिसर्च कर रही थी। ज़िंदगी उन दोनों के लिए बहार के पहले झोंके की तरह शुरू हो रही थी। उन दोनों ने शादी का फ़ैसला कर लिया था। मगर शादी से चंद रोज़ पहले अज़्रा के मुँह से 'नहीं' निकल गया। बरसों बाद आज भी जब वो वाक़्ये को याद करती है तो उसे उस ‘नहीं’ पर हैरत तो नहीं होती, हाँ इस ‘नहीं’ पर जमे और अड़े रहने पर हैरत होती है।
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