बेगू

Shayari By

तसल्लियां और दिलासे बेकार हैं। लोहे और सोने के ये मुरक्कब में छटांकों फांक चुका हूँ। कौन सी दवा है जो मेरे हलक़ से नहीं उतारी गई। मैं आपके अख़लाक़ का ममनून हूँ मगर डाक्टर साहब मेरी मौत यक़ीनी है। आप कैसे कह रहे हैं कि मैं दिक़ का मरीज़ नहीं। क्या मैं हर रोज़ ख़ून नहीं थूकता?
आप यही कहेंगे कि मेरे गले और दाँतों की ख़राबी का नतीजा है मगर मैं सब कुछ जानता हूँ। मेरे दोनों फेफड़े ख़ाना-ए-ज़ंबूर की तरह मुशब्बक हो चुके हैं। आपके इंजेक्शन मुझे दुबारा ज़िंदगी नहीं बख़्श सकते। देखिए, मैं इस वक़्त आपसे बातें कर रहा हूँ। मगर सीने पर एक वज़नी इंजन दौड़ता हुआ महसूस कर रहा हूँ। मालूम होता है कि मैं एक तारीक गढ़े में उतर रहा हूँ... क़ब्र भी तो एक तारीक गढ़ा है।

आप मेरी तरफ़ इस तरह न देखिए डाक्टर साहब, मुझे इस चीज़ का कामिल एहसास है कि आप अपने हस्पताल में किसी मरीज़ का मरना पसंद नहीं करते मगर जो चीज़ अटल है वो होके रहेगी। आप ऐसा कीजिए कि मुझे यहां से रुख़सत कर दीजिए। मेरी टांगों में तीन-चार मील चलने की क़ुव्वत अभी बाक़ी है। किसी क़रीब के गांव में चला जाऊंगा और... मगर मैं तो रो रहा हूँ। नहीं नहीं। डाक्टर साहब यक़ीन कीजिए। मैं मौत से ख़ाइफ़ नहीं। ये मेरे जज़्बात हैं, जो आँसूओं की शक्ल में बाहर निकल रहे हैं।
आह! आप क्या जानें। इस मदक़ूक़ के सीने से क्या कुछ बाहर निकलने को मचल रहा है। मैं अपने अंजाम से बाख़बर हूँ। आज से पाँच बरस पहले भी मैं इस वहशतनाक अंजाम से बाख़बर था। जानता था और अच्छी तरह जानता था कि कुछ अर्सा के बाद मेरी ज़िंदगी की दौड़ ख़त्म हो जाएगी। [...]

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तसल्लियां और दिलासे बेकार हैं। लोहे और सोने के ये मुरक्कब में छटांकों फांक चुका हूँ। कौन सी दवा है जो मेरे हलक़ से नहीं उतारी गई। मैं आपके अख़लाक़ का ममनून हूँ मगर डाक्टर साहब मेरी मौत यक़ीनी है। आप कैसे कह रहे हैं कि मैं दिक़ का मरीज़ नहीं। क्या मैं हर रोज़ ख़ून नहीं थूकता?
आप यही कहेंगे कि मेरे गले और दाँतों की ख़राबी का नतीजा है मगर मैं सब कुछ जानता हूँ। मेरे दोनों फेफड़े ख़ाना-ए-ज़ंबूर की तरह मुशब्बक हो चुके हैं। आपके इंजेक्शन मुझे दुबारा ज़िंदगी नहीं बख़्श सकते। देखिए, मैं इस वक़्त आपसे बातें कर रहा हूँ। मगर सीने पर एक वज़नी इंजन दौड़ता हुआ महसूस कर रहा हूँ। मालूम होता है कि मैं एक तारीक गढ़े में उतर रहा हूँ... क़ब्र भी तो एक तारीक गढ़ा है।

आप मेरी तरफ़ इस तरह न देखिए डाक्टर साहब, मुझे इस चीज़ का कामिल एहसास है कि आप अपने हस्पताल में किसी मरीज़ का मरना पसंद नहीं करते मगर जो चीज़ अटल है वो होके रहेगी। आप ऐसा कीजिए कि मुझे यहां से रुख़सत कर दीजिए। मेरी टांगों में तीन-चार मील चलने की क़ुव्वत अभी बाक़ी है। किसी क़रीब के गांव में चला जाऊंगा और... मगर मैं तो रो रहा हूँ। नहीं नहीं। डाक्टर साहब यक़ीन कीजिए। मैं मौत से ख़ाइफ़ नहीं। ये मेरे जज़्बात हैं, जो आँसूओं की शक्ल में बाहर निकल रहे हैं।
आह! आप क्या जानें। इस मदक़ूक़ के सीने से क्या कुछ बाहर निकलने को मचल रहा है। मैं अपने अंजाम से बाख़बर हूँ। आज से पाँच बरस पहले भी मैं इस वहशतनाक अंजाम से बाख़बर था। जानता था और अच्छी तरह जानता था कि कुछ अर्सा के बाद मेरी ज़िंदगी की दौड़ ख़त्म हो जाएगी। [...]

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तसल्लियां और दिलासे बेकार हैं। लोहे और सोने के ये मुरक्कब में छटांकों फांक चुका हूँ। कौन सी दवा है जो मेरे हलक़ से नहीं उतारी गई। मैं आपके अख़लाक़ का ममनून हूँ मगर डाक्टर साहब मेरी मौत यक़ीनी है। आप कैसे कह रहे हैं कि मैं दिक़ का मरीज़ नहीं। क्या मैं हर रोज़ ख़ून नहीं थूकता?
आप यही कहेंगे कि मेरे गले और दाँतों की ख़राबी का नतीजा है मगर मैं सब कुछ जानता हूँ। मेरे दोनों फेफड़े ख़ाना-ए-ज़ंबूर की तरह मुशब्बक हो चुके हैं। आपके इंजेक्शन मुझे दुबारा ज़िंदगी नहीं बख़्श सकते। देखिए, मैं इस वक़्त आपसे बातें कर रहा हूँ। मगर सीने पर एक वज़नी इंजन दौड़ता हुआ महसूस कर रहा हूँ। मालूम होता है कि मैं एक तारीक गढ़े में उतर रहा हूँ... क़ब्र भी तो एक तारीक गढ़ा है।

आप मेरी तरफ़ इस तरह न देखिए डाक्टर साहब, मुझे इस चीज़ का कामिल एहसास है कि आप अपने हस्पताल में किसी मरीज़ का मरना पसंद नहीं करते मगर जो चीज़ अटल है वो होके रहेगी। आप ऐसा कीजिए कि मुझे यहां से रुख़सत कर दीजिए। मेरी टांगों में तीन-चार मील चलने की क़ुव्वत अभी बाक़ी है। किसी क़रीब के गांव में चला जाऊंगा और... मगर मैं तो रो रहा हूँ। नहीं नहीं। डाक्टर साहब यक़ीन कीजिए। मैं मौत से ख़ाइफ़ नहीं। ये मेरे जज़्बात हैं, जो आँसूओं की शक्ल में बाहर निकल रहे हैं।
आह! आप क्या जानें। इस मदक़ूक़ के सीने से क्या कुछ बाहर निकलने को मचल रहा है। मैं अपने अंजाम से बाख़बर हूँ। आज से पाँच बरस पहले भी मैं इस वहशतनाक अंजाम से बाख़बर था। जानता था और अच्छी तरह जानता था कि कुछ अर्सा के बाद मेरी ज़िंदगी की दौड़ ख़त्म हो जाएगी। [...]

मीठा माशूक़

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अल्लाह बख़्शे मिर्ज़ा साहब का दिमाग़ बज़ला संजियों का ज़ख़ीरा था, ज़बान चुटकुलों की पोट थी। फिर उम्र भी इतनी पाई कि दूसरे के पास इतना सामान हो ही नहीं सकता था। इसके अलावा अंदाज़-ए-बयान कुछ ऐसा था कि सीधी सीधी बात रोज़मर्रा के वाक़ियात जब कहने लगते थे तो दास्तानगो की दास्तानें मात थीं।
न मालूम किस तरह का उलट-फेर लफ़्ज़ों का होता था कि जुमलों में नए नए माअनों की झलक पैदा होजाती थी। फ़िक़्रों में असली मअनी के साथ साथ दूसरे पहलुओं की परछाईयां दिखाई देती थीं जैसे नगीने की छूट पड़ती है। इख्तिसार के बादशाह थे। एक दिन एक शायर साहब कहने लगे मैं तो बहुत कम कहता हूँ। मिर्ज़ा साहब बोले ख़ैर ग़नीमत है। उनका तूल भी ऐसा ही दिल-आवेज़ होता था। किसी ने मिज़ाजे शरीफ़ पूछा, कहने लगे अगर शुक्र नहीं भी है तो शिकायत की मजाल किसको है।

एक क़िस्सा ख़ुद अपने ख़ानदान का बयान करते थे, मगर वो ज़बान कहाँ से लाऊँगा, फ़रमाने लगे कि ग़दर के बाद हमारे एक दाधियाली अज़ीज़ थे। लखनऊ से फ़ासिले पर रहते थे। उनका मुक़द्दमा फ़ाइनांशली में था। रेल उस वक़्त तक निकली नहीं थी। लोग शुक्रम और ऊंट गाड़ियों पर सफ़र करते थे। उमरा कहारों की डाक बिठाकर चलते थे। मुतवस्सित हाल लोग अपने घर की रथ बहलियों पर मा नौकरों चाकरों के आहिस्ता ख़िराम बल्कि मुखराम की चाल चलते थे। उन्हीं हज़रात में मिर्ज़ा साहब के चचा भी थे, ख़ुद बहली पर, और मुसाहिबत में मुख़्तसर रियासत के दीवान मुंशी बख़्त बली काइस्थ जिनके छोटी बड़ी रियासत का होना वैसा ही मुम्किन था जैसे उनकी माश की दाल बे हींग के हो। जिलौ में कारकुन साहब जिनको नायब कह लीजिए, टट्टू पर एक लठ बंद सिपाही और दो नफ़र हमराही, जिनमें एक बड़े मिर्ज़ा साहब का ख़िदमतगार और दूसरा नायब साहब का नीम साईस और नीम ख़िदमतगार और वक़्त-ए-ज़रूरत बावर्ची भी। मेरी गुस्ताख़ी की जसारत माफ़ हो। इस जगह में अपने पढ़ने वालों का इम्तिहान लेना चाहता हूँ, भला बताईए तो इस कहानी का हीरो कौन है। “इतने के बीच मोरी बिंदिया हिरानी।” है, उन्हीं लोगों में मगर तिनके ओट पहाड़ अगरा प बोझ गए तो हम भी क़ाइल हैं।
बहली के साज़-ओ-सामान में बिछौने, लाला की लुटिया, मिर्ज़ा साहब का लोटा, जा-नमाज़, मुख़्तसर सामान मतबख़, एक अदद तवा और एक दो पतीलियां, कुछ दाल मसाले की पोटली बहली के पीछे जाल में, मिसिल मुक़द्दमा की दीवान जी की बग़ल में,मगर लाला साहब और बड़े मिर्ज़ा साहब के दरमियान में और गाड़ीबान के पीछे ये कौन चीज़ रखी है। हज़रत उसको न पूछिए, यही तो क़िस्से की जान है। अगर ये न होती तो कहाँ हम कहाँ आप, ये कहानी, बड़े मिर्ज़ा साहब के ऐसे हज़ारों सफ़र कर गए, हज़ारों सफ़र कर रहे हैं और लाखों सफ़र करेंगे, मगर हर मुसाफ़िर की कहानी थोड़े ही लिखी जा सकती है। दास्तानगो और क़द्रदानों को जमा करने वाली वही है जो बहली के बीचों बीच में बड़ी हिफ़ाज़त से रखी है। ये मिठाई की एक टोकरी है जिसमें कम से कम दस बारह सेर मिठाई होगी। उस पर एक पुरानी चादर सिली हुई है और अंदाज़ से सौग़ात मालूम होती है। [...]

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