ज्ञान की शूटिंग थी इसलिए किफ़ायत जल्दी सो गया। फ़्लैट में और कोई नहीं था, बीवी-बच्चे रावलपिंडी चले गए थे। हमसायों से उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी। यूं भी बंबई में लोगों को अपने हमसायों से कोई सरोकार नहीं होता। किफ़ायत ने अकेले ब्रांडी के चार पैग पिए। खाना खाया, नौकरों को रुख़सत किया और दरवाज़ा बंद करके सो गया। रात के पाँच बजे के क़रीब किफ़ायत के ख़ुमारआलूद कानों को धक की आवाज़ सुनाई दी। उसने आँखें खोलीं। नीचे बाज़ार में एक ट्रेन दनदनाती हुई गुज़री। चंद लम्हात के बाद दरवाज़े पर बड़े ज़ोरों की दस्तक हुई। किफ़ायत उठा, पलंग पर उतरा तो उसके नंगे पैर टखनों तक पानी में चले गए। उसको सख़्त हैरत हुई कि कमरे में इतना पानी कहाँ से आया और बाहर कोरिडोर में उससे भी ज़्यादा पानी था। दरवाज़े पर दस्तक जारी थी, उसने पानी के मुतअ’ल्लिक़ सोचना छोड़ा और दरवाज़ा खोला। ज्ञान ने ज़ोर से कहा, “ये क्या है?” किफ़ायत ने जवाब दिया, “पानी।”
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