वकालत

Shayari By

मंज़ूर है गुज़ारिश-ए-अहवाल-ए-वाक़ई
अपना बयान हुस्न-ए-तबीयत नहीं मुझे

वकालत भी क्या ही उम्दा... आज़ाद पेशा है। क्यों? सुनिए में बताता हूँ।
(1) [...]

शातिर की बीवी

Shayari By

(1)
उम्दा किस्म का सियाह-रंग का चमकदार जूता पहन कर घर से बाहर निकलने का असल लुतफ़ तो जनाब जब है जब मुँह में पान भी हो, तंबाकू के मज़े लेते हुए जूते पर नज़र डालते हुए बेद हिलाते जा रहे हैं। यही सोच कर में जल्दी-जल्दी चलते घर से दौड़ा। जल्दी में पान भी ख़ुद बनाया। अब देखता हूँ तो छालीया नदारद। मैंने ख़ानम को आवाज़ दी कि छालीया लाना और उन्होंने उस्तानी जी को पुकारा। उस्तानी जी वापिस मुझे पुकारा कि वो सामने ताक़ में रखी है। मैं दौड़ा हुआ पहुंचा। एक रकाबी में कटी और बे कटी यानी साबित छालीया रखी हुई थी। सरौता भी रखा हुआ था और सुबे से ताज्जुब की बात ये कि शतरंज का एक रख़स भी छालीया के साथ कटा रखा था। इस के तीन टुकड़े थे। एक तो आधा और दो पाओ पाओ। साफ़ ज़ाहिर है कि छालीया के धोके में कतरा गया है, मगर यहां किधर से आया। ग़ुस्सा और रंज तो गुमशुदगी का वैसे ही था। अब रुख की हालत-ए-ज़ार जो देखी तो मेरा वही हाल हुआ जो अली-बाबा का क़ासिम की लाश को देखकर हुआ था। ख़ानम के सामने जा कर रकाबी जूं की तूं रख दी। ख़ानम ने भवें चढ़ा कर देखा और यक-दम उनके ख़ूबसूरत चेहरे पर ताज्जु-बख़ेज़ मुस्कुराहट सी आकर रख गई और उन्होंने मस्नूई ताज्जुब से उस्तानी जी की तरफ़ रकाबी करते हुए देखा। उस्तानी जी एक दम से भवें चढ़ा कर दाँतों तले ज़बान दाब के आँखें फाड़ दें, फिर संजीदा हो कर बोलीं,

जब ही तो मैं कहूं या अल्लाह इतनी मज़बूत और सख़्त छालीया कहाँ से आ गई। कल रात अंधेरे में कट गया। जब से रकाबी जूं की तूं वहीं रखी है।
अजी ये यहां आया कैसे ? मैंने तेज़ हो कर कहा। [...]

रूपा

Shayari By

नीम सार से आगे क्रिया के अंधेरे जंगल के निकलते ही गोमती मग़रूर हसीनाओं की तरह दामन उठाकर चलती है... दूर तक फैले हुए रेतीले चमचमाते दामन में नबी नगर घड़ा है जैसे किसी बद-शौक़ रईस-ज़ादे ने अपने बुर्राक़ कपड़ों पर चिकनी मिट्टी से भरी हुई दवात उंडेल ली हो। मिट्टी के टूटे-फूटे मकान बचे खुचे छप्परों की टोपियाँ पहने बड़े फूहड़पने से बैठे हैं।
यह गाँव अवध के देहातों की ज़िद है। इसके गिर्द न तो बाँसी की वो घनी बाढ़ है जिसमें फँस कर सांप मर जाते हैं, न छतनार पीपलों और झलदारे बरगदों के वो ख़ामोश शामियाने हैं जिनके कुंजों में गालों के गुलाब और होंटों के शहतूत उगते हैं, न वो चौड़े चकले पनघट हैं जहाँ कुकरे बजाती पनिहारिनों के पैरों के बिछुवे अपने घुंघरुओं के डंक उठाए राहगीरों की राह तका करते हैं मगर दूर दूर तक यह गाँव जाना जाता है। यहाँ की भैंसें मशहूर हैं। यहाँ के गद्दी मशहूर हैं। यहाँ का रजब मशहूर है। सारंग आबाद राज का हाथी... वहाँ बड़हल के पेड़ों के झंडे के नीचे तक आकर रुक जाता है... कि हाथी के पैरों बराबर ऊँची दीवारों के पीछे कुलेलें करती हुई ग़रीब रानियों के खुले ढ़ले जिस्मों पर निगाहों की गर्द न पड़ जाये।

(2)
दस-बारह बरस का रजब अपने बाप के साथ सारंग आबाद राज की भैंसें लगाए गढ़ी जाया करता था। अपनी भूरी भैंसें लगाकर उसने अंगड़ाई ली तो सलीक़े के श्लोके का बटन चट से टूट कर गिर पड़ा। बटन उठाकर निगाह उठाई तो बौखला गया। सरकार खड़े हुए घूर रहे थे उसने जल्दी से सलाम कर लिया। [...]

Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close