स्वराज के लिए

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मुझे सन् याद नहीं रहा लेकिन वही दिन थे। जब अमृतसर में हर तरफ़ “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” के नारे गूंजते थे। उन नारों में, मुझे अच्छी तरह याद है, एक अ’जीब क़िस्म का जोश था... एक जवानी... एक अ’जीब क़िस्म की जवानी। बिल्कुल अमृतसर की गुजरियों की सी जो सर पर ऊपलों के टोकरे उठाए बाज़ारों को जैसे काटती हुई चलती हैं... ख़ूब दिन थे। फ़िज़ा में जो जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे का उदास ख़ौफ़ समोया रहता था। उस वक़्त बिल्कुल मफ़क़ूद था। अब उसकी जगह एक बेख़ौफ तड़प ने ले ली थी। एक अंधाधुंद जस्त ने जो अपनी मंज़िल से नावाक़िफ़ थी।
लोग नारे लगाते थे, जलूस निकालते थे और सैंकड़ों की ता’दाद में धड़ाधड़ क़ैद हो रहे थे। गिरफ़्तार होना एक दिलचस्प शग़ल बिन गया था। सुबह क़ैद हुए, शाम छोड़ दिए गए। मुक़द्दमा चला, चंद महीनों की क़ैद हुई, वापस आए, एक नारा लगाया, फिर क़ैद हो गए।

ज़िंदगी से भरपूर दिन थे। एक नन्हा सा बुलबुला फटने पर भी एक बहुत बड़ा भंवर बन जाता था। किसी ने चौक में खड़े हो कर तक़रीर की और कहा, हड़ताल होनी चाहिए, चलिए जी हड़ताल हो गई... एक लहर उठी कि हर शख़्स को खादी पहननी चाहिए ताकि लंका शाइर के सारे कारख़ाने बंद हो जाएं... बिदेशी कपड़ों का बायकॉट शुरू हो गया और हर चौक में अलाव जलने लगे। लोग जोश में आकर खड़े खड़े वहीं कपड़े उतारते और अलाव में फेंकते जाते, कोई औरत अपने मकान के शहनशीन से अपनी नापसंदीदा साड़ी उछालती तो हुजूम तालियां पीट पीट कर अपने हाथ लाल कर लेता।
मुझे याद है कोतवाली के सामने टाउन हाल के पास एक अलाव जल रहा था... शेख़ू ने जो मेरा हम-जमाअ’त था, जोश में आकर अपना रेशमी कोट उतारा और बिदेशी कपड़ों की चिता में डाल दिया। तालियों का समुंदर बहने लगा क्योंकि शेख़ू एक बहुत बड़े “टोडी बच्चे” का लड़का था। उस ग़रीब का जोश और भी ज़्यादा बढ़ गया। अपनी बोस्की की क़मीज़ उतार वो भी शो’लों की नज़र करदी, लेकिन बाद में ख़याल आया कि उसके साथ सोने के बटन थे। [...]

आनंदी

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बलदिया का इजलास ज़ोरों पर था। हाल खचाखच भरा हुआ था और खिलाफ़-ए-मा’मूल एक मेम्बर भी ग़ैर-हाज़िर न था। बलदिया के ज़ेर-ए-बहस मस्अला ये था कि ज़नान-बाज़ारी को शह्​र बदर कर दिया जाए क्योंकि उनका वुजूद इन्सानियत, शराफ़त और तहज़ीब के दामन पर बदनुमा दाग़ है।
बलदिया के एक भारी भरकम रुक्न जो मुल्क-ओ-क़ौम के सच्चे ख़ैर-ख़्वाह और दर्द-मंद समझे जाते थे निहायत फ़साहत से तक़रीर कर रहे थे।

“और फिर हज़रात आप ये भी ख़याल फ़रमाइए कि उनका क़याम शह्​र के एक ऐसे हिस्से में है जो न सिर्फ़ शह्​र के बीचों बीच आम गुज़र-गाह है बल्कि शह्​र का सबसे बड़ा तिजारती मर्कज़ भी है चुनाँचे हर शरीफ़ आदमी को चार-ओ-ना-चार इस बाज़ार से गुज़रना पड़ता है। अलावा अज़ीं शुरफ़ा की पाक दामन बहू बेटियाँ इस बाज़ार की तिजारती अहमियत की वज्ह से यहाँ आने और ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त करने पर मजबूर हैं। साहिबान! ये शरीफ़ ज़ादियाँ इन आबरू बाख़्ता, नीम उरियाँ बेस्वाओं के बनाव सिंगार को देखती हैं तो क़ुदरती तौर पर उनके दिल में भी आराइश-ओ-दिलरुबाई की नई-नई उमंगें और वलवले पैदा होते हैं और वो अपने ग़रीब शौहरों से तरह-तरह के गाज़ों, लेवेनडरों, ज़र्क़-बर्क़ साड़ियों और क़ीमती ज़ेवरों की फरमाइशें करने लगती हैं। नतीजा ये होता है कि उनका पुर-मसर्रत घर, उनका राहत-कदा हमेशा के लिए जहन्नम का नमूना बन जाता है।”
“और साहिबान फिर आप ये भी तो ख़याल फ़रमाइए कि हमारे नौ-निहालान-ए-क़ौम जो दर्सगाहों में ता’लीम पा रहे हैं और उनकी आइन्दा तरक़्क़ियों से क़ौम की उम्मीदें वाबस्ता हैं और क़यास कहता है कि एक न एक दिन क़ौम की कश्ती को भंवर से निकालने का सहरा उन्ही के सर बंधेगा, उन्हें भी सुब्ह शाम इसी बाज़ार से होकर आना-जाना पड़ता है। ये क़हबाएँ हर वक़्त बारा उभरन सोलह सिंगार किए राह-रौ पर बे-हिजाबाना निगाह-ओ-मिज़ह के तीर-ओ-सिनाँ बरसाती और उसे दावत-ए-हुस्न देती हैं। क्या इन्हें देख कर हमारे भोले-भाले ना-तजुर्बेकार जवानी के नशे में मह्व, सूद-ओ-ज़ियाँ से बे-परवाह नौ-निहालान-ए-क़ौम अपने जज़्बात-ओ-ख़यालात और अपनी आला सीरत को मा’सियत के मस्मूम असरात से महफ़ूज़ रख सकते हैं? साहिबान! क्या उनका हुस्न ज़ाहिद फ़रेब हमारे नौ-निहालान-ए-क़ौम को जादा-ए-मुस्तक़ीम से भटका कर, उनके दिल में गुनाह की पुर-असरार लज़्ज़तों की तिश्नगी पैदा करके एक बेकली, एक इज़्तिराब, एक हैजान बरपा न कर देता होगा।” [...]

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