अंगूठी की मुसीबत

Shayari By

(1)
मैंने शाहिदा से कहा, तो मैं जा के अब कुंजियाँ ले आऊँ।

शाहिदा ने कहा, आख़िर तू क्यों अपनी शादी के लिए इतनी तड़प रही है? अच्छा जा।
मैं हँसती हुई चली गई। कमरे से बाहर निकली। दोपहर का वक़्त था और सन्नाटा छाया हुआ था। अम्माँ जान अपने कमरे में सो रही थीं और एक ख़ादिमा पंखा झल रही थी। मैं चुपके से बराबर वाले कमरे में पहुंची और मसहरी के तकिया के नीचे से कुंजी का गुच्छा लिया। सीधी कमरे पर वापस आई और शाहिदा से कहा, जल्दी चलो। [...]

वकालत

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मंज़ूर है गुज़ारिश-ए-अहवाल-ए-वाक़ई
अपना बयान हुस्न-ए-तबीयत नहीं मुझे

वकालत भी क्या ही उम्दा... आज़ाद पेशा है। क्यों? सुनिए में बताता हूँ।
(1) [...]

अंगूठी की मुसीबत

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(1)
मैंने शाहिदा से कहा, तो मैं जा के अब कुंजियाँ ले आऊँ।

शाहिदा ने कहा, आख़िर तू क्यों अपनी शादी के लिए इतनी तड़प रही है? अच्छा जा।
मैं हँसती हुई चली गई। कमरे से बाहर निकली। दोपहर का वक़्त था और सन्नाटा छाया हुआ था। अम्माँ जान अपने कमरे में सो रही थीं और एक ख़ादिमा पंखा झल रही थी। मैं चुपके से बराबर वाले कमरे में पहुंची और मसहरी के तकिया के नीचे से कुंजी का गुच्छा लिया। सीधी कमरे पर वापस आई और शाहिदा से कहा, जल्दी चलो। [...]

शातिर की बीवी

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(1)
उम्दा किस्म का सियाह-रंग का चमकदार जूता पहन कर घर से बाहर निकलने का असल लुतफ़ तो जनाब जब है जब मुँह में पान भी हो, तंबाकू के मज़े लेते हुए जूते पर नज़र डालते हुए बेद हिलाते जा रहे हैं। यही सोच कर में जल्दी-जल्दी चलते घर से दौड़ा। जल्दी में पान भी ख़ुद बनाया। अब देखता हूँ तो छालीया नदारद। मैंने ख़ानम को आवाज़ दी कि छालीया लाना और उन्होंने उस्तानी जी को पुकारा। उस्तानी जी वापिस मुझे पुकारा कि वो सामने ताक़ में रखी है। मैं दौड़ा हुआ पहुंचा। एक रकाबी में कटी और बे कटी यानी साबित छालीया रखी हुई थी। सरौता भी रखा हुआ था और सुबे से ताज्जुब की बात ये कि शतरंज का एक रख़स भी छालीया के साथ कटा रखा था। इस के तीन टुकड़े थे। एक तो आधा और दो पाओ पाओ। साफ़ ज़ाहिर है कि छालीया के धोके में कतरा गया है, मगर यहां किधर से आया। ग़ुस्सा और रंज तो गुमशुदगी का वैसे ही था। अब रुख की हालत-ए-ज़ार जो देखी तो मेरा वही हाल हुआ जो अली-बाबा का क़ासिम की लाश को देखकर हुआ था। ख़ानम के सामने जा कर रकाबी जूं की तूं रख दी। ख़ानम ने भवें चढ़ा कर देखा और यक-दम उनके ख़ूबसूरत चेहरे पर ताज्जु-बख़ेज़ मुस्कुराहट सी आकर रख गई और उन्होंने मस्नूई ताज्जुब से उस्तानी जी की तरफ़ रकाबी करते हुए देखा। उस्तानी जी एक दम से भवें चढ़ा कर दाँतों तले ज़बान दाब के आँखें फाड़ दें, फिर संजीदा हो कर बोलीं,

जब ही तो मैं कहूं या अल्लाह इतनी मज़बूत और सख़्त छालीया कहाँ से आ गई। कल रात अंधेरे में कट गया। जब से रकाबी जूं की तूं वहीं रखी है।
अजी ये यहां आया कैसे ? मैंने तेज़ हो कर कहा। [...]

मीठा माशूक़

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अल्लाह बख़्शे मिर्ज़ा साहब का दिमाग़ बज़ला संजियों का ज़ख़ीरा था, ज़बान चुटकुलों की पोट थी। फिर उम्र भी इतनी पाई कि दूसरे के पास इतना सामान हो ही नहीं सकता था। इसके अलावा अंदाज़-ए-बयान कुछ ऐसा था कि सीधी सीधी बात रोज़मर्रा के वाक़ियात जब कहने लगते थे तो दास्तानगो की दास्तानें मात थीं।
न मालूम किस तरह का उलट-फेर लफ़्ज़ों का होता था कि जुमलों में नए नए माअनों की झलक पैदा होजाती थी। फ़िक़्रों में असली मअनी के साथ साथ दूसरे पहलुओं की परछाईयां दिखाई देती थीं जैसे नगीने की छूट पड़ती है। इख्तिसार के बादशाह थे। एक दिन एक शायर साहब कहने लगे मैं तो बहुत कम कहता हूँ। मिर्ज़ा साहब बोले ख़ैर ग़नीमत है। उनका तूल भी ऐसा ही दिल-आवेज़ होता था। किसी ने मिज़ाजे शरीफ़ पूछा, कहने लगे अगर शुक्र नहीं भी है तो शिकायत की मजाल किसको है।

एक क़िस्सा ख़ुद अपने ख़ानदान का बयान करते थे, मगर वो ज़बान कहाँ से लाऊँगा, फ़रमाने लगे कि ग़दर के बाद हमारे एक दाधियाली अज़ीज़ थे। लखनऊ से फ़ासिले पर रहते थे। उनका मुक़द्दमा फ़ाइनांशली में था। रेल उस वक़्त तक निकली नहीं थी। लोग शुक्रम और ऊंट गाड़ियों पर सफ़र करते थे। उमरा कहारों की डाक बिठाकर चलते थे। मुतवस्सित हाल लोग अपने घर की रथ बहलियों पर मा नौकरों चाकरों के आहिस्ता ख़िराम बल्कि मुखराम की चाल चलते थे। उन्हीं हज़रात में मिर्ज़ा साहब के चचा भी थे, ख़ुद बहली पर, और मुसाहिबत में मुख़्तसर रियासत के दीवान मुंशी बख़्त बली काइस्थ जिनके छोटी बड़ी रियासत का होना वैसा ही मुम्किन था जैसे उनकी माश की दाल बे हींग के हो। जिलौ में कारकुन साहब जिनको नायब कह लीजिए, टट्टू पर एक लठ बंद सिपाही और दो नफ़र हमराही, जिनमें एक बड़े मिर्ज़ा साहब का ख़िदमतगार और दूसरा नायब साहब का नीम साईस और नीम ख़िदमतगार और वक़्त-ए-ज़रूरत बावर्ची भी। मेरी गुस्ताख़ी की जसारत माफ़ हो। इस जगह में अपने पढ़ने वालों का इम्तिहान लेना चाहता हूँ, भला बताईए तो इस कहानी का हीरो कौन है। “इतने के बीच मोरी बिंदिया हिरानी।” है, उन्हीं लोगों में मगर तिनके ओट पहाड़ अगरा प बोझ गए तो हम भी क़ाइल हैं।
बहली के साज़-ओ-सामान में बिछौने, लाला की लुटिया, मिर्ज़ा साहब का लोटा, जा-नमाज़, मुख़्तसर सामान मतबख़, एक अदद तवा और एक दो पतीलियां, कुछ दाल मसाले की पोटली बहली के पीछे जाल में, मिसिल मुक़द्दमा की दीवान जी की बग़ल में,मगर लाला साहब और बड़े मिर्ज़ा साहब के दरमियान में और गाड़ीबान के पीछे ये कौन चीज़ रखी है। हज़रत उसको न पूछिए, यही तो क़िस्से की जान है। अगर ये न होती तो कहाँ हम कहाँ आप, ये कहानी, बड़े मिर्ज़ा साहब के ऐसे हज़ारों सफ़र कर गए, हज़ारों सफ़र कर रहे हैं और लाखों सफ़र करेंगे, मगर हर मुसाफ़िर की कहानी थोड़े ही लिखी जा सकती है। दास्तानगो और क़द्रदानों को जमा करने वाली वही है जो बहली के बीचों बीच में बड़ी हिफ़ाज़त से रखी है। ये मिठाई की एक टोकरी है जिसमें कम से कम दस बारह सेर मिठाई होगी। उस पर एक पुरानी चादर सिली हुई है और अंदाज़ से सौग़ात मालूम होती है। [...]

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