ग़ज़ल शायरी संग्रह | शास्त्रीय काव्य रचनाएं

17 शास्त्रीय ग़ज़ल शायरी चित्र

शास्त्रीय ग़ज़ल शायरी का बेहतरीन संग्रह। हर रचना में झलकती है ग़ज़ल की गरिमा और सौंदर्य।

आग का रिश्ता निकल आए कोई पानी के साथ
आग का रिश्ता निकल आए कोई पानी के साथ
ज़िंदा रह सकता हूँ ऐसी ही ख़ुश-इम्कानी के साथ
तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें
जो मोहब्बत मुफ़्त में मिल जाए आसानी के साथ


बात है कुछ ज़िंदा रह जाना भी अपना आज तक
लहर थी आसूदगी की भी परेशानी के साथ
चल रहा है काम सारा ख़ूब मिल-जुल कर यहाँ
कुफ़्र भी चिमटा हुआ है जज़्ब-ए-ईमानी के साथ


फ़र्क़ पड़ता है कोई लोगों में रहने से ज़रूर
शहर के आदाब थे अपनी बयाबानी के साथ
ये वो दुनिया है कि जिस का कुछ ठिकाना ही नहीं
हम गुज़ारा कर रहे हैं दुश्मन-ए-जानी के साथ


राएगानी से ज़रा आगे निकल आए हैं हम
इस दफ़ा तो कुछ गिरानी भी है अर्ज़ानी के साथ
अपनी मर्ज़ी से भी हम ने काम कर डाले हैं कुछ
लफ़्ज़ को लड़वा दिया है बेशतर मअ'नी के साथ


फ़ासलों ही फ़ासलों में जान से हारा 'ज़फ़र'
इश्क़ था लाहोरिये को एक मुल्तानी के साथ

- zafar-iqbal


आग के दरमियान से निकला
आग के दरमियान से निकला
मैं भी किस इम्तिहान से निकला
फिर हवा से सुलग उठे पत्ते
फिर धुआँ गुल्सितान से निकला


जब भी निकला सितारा-ए-उम्मीद
कोहर के दरमियान से निकला
चाँदनी झाँकती है गलियों में
कोई साया मकान से निकला


एक शो'ला फिर इक धुएँ की लकीर
और क्या ख़ाक-दान से निकला
चाँद जिस आसमान में डूबा
कब उसी आसमान से निकला


ये गुहर जिस को आफ़्ताब कहें
किस अँधेरे की कान से निकला
शुक्र है उस ने बेवफ़ाई की
मैं कड़े इम्तिहान से निकला


लोग दुश्मन हुए उसी के 'शकेब'
काम जिस मेहरबान से निकला

- shakeb-jalali


आ के पत्थर तो मिरे सहन में दो चार गिरे
आ के पत्थर तो मिरे सहन में दो चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पस-ए-दीवार गिरे
ऐसी दहशत थी फ़ज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे


मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरूँ
जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे
तीरगी छोड़ गए दिल में उजाले के ख़ुतूत
ये सितारे मिरे घर टूट के बेकार गिरे


क्या हवा हाथ में तलवार लिए फिरती थी
क्यूँ मुझे ढाल बनाने को ये छितनार गिरे
देख कर अपने दर-ओ-बाम लरज़ जाता हूँ
मिरे हम-साए में जब भी कोई दीवार गिरे


वक़्त की डोर ख़ुदा जाने कहाँ से टूटे
किस घड़ी सर पे ये लटकी हुई तलवार गिरे
हम से टकरा गई ख़ुद बढ़ के अँधेरे की चटान
हम सँभल कर जो बहुत चलते थे नाचार गिरे


क्या कहूँ दीदा-ए-तर ये तो मिरा चेहरा है
संग कट जाते हैं बारिश की जहाँ धार गिरे
हाथ आया नहीं कुछ रात की दलदल के सिवा
हाए किस मोड़ पे ख़्वाबों के परस्तार गिरे


वो तजल्ली की शुआएँ थीं कि जलते हुए पर
आइने टूट गए आइना-बरदार गिरे
देखते क्यूँ हो 'शकेब' इतनी बुलंदी की तरफ़
न उठाया करो सर को कि ये दस्तार गिरे


- shakeb-jalali


आए थे उन के साथ नज़ारे चले गए
आए थे उन के साथ नज़ारे चले गए
वो शब वो चाँदनी वो सितारे चले गए
शायद तुम्हारे साथ भी वापस न आ सकें
वो वलवले जो साथ तुम्हारे चले गए


कश्ती तड़प के हल्क़ा-ए-तूफ़ाँ में रह गई
देखो तो कितनी दूर किनारे चले गए
हर आस्ताँ अगरचे तिरा आस्ताँ न था
हर आस्ताँ पे तुझ को पुकारे चले गए


शाम-ए-विसाल ख़ाना-ए-ग़ुर्बत से रूठ कर
तुम क्या गए नसीब हमारे चले गए
देखा तो फिर वहीं थे चले थे जहाँ से हम
कश्ती के साथ साथ किनारे चले गए


महफ़िल में किस को ताब-ए-हुज़ूर-ए-जमाल थी
आए तिरी निगाह के मारे चले गए
जाते हुजूम-ए-हश्र में हम आसियान-ए-दहर
ऐ लुत्फ़-ए-यार तेरे सहारे चले गए


दुश्मन गए तो कशमकश-ए-दोस्ती गई
दुश्मन गए कि दोस्त हमारे चले गए
जाते ही उन के 'सैफ़' शब-ए-ग़म ने आ लिया
रुख़्सत हुआ वो चाँद सितारे चले गए


- saifuddin-saif


आ गई याद शाम ढलते ही
आ गई याद शाम ढलते ही
बुझ गया दिल चराग़ जलते ही
खुल गए शहर-ए-ग़म के दरवाज़े
इक ज़रा सी हवा के चलते ही


कौन था तू कि फिर न देखा तुझे
मिट गया ख़्वाब आँख मलते ही
ख़ौफ़ आता है अपने ही घर से
माह-ए-शब-ताब के निकलते ही


तू भी जैसे बदल सा जाता है
अक्स-ए-दीवार के बदलते ही
ख़ून सा लग गया है हाथों में
चढ़ गया ज़हर गुल मसलते ही


- muneer-niyazi


आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
इस के बा'द आए जो अज़ाब आए
बाम-ए-मीना से माहताब उतरे
दस्त-ए-साक़ी में आफ़्ताब आए


हर रग-ए-ख़ूँ में फिर चराग़ाँ हो
सामने फिर वो बे-नक़ाब आए
उम्र के हर वरक़ पे दिल की नज़र
तेरी मेहर-ओ-वफ़ा के बाब आए


कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बे-हिसाब आए
न गई तेरे ग़म की सरदारी
दिल में यूँ रोज़ इंक़लाब आए


जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम
जब भी हम ख़ानुमाँ-ख़राब आए
इस तरह अपनी ख़ामुशी गूँजी
गोया हर सम्त से जवाब आए


'फ़ैज़' थी राह सर-ब-सर मंज़िल
हम जहाँ पहुँचे कामयाब आए

- faiz-ahmad-faiz


आ निकल के मैदाँ में दो-रुख़ी के ख़ाने से
आ निकल के मैदाँ में दो-रुख़ी के ख़ाने से
काम चल नहीं सकता अब किसी बहाने से
अहद-ए-इंक़लाब आया दौर-ए-आफ़्ताब आया
मुंतज़िर थीं ये आँखें जिस की इक ज़माने से


अब ज़मीन गाएगी हल के साज़ पर नग़्मे
वादियों में नाचेंगे हर तरफ़ तराने से
अहल-ए-दिल उगाएँगे ख़ाक से मह ओ अंजुम
अब गुहर सुबुक होगा जौ के एक दाने से


मनचले बुनेंगे अब रंग-ओ-बू के पैराहन
अब सँवर के निकलेगा हुस्न कार-ख़ाने से
आम होगा अब हमदम सब पे फ़ैज़ फ़ितरत का
भर सकेंगे अब दामन हम भी इस ख़ज़ाने से


मैं कि एक मेहनत-कश मैं कि तीरगी-दुश्मन
सुब्ह-ए-नौ इबारत है मेरे मुस्कुराने से
ख़ुद-कुशी ही रास आई देख बद-नसीबों को!
ख़ुद से भी गुरेज़ाँ हैं भाग कर ज़माने से


अब जुनूँ पे वो साअत आ पड़ी कि ऐ 'मजरूह'
आज ज़ख़्म-ए-सर बेहतर दिल पे चोट खाने से

- majrooh-sultanpuri


आ ही जाएगी सहर मतला-ए-इम्काँ तो खुला
आ ही जाएगी सहर मतला-ए-इम्काँ तो खुला
न सही बाब-ए-क़फ़स रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो खुला
ले के आई तो सबा उस गुल-ए-चीनी का पयाम
वो सही ज़ख़्म की सूरत लब-ए-ख़ंदाँ तो खुला


सैल-ए-रंग आ ही रहेगा मगर ऐ किश्त-ए-चमन
ज़र्ब-ए-मौसम तो पड़ी बंद-ए-बहाराँ तो खुला
दिल तलक पहुँचे न पहुँचे मगर ऐ चश्म-ए-हयात
बाद मुद्दत के तिरा पंजा-ए-मिज़्गाँ तो खुला


दर्द का दर्द से रिश्ता है चलो ऐ 'मजरूह'
आज यारों से ये इक उक़्दा-ए-आसाँ तो खुला

- majrooh-sultanpuri


आदमी अपनी ज़ात में तन्हा
आदमी अपनी ज़ात में तन्हा
आलम-ए-शश-जिहात में तन्हा
ऐ ख़ुदा तू ही बे-मिसाल नहीं
मैं भी हूँ काएनात में तन्हा


मुझ को हर एक बात का ग़म है
मैं हूँ हर एक बात में तन्हा
मौत के दश्त-ए-बे-कनार में गुम
शहर के हादसात में तन्हा


मुझ को किस जुर्म में उतार दिया
कार-ज़ार-ए-हयात में तन्हा
बे-अमाँ दुश्मनों की ज़द में हूँ
दहर के सोमनात में तन्हा


आप-अपनी तलाश है मुझ को
हूँ अजब मुश्किलात में तन्हा

- jameel-yusuf


आग जो बाहर है पहुँचेगी अंदर भी
आग जो बाहर है पहुँचेगी अंदर भी
साए जल जाएँगे और फिर पैकर भी
तेरी आँखों में आँसू भी देखे हैं
तेरे हाथों में देखा है ख़ंजर भी


पारख है तो मुझ को परख हुश्यारी से
मैं इक गौहर भी हूँ मैं इक पत्थर भी
ख़्वाबों में भी रहता हूँ बेचैन बहुत
चैन नहीं मिलता है मुझ को सो कर भी


कब तक जंग लड़ेगा तेरे सूरज से
सूखेगा इक दिन आख़िर ये सागर भी
शफ़क़-ए-शाम का दिन भर था अरमान मुझे
ख़ून-आलूदा निकला है ये मंज़र भी


फूल की पती भी है बार मुझे 'मंज़ूर'
देखोगे तो लगता हूँ इक पत्थर भी

- hakeem-manzoor


आ ही गया वो मुझ को लहद में उतारने
आ ही गया वो मुझ को लहद में उतारने
ग़फ़लत ज़रा न की मिरे ग़फ़लत-शिआर ने
ओ बे-नसीब दिन के तसव्वुर से ख़ुश न हो
चोला बदल लिया है शब-ए-इंतिज़ार ने


अब तक असीर-ए-दाम-ए-फ़रेब-ए-हयात हूँ
मुझ को भुला दिया मिरे पर्वरदिगार ने
नौहागरों को भी है गला बैठने की फ़िक्र
जाता हूँ आप अपनी अजल को पुकारने


देखा न कारोबार-ए-मोहब्बत कभी 'हफ़ीज़'
फ़ुर्सत का वक़्त ही न दिया कारोबार ने

- hafeez-jalandhari


आग ही आग है गुलशन ये कोई क्या जाने
आग ही आग है गुलशन ये कोई क्या जाने
किस ने फूँका है नशेमन ये कोई क्या जाने
न कहीं सोज़न-ओ-रिश्ता न कहीं बख़िया-गरी
सर-ब-सर चाक है दामन ये कोई क्या जाने


देखते फिरते हैं लोग आईने सय्यारों के
दिल का गोशा भी है दर्पन ये कोई क्या जाने
हुस्न हर हाल में है हुस्न परागंदा नक़ाब
कोई पर्दा है न चिलमन ये कोई क्या जाने


'अर्श' ऊँचा था सर-ए-फ़न कभी या फ़ख़्र ओ ग़ुरूर
अब तह-ए-तेग़ है गर्दन ये कोई क्या जाने

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आफ़तों में घिर गया हूँ ज़ीस्त से बे-ज़ार हूँ
आफ़तों में घिर गया हूँ ज़ीस्त से बे-ज़ार हूँ
मैं किसी रूमान-ए-ग़म का मरकज़ी किरदार हूँ
मुद्दतों खेली हैं मुझ से ग़म की बेदर्द उँगलियाँ
मैं रबाब-ए-ज़ि़ंदगी का इक शिकस्ता तार हूँ


दूसरों का दर्द 'अख़्तर' मेरे दिल का दर्द है
मुब्तला-ए-ग़म है दुनिया और मैं ग़म-ख़्वार हूँ

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आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
है गरेबाँ नंग-ए-पैराहन जो दामन में नहीं
ज़ोफ़ से ऐ गिर्या कुछ बाक़ी मिरे तन में नहीं
रंग हो कर उड़ गया जो ख़ूँ कि दामन में नहीं


हो गए हैं जमा अजज़ा-ए-निगाह-ए-आफ़ताब
ज़र्रे उस के घर की दीवारों के रौज़न में नहीं
क्या कहूँ तारीकी-ए-ज़िन्दान-ए-ग़म अंधेर है
पुम्बा नूर-व-सुब्ह से कम जिस के रौज़न में नहीं


रौनक़-ए-हस्ती है इश्क़-ए-ख़ाना वीराँ साज़ से
अंजुमन बे-शमा है गर बर्क़ ख़िर्मन में नहीं
ज़ख़्म सिलवाने से मुझ पर चारा-जुई का है तान
ग़ैर समझा है कि लज़्ज़त ज़ख़्म-ए-सोज़न में नहीं


बस-कि हैं हम इक बहार-ए-नाज़ के मारे हुए
जल्वा-ए-गुल के सिवा गर्द अपने मदफ़न में नहीं
क़तरा क़तरा इक हयूला है नए नासूर का
ख़ूँ भी ज़ौक़-ए-दर्द से फ़ारिग़ मिरे तन में नहीं


ले गई साक़ी की नख़वत क़ुल्ज़ुम-आशामी मिरी
मौज-ए-मय की आज रग मीना की गर्दन में नहीं
हो फ़िशार-ए-ज़ोफ़ में क्या ना-तवानी की नुमूद
क़द के झुकने की भी गुंजाइश मिरे तन में नहीं


थी वतन में शान क्या 'ग़ालिब' कि हो ग़ुर्बत में क़द्र
बे-तकल्लुफ़ हूँ वो मुश्त-ए-ख़स कि गुलख़न में नहीं

-


आ के वो मुझ ख़स्ता-जाँ पर यूँ करम फ़रमा गया
आ के वो मुझ ख़स्ता-जाँ पर यूँ करम फ़रमा गया
कोई दम बैठा दिल-ए-नाशाद को बहला गया
कौन ला सकता है ताब उस के रुख़-ए-पुर-नूर की
जिस तरफ़ से हो के गुज़रा बर्क़ सी लहरा गया


आँख भर कर देख लेना कुछ ख़ता ऐसी न थी
क्या ख़बर क्यूँ उन को मुझ पर इतना ग़ुस्सा आ गया
फिर गई इक और ही दुनिया नज़र के सामने
बैठे बैठे क्या बताऊँ क्या मुझे याद आ गया


यक-ब-यक मग़्मूम के चेहरे पे रौनक़ आ गई
कौन जाने आँखों आँखों में वो क्या समझा गया
यूँ तो हम ने भी उसे देखा है लेकिन ऐ 'हमीद'
जाने तुझ को कौन सा अंदाज़ उस का भा गया


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आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला
आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला
भेड़िये पढ़ते नहीं हैं फ़ल्सफ़ा
रीछनी को शाएरी से क्या ग़रज़
तंग है तहज़ीब ही का क़ाफ़िया


खाल चिकनी हो तो धंदे हैं हज़ार
गीदड़ी ने कब कोई दोहा सुना
गोरख़र की धारियों को देख लो
सूट चौपाए भी लेते हैं सिला


लोमड़ी की दुम घनी कितनी भी हो
सतर-पोशी को नहीं कहते हया
शहर में उन के जो गुज़रा था 'सलीम'
लिख दिया है मैं ने सारा माजरा


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आ गया जब से नज़र वो शोख़ हरजाई मुझे
आ गया जब से नज़र वो शोख़ हरजाई मुझे
कू-ब-कू दर दर लिए फिरती है रुस्वाई मुझे
काम आशिक़ को किसी की ऐब-बीनी से नहीं
हुस्न-बीनी को ख़ुदा ने दी है बीनाई मुझे


जौर सहता हूँ बुतों के ना-तवानी के सबब
दिल उठा लूँ इस क़दर कब है तवानाई मुझे
जिस तरह आता है पीरी में जवानी का ख़याल
वस्ल की शब याद रोज़-ए-हिज्र में आई मुझे


गिनती एक इक नाम की हर गोर में मुर्दे हैं दफ़्न
बाद-ए-मुर्दन भी हुई दुश्वार तन्हाई मुझे
मिस्ल-ए-साग़र बज़्म-ए-आलम में मैं कब ख़ंदाँ हुआ
किस लिए देता है गर्दिश चर्ख़-ए-मीनाई मुझे


ऐन दानाई है 'नासिख़' इश्क़ में दीवानगी
आप सौदाई हैं जो कहते हैं सौदाई मुझे

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