ग़ज़ल शायरी

गाये-बाने की कला

ग़ज़ल शायरी की मोहक दुनिया में विलीन हो जहाँ प्रत्येक वाक्य एक श्रेष्ठता है जो आपकी आत्मा के साथ सहमत होती है। कवितात्मक अभिव्यक्तियों की रित्मिक धारा को आत्मिक गहराईयों के साथ आपको ले जाए। चाहे आप शब्दों के सरल गति में आराम ढूँढ़ें या गहरी-माया में खुद को डुबो दें, ग़ज़ल शायरी एक गहरा और भव्य अनुभव प्रदान करती है।

वो बज़्म कहाँ और ये दरयूज़ा-गरी
ले जाएगी मुझ को मिरी आशुफ़्ता-सरी
दीवाने ने तावील कोई पेश न की
होने को तो इल्ज़ाम से हो जाता बरी


इक देव ने क़िस्से में डराया था मुझे
फिर रात को सपने में चली आई परी
पत्थर को भी देखा तो चमक फूट पड़ी
सीखी है कहाँ तू ने ये आईना-गरी


ऐ ख़ल्वती-ए-हुस्न कभी पर्दा उठा
ऐ 'इश्क़-ए-जुनूँ-ख़ेज़ कभी पर्दा-दरी
बे-ताब है दुनिया मिरे नग़्मों के लिए
सुनता नहीं फ़रियाद यहाँ तू ही मिरी


- aadil-aseer-dehlvi


मेरे जीने की सज़ा हो जैसे
ज़िंदगी एक ख़ता हो जैसे
दिल के गुलशन से गुज़र जाती है
याद इक बाद-ए-सबा हो जैसे


यूँ ख़यालों में चले आते हो
कोई पाबंद-ए-वफ़ा हो जैसे
याद है तुझ से बिछड़ने का समाँ
शाख़ से फूल जुदा हो जैसे


अपनी बातों पे गुमाँ होता है
तू ने कुछ मुझ से कहा हो जैसे
उस से मिल कर हुआ महसूस 'असीर'
वो मिरे साथ रहा हो जैसे


- aadil-aseer-dehlvi


जहाँ शराब का मैं ने गिलास देखा है
ग़म-ए-हयात तुझे बद-हवास देखा है
जो इंकिसार है मेरा हिजाब-आलूदा
तिरे ग़ुरूर को भी बे-लिबास देखा है


किसी अमीर का कैफ़-ओ-सुरूर याद आया
किसी ग़रीब को जब भी उदास देखा है
हमें फ़रेब दिया है उस आदमी ने ज़रूर
जिसे ज़रा सा भी चेहरा-शनास देखा है


मिरी हयात से वाक़िफ़ नहीं क़लम मेरा
कि शा'इरी ने फ़क़त इक़्तिबास देखा है

- aadil-aseer-dehlvi


ग़म ही ग़म हैं ख़ुशी के पर्दे में
मौत है ज़िंदगी के पर्दे में
आरज़ूएँ सिसकती रहती हैं
मेरी तिश्ना-लबी के पर्दे में


कार-फ़रमा हैं हादसे लाखों
मेरी दरिया-दिली के पर्दे में
अब तमन्नाओं के हसीं ताइर
हैं मिरी बे-कसी के पर्दे में


किस की ख़ुशबू चमन चमन है 'असीर'
कौन है रौशनी के पर्दे में

- aadil-aseer-dehlvi


अपने ही दिल की बात से महका गया हूँ मैं
अपने ही रूह-ओ-जिस्म में घुलता गया हूँ मैं
ऐसी ही कुछ कशिश है जो हूँ फ़र्श-ए-ख़ाक पर
वर्ना बुलंदियों से भी ऊँचा गया हूँ मैं


ऐ 'इश्क़ राह-ए-दोस्त है दुश्वार-तर बहुत
या'नी निगाह-ए-नाज़ में आया गया हूँ मैं
हर चेहरा आइना है निगाहों के सामने
हर आइने के क़ल्ब में देखा गया हूँ मैं


मक़्सद हर इक निगाह का मेरी नज़र में था
क्या क्या फ़रेब-ए-दोस्त हैं बतला गया हूँ मैं
फिर कोई बात मेरी सबा ले के उड़ गई
ख़ुशबू की तरह फूलों से उड़ता गया हूँ मैं


या तो तिरे शबाब को पहुँची नहीं नज़र
या वुस'अत-ए-ख़याल से घबरा गया हूँ मैं
हर इब्तिदाई मरहला पेश-ए-नज़र भी था
क्या है मआल-ए-'इश्क़ ये समझा गया हूँ मैं


अश'आर मेरे तेरे तसव्वुर का जज़्ब हैं
जैसे तिरे ख़याल से मिलता गया हूँ मैं

- aadil-aseer-dehlvi


सौदा बराए ज़िंदगी आसान कर दिया
जो बिक नहीं रहा था उसे दान कर दिया
पूरी ग़ज़ल का लुत्फ़ उठा ही नहीं सके
मतले' ने इस क़दर हमें हैरान कर दिया


महफ़िल में कोई हुस्न का मिसरा' अगर मिला
इतने सुनाए शे'र कि दीवान कर दिया
पानी पहन के दौड़ लगा दी गली गली
दरिया ने खेल खेल में नुक़्सान कर दिया


हम तोड़ने गए थे नसीहत की बोटियाँ
ऑर्डर जनाब-ए-शैख़ ने जलपान कर दिया
मुश्किल में पड़ गए तिरे चक्कर में ख़ुद मगर
ख़ुश हैं कि रास्ता तिरा आसान कर दिया


सच्चाइयों ने ख़्वाब के सब खे़मे ढा दिए
और 'आशिक़ों को बे-सर-ओ-सामान कर दिया

- abbas-qamar


सामने वाले को हल्का जान कर भारी हैं आप
आप का मे'यार देखा कितने मे'यारी हैं आप
सारे दरिया सब समुंदर मुंतज़िर हैं आप के
जाइए बहिए मिरी आँखों से क्यों जारी हैं आप


उफ़ तलक करते नहीं ज़िल्ल-ए-इलाही के ख़िलाफ़
आप को दरबार की 'आदत है दरबारी हैं आप
आप की आज़ादियाँ हैं आप ही के हाथ में
जिस पे क़ुदरत भी है नाज़ाँ वो गिरफ़्तारी हैं आप


जिस्म के पिंजरे में ले कर घूमिए नन्ही सी जान
चंद साँसों की मिरे प्यारे अदाकारी हैं आप

- abbas-qamar


इस मुसीबत से निकलने का वसीला कर दे
खो गया है जो मिरा मुझ को वही ला कर दे
अब मैं कैसे तुझे समझाऊँ कि उलझन क्या है
खोल दे साँस की गिरहें मुझे ढीला कर दे


क्या पता कौन सा रंग ओढ़ के आ जाए बहार
और तिरा हाथ मिरे सामने पीला कर दे
एक चुटकी कि तिरी नाफ़ में पड़ जाएँ भँवर
एक बोसा कि तिरे गाल को गीला कर दे


रूह की आँच बढ़ा तेज़ कर एहसास की लौ
जिस्म को 'इश्क़-ओ-मोहब्बत का पतीला कर दे
इस्ति'आरा कोई मिल जाए मुझे ठोस ऐसा
जो तिरे हुस्न का मज़मून लचीला कर दे


- abbas-qamar


बे-ख़याली की रिदा दूर तलक तानी है
अब तो ये भी नहीं लगता कि परेशानी है
सर्द मौसम में भड़क उट्ठी है तन्हाई की आग
जो बढ़ा देती है मुश्किल वही आसानी है


आब-ए-गिर्या से है दीदार की सूरत पैदा
देखिए ग़ौर से आँख आँख नहीं पानी है
मैं तो एहसास की तस्वीर बना बैठा हूँ
रौनक़-ए-बज़्म-ए-तसव्वुर मिरी हैरानी है


ये जो दुनिया है ये दुनिया की बनाई हुई है
आदमी क्या है नज़रियात की शैतानी है
ये ग़ज़ल सुन के कहेंगे ‘क़मर-अब्बास-क़मर'
यार 'अब्बास-क़मर' तुम ने 'अजब ठानी है


- abbas-qamar


खड़े हैं मूसा उठाओ पर्दा दिखाओ तुम आब-ओ-ताब-ए-आरिज़
हिजाब क्यूँ है कि ख़ुद तजल्ली बनी हुई है हिजाब-ए-आरिज़
न रुक सकेगी ज़िया-ए-आरिज़ जो सद्द-ए-रह हो नक़ाब-ए-आरिज़
वो होगी बे-पर्दा रख के पर्दा ग़ज़ब की चंचल है ताब-ए-आरिज़


छुपा न मुँह दोनों हाथ से यूँ तड़पती है बर्क़-ए-ताब-ए-आरिज़
लगा न दे आग उँगलियों में ये गर्मी-ए-इज़्तिराब-ए-आरिज़
जो उन को लिपटा के गाल चूमा हया से आने लगा पसीना
हुई है बोसों की गर्म भट्टी खिंचे न क्यूँ कर शराब-ए-आरिज़


परी जो देखे कहे तड़प कर जो हूर देखे कहे फड़क कर
तुम्हारा गेसू जवाब-ए-गेसू तुम्हारा 'आरिज़ जवाब-ए-आरिज़
हुज़ूर घूँघट उठा के आएँ बड़ी चमक किस में है दिखाएँ
इधर रहे आफ़्ताब-ए-महशर उधर रहे आफ़्ताब-ए-आरिज़


छुपाना क्या एक का था मंज़ूर आज तक हैं जो चार मशहूर
ज़बूर तौरेत मुसहफ़ इंजील पाँचवीं है किताब-ए-आरिज़
न क्यूँ हो दा'वा बराबरी का वहाँ मिला तिल यहाँ सुवैदा
ये नुक़्ता-ए-इंतिख़ाब-ए-आरिज़ है वो नुक़्ता-ए-इंतिख़ाब-ए-आरिज़


पड़ा हूँ ग़श में मुझे सुँघा दो पसीना चेहरे का ज़ुल्फ़ की बू
नहीं है कम लख़लख़े से मुझ को ये मुश्क-ए-गेसू गुलाब-ए-आरिज़
जो शो'ला-रू मुँह छुपा के निकला धुआँ सर-ए-राह कुछ कुछ उट्ठा
लगी वो आतिश बने है जल कर नक़ाब-ए-आरिज़ कबाब-ए-आरिज़


न झेपो सुब्ह-ए-विसाल देखो तुम आँख से आँख तो मिलाओ
लिए हैं गिन गिन के मैं ने बोसे ज़बान पर है हिसाब-ए-आरिज़
करो न ग़ुस्से से लाल चेहरा भवों में डालो न बल ख़ुदारा
नहीं मजाल-ए-जलाल-ए-अबरू नहीं है ताब-ए-इताब-ए-आरिज़


जो गाल पर गाल हम रखेंगे शब-ए-विसाल उन के हाथ उठेंगे
तमांचे मारेंगे प्यार से वो बजेंगे चंग-ओ-रुबाब-ए-आरिज़
कमर को गर्दन को दस्त-ओ-लब को विसाल में लुत्फ़ दे रहा है
शबाब-ए-ज़ानू शबाब-ए-बाज़ू शबाब-ए-सीना शबाब-ए-आरिज़


जनाब-ए-'माइल' ये कूदक-ए-दिल बुतों की उल्फ़त में होगा कामिल
पढ़ाओ क़ुरआँ के बदले इस को बयाज़-ए-गर्दन किताब-ए-आरिज़

- ahmad-husain-mail


पहले से 'इश्क़ के वो ज़माने नहीं रहे
हम जैसे 'आशिक़ों के ठिकाने नहीं रहे
नफ़रत की आंधियों में गिरफ़्तार हो गए
होंटों पे चाहतों के तराने नहीं रहे


हम ने भी छोड़ दी वो हसीनों की रहगुज़र
भौंरे भी फूल के ये दिवाने नहीं रहे
मंज़र हसीन ख़्वाबों के दिल से उतर गए
मौसम भी बारिशों के सुहाने नहीं रहे


तहज़ीबें ज़िंदगी की ये पामाल हो गईं
महफ़िल में लोग जब से पुराने नहीं रहे
'आबिद' हैं कौन सी ये रिवायत के सिलसिले
सीनों में उल्फ़तों के ख़ज़ाने नहीं रहे


- abid-barelvi


ख़ुशियाँ हों सिर्फ़ जिस में ये ग़म का धुआँ न हो
कोई ज़मीं नहीं है जहाँ आसमाँ न हो
उस को भी सींचे है ख़ुदा रहमत की छाँव में
दुनिया में जिस चमन का कोई बाग़बाँ न हो


फिरती हो दर-ब-दर सी मिरी हसरतो कहाँ
कोई तुम्हारे जैसा यहाँ बे-मकाँ न हो
लाज़िम है एहतिजाज हवाओं का इस लिए
ज़ुल्मत की रहगुज़र पे कोई कारवाँ न हो


नफ़रत की आग में जो उसूलों को झोंक दे
ऐसा भी मसनदों पे कोई हुक्मराँ न हो
क़ाएम करो यहाँ नई उल्फ़त के सिलसिले
राहों में वहशतों का ये नाम-ओ-निशाँ न हो


'आबिद' जलाओ प्यार की शम'ओं को हर तरफ़
इन नफ़रतों में ताकि कोई बद-गुमाँ न हो

- abid-barelvi


झुलसे हुए सहरा में शजर देख रहा हूँ
उम्मीद के गुलशन में सहर देख रहा हूँ
जलवों की तजल्ली का तलबगार है ये दिल
तू हुस्न का पैकर है नज़र देख रहा हूँ


हर सम्त मोहब्बत के नए बाब लिखे हैं
बस ख़्वाब से मंज़र हैं जिधर देख रहा हूँ
इक ख़्वाब की ता'बीर है दरकार मुसलसल
इक आग का दरिया है सफ़र देख रहा हूँ


जाते हुए लोगों को तुम आवाज़ न देना
ये हिज्र के मारे हैं डगर देख रहा हूँ
वो शख़्स मोहब्बत में ख़ता-कार हुआ है
हर शख़्स के होंटों पे ख़बर देख रहा हूँ


हर गाम हैं राहों में सियासत के बवंडर
मुश्किल में है हर एक बशर देख रहा हूँ
कैसा है सितम यारो है ये ज़र्फ़ भी कैसा
जलता हुआ अपना ही मैं घर देख रहा हूँ


'आबिद' तुझे उल्फ़त की तमन्ना ही नहीं अब
कब से मैं तिरी सम्त-ए-गुज़र देख रहा हूँ

- abid-barelvi


इन चराग़ों में रौशनी ठहरे
तू जो आए तो ज़िंदगी ठहरे
तुझ को देखें तो ख़्वाब चलते हैं
बुझती आँखों में ताज़गी ठहरे


तेरे चेहरे पे ख़्वाब से मंज़र
तेरी पलकों पे रागनी ठहरे
कितनी पुर-नूर हैं तिरी आँखें
जैसे रातों में चाँदनी ठहरे


हर-सू जलते हैं शाम से जुगनू
तू जो यादों में जाँ मिरी ठहरे
दिल के सहरा में हिज्र का मौसम
रात जैसे कि बेबसी ठहरे


तुझ में 'आबिद' ये कौन रहता है
जिस के रहने से ख़ुसरवी ठहरे

- abid-barelvi


हिज्र में ऐसे तिरे शाम-ओ-सहर जाते हैं
क़ाफ़िले यादों के आते हैं गुज़र जाते हैं
क्या सज़ा पाई है फूलों ने महकने की ये
हर सहर खिलते हैं हर शाम बिखर जाते हैं


दर-ब-दर ख़्वाब से मंज़र हैं मिरी आँखों में
ग़म भी पलकों पे मिरी आ के ठहर जाते हैं
ज़िंदगी हम ने तिरा कुछ तो भरम रक्खा है
इतने किरदारों में जीते हैं कि मर जाते हैं


कू-ब-कू यास का 'आलम है फ़क़त हम तन्हा
हौसले टूट के राहों में बिखर जाते हैं
जुस्तुजू किस की है जानें ये सफ़र है कैसा
हम को जाना है कहाँ हम ये किधर जाते हैं


कश्मकश में है ख़ुशी सब की भला क्यों आख़िर
हम जिधर जाते हैं ये ग़म भी उधर जाते हैं
आओ अब यारो ज़मीं पर भी उतर आएँ हम
ये परिंदे भी बुलंदी से उतर जाते हैं


इक नज़र तेरी ज़माने पे हुआ करती है
इगड़े-बिगड़े जो मुक़द्दर हैं सँवर जाते हैं
सर-फिरी आग है इस दिल में लगी ऐ 'आबिद'
आ चलें अब किसी दरिया में उतर जाते हैं


- abid-barelvi


हर सम्त इक धुआँ है हर गाम तीरगी है
दुनिया तिरे सफ़र में ये कैसी रौशनी है
ज़ुल्मत की रहगुज़र पे उल्फ़त सिसक रही है
ये कौन बे-हिसी है ये कौन बेबसी है


तन्हा ही चल रहे हम मंज़िल की आरज़ू में
हर सुब्ह अजनबी है हर शाम अजनबी है
अपनी ही धुन में सब हैं हर शख़्स दर-ब-दर है
ये कैसी जुस्तुजू है ये कैसी तिश्नगी है


हम मर के जी रहे हैं ख़्वाबों की अंजुमन में
नाकाम हसरतें हैं गुमनाम ज़िंदगी है
'आबिद' तुम्हारे हक़ में हर लब पे इक गिला है
हर दिल में इक चुभन है हर आँख शबनमी है


- abid-barelvi


गुलों के दरमियाँ वो खिलखिलाना याद आया है
चमन में बुलबुलों का चहचहाना याद आया है
कई फिर ख़्वाब आँखों में बसे हैं ज़िंदगी बन कर
हमें फिर 'इश्क़ में गुज़रा ज़माना याद आया है


परिंदे चाहतों के सरज़मीं पे रक़्स करते हैं
कोई भूली कहानी का फ़साना याद आया है
तबस्सुम उन लबों का फिर सहर से गुल खिलाता है
बहार-ए-हुस्न का वो लहलहाना याद आया है


हसीं मंज़र तुम्हारे क़ुर्ब के अब भी लुभाते हैं
तुम्हारे वस्ल का मौसम सुहाना याद आया है
हमें 'आबिद' किसी से अब शिकायत है न शिकवा है
न जाने क्यों दिलों का टूट जाना याद आया है


- abid-barelvi


दुनिया में रौशनी की क़यादत को लिख चलें
लाज़िम है ज़ुल्मतों की बग़ावत को लिख चलें
हर सम्त हों जहाँ में ये उल्फ़त के सिलसिले
नफ़रत की रहगुज़र पे मोहब्बत को लिख चलें


रौशन है जिन के दम से अभी हिन्द का चमन
अश्कों से आज उन की शहादत को लिख चलें
अब तो मिटाओ यारो 'अदावत की तल्ख़ियाँ
वहशत की आंधियों में रिफ़ाक़त को लिख चलें


नफ़रत में फिर जले न कोई अम्न की सहर
लाज़िम है लाख ऐसी रिवायत को लिख चलें
'आबिद' बसाएँ हर-सू सभी प्यार का जहाँ
दुनिया में आओ ऐसी हिकायत को लिख चलें


- abid-barelvi


दिल में नफ़रत की लगी आग बुझा दी जाए
अब ज़माने को मोहब्बत की फ़ज़ा दी जाए
बात लाज़िम है उसूलों की मगर ऐ यारो
पहले दीवार 'अदावत की गिरा दी जाए


फिर जले घर न किसी का भी हुकूमत में कोई
बे-हिसी वक़्त की जो भी हो मिटा दी जाए
कब तलक यूँही सहोगे ये सितम दुनिया के
अब तो आवाज़ बग़ावत की उठा दी जाए


- abid-barelvi


आँखों में आँसुओं का गुज़ारा नहीं रहा
जब से बिछड़ के तू जो हमारा नहीं रहा
तुम ने भुला दिए वो मोहब्बत के सिलसिले
इक हम हैं उल्फ़तों से किनारा नहीं रहा


मंज़र हसीन ख़्वाबों से जब से बिखर गए
कोई भी फिर नज़र में दुबारा नहीं रहा
सारा जहान तेरी मोहब्बत में हार कर
कह दूँ मैं तुझ से कैसे ख़सारा नहीं रहा


फूलों की बात हो कि सितारों की ज़ात हो
किस पर तिरे करम का इशारा नहीं रहा
'आबिद' ये हम ने चाहा चराग़ों को फूँक दें
उस से बिछड़ के ये भी गवारा नहीं रहा


- abid-barelvi


किताब-ए-ज़ीस्त में ऐसा कोई भी बाब नहीं
तुम्हारे 'इश्क़ का जिस पर लिखा हिसाब नहीं
शराब-ख़ाने में दो बूँद भी शराब नहीं
हमारे वास्ते इस से बड़ा 'अज़ाब नहीं


हुई ये ज़िंदगी तारीक रात के मानिंद
तू माहताब नहीं मैं भी आफ़्ताब नहीं
नई हयात में ढलना पड़ेगा अब इस को
ये ज़िंदगी तो मोहब्बत में कामयाब नहीं


तू अपनी आँखों का चश्मा बदल के देख मुझे
जहान जितना है इतना तो मैं ख़राब नहीं
हमें भी तर्क-ए-त'अल्लुक़ का ख़ाक हो अफ़सोस
बिछड़ के हम से तुम्हें भी तो इज़्तिराब नहीं


ये मय-कदा है यहाँ है हर एक शख़्स क़ुबूल
कोई शरीफ़ नहीं है कोई ख़राब नहीं
ख़िज़ाँ ने कौन सी तरतीब से किया बर्बाद
किसी भी शाख़ पे गुलशन में इक गुलाब नहीं


- a.r-sahil-'aleeg'


तू ने नज़रों से कई लोग गिराए होंगे
हम नहीं पहले भी कुछ लोग रुलाए होंगे
शहर का शहर जो फिरता है 'अजब हालों में
तू ने आँखों से उन्हें जाम पिलाए होंगे


जिन के लहजों में अलम बातों में दुख मिलता है
मेरा अंदाज़ा है सब तेरे सताए होंगे
हम जो हर हाल में देते हैं दु'आएँ तुझ को
जाने किस फ़र्ज़ में क्या क़र्ज़ उठाए होंगे


कितने दिलदार तिरी लाश से लिपटे होंगे
कितने ग़म-ख़्वार तिरी मौत पे आए होंगे

- aftab-shah


ओढ़ कर शाल तिरी यादों की घर जाता हूँ
घर न जाऊँ तो सर-ए-राह बिखर जाता हूँ
सर्द मौसम के थपेड़ों से जो नख़्ल-ए-गुल पर
चोट पड़ती है तो कुछ और सँवर जाता हूँ


हुस्न वालों पे तो देता हूँ हमेशा पहरा
वादी-ए-'इश्क़ में बे-लौस उतर जाता हूँ
मरने वालों को जलाने में मज़ा आता है
जीने वालों पे तो मैं रोज़ ही मर जाता हूँ


सोच को आग दिखाता हूँ तिरे चेहरे की
आग को दिल में लगा कर मैं निखर जाता हूँ
दिन को कहता हूँ नहीं याद नहीं करना उसे
शाम को अपने ही वा'दे से मुकर जाता हूँ


- aftab-shah


नज़रों से गिर गया तो उठाया नहीं गया
मुझ से वो रूठा शख़्स मनाया नहीं गया
अश्कों को जिस ने आँख का ज़ेवर बना दिया
आँखों की चिलमनों से हटाया नहीं गया


टूटा जो एक बार तो हसरत हुई तमाम
मुझ से दुबारा दिल भी लगाया नहीं गया
मुझ को मिटाने वाले ने सब कुछ मिटा दिया
मुझ से तो उस का नाम भुलाया नहीं गया


अपनों ने मेरी सोच को दीमक-ज़दा किया
ख़ुशियों भरा जो घर था बसाया नहीं गया
उस ने मुझे गिराने का जब 'अह्द कर लिया
हारा वो शख़्स मुझ से हराया नहीं गया


- aftab-shah


नगीन लगता हूँ मैं दिल-नशीन लगता हूँ
वो देख ले जो मुझे मैं हसीन लगता हूँ
ख़रीद ले वो अगर कुछ कहीं भी सस्ते में
मैं दिल की बस्ती में बिकती ज़मीन लगता हूँ


वो आबजू सी अगर रुख़ करे मिरी जानिब
मैं पानियों के जहाँ का मकीन लगता हूँ
वो रौशनी जो मुझे रोक ले कहीं तन्हा
मैं रात ओढ़ के चंदे जबीन लगता हूँ


वो देखते ही मिरा नाम बोल दे जो कहीं
मैं उस के लफ़्ज़ से आ'ला-तरीन लगता हूँ
वो मोरनी सी मुझे जब ज़हीन कहती है
मैं अपने आप में ख़ुद को फ़तीन लगता हूँ


- aftab-shah