बे-शौक़-ए-तलब बे-ज़ौक़-ए-नज़र बे-रंग थी उन की गुल-बदनी ये कोहकन-ओ-मजनूँ की नज़र शीरीं भी बनी लैला भी बनी देखे हुए उन को देर हुई हर नक़्श अभी तक ताज़ा है बे-गाना-वशी मस्ताना-रवी जादू-नज़री शीरीं-सुख़नी हम अपने ही घर में रहते थे जब तेरी नज़र में रहते थे अब रोज़ सताती है हम को ऐ दोस्त वतन में बे-वतनी फूलों में झलकते हैं चेहरे शाख़ों पे गुमाँ आग़ोश का है कुछ ऐसी बसी है नज़रों में गुल-पैरहनी नाज़ुक-बदनी नज़रों में न बे-मेहरी की अदा बातों में न वो ख़ुशबू-ए-वफ़ा कितने ही दिलों को तोड़ गई ज़ालिम की जबीं की बे-शिकनी उस बज़्म-ए-तरब में हँसने पर मजबूर हमें क़िस्मत ने किया फूलों से जहाँ शो'ले लपकें साग़र में घुले हीरे की कनी शो'लों में निखरते हैं जौहर क़िस्मत पे 'फ़रीदी' तंज़ न कर ग़म ऐसी ही ने'मत है जिस को पाते हैं यहाँ क़िस्मत के धनी