दिल को मिलता नहीं क़रार कहीं ग़म भी होता है साज़गार कहीं जब घटाएँ उमड के आती हैं बैठ जाते हैं बादा-ख़्वार कहीं मौसम-ए-गुल में अब्र-ए-बाराँ में दिल पे रहता है इख़्तियार कहीं तेरी ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म के निसार गुम न हो जाए रहगुज़ार कहीं बू-ए-गुल के हुजूम-ए-रक़्साँ में पर ठहरती नहीं बहार कहीं