गर एक रात गुज़र याँ वो रश्क-ए-माह करे अजब नहीं कि गदा पर करम जो शाह करे दिखावे आइना किस मुँह से उस को मुँह अपना कि आफ़्ताब को जूँ शम-ए-सुब्ह-गाह करे मुक़ाबिल आते ही यूँ खींच ले है दिल वो शोख़ कि जैसे काह-रुबा जज़्ब बर्ग काह करे हवास-ओ-होश को छोड़ आप दिल गया उस पास जब अहल-ए-फ़ौज ही मिल जाएँ क्या सिपाह करे सितम-शिआर वफ़ा-दुश्मन आश्ना-बेज़ार कहो तो ऐसे से क्यूँकर कोई निबाह करे कई तड़पते हैं आशिक़ कई सिसकते हैं इस आरज़ू में कि वो संग-दिल निगाह करे मोहब्बत ऐसे की 'बेदार' सख़्त मुश्किल है जो अपनी जान से गुज़रे वो उस की चाह करे