क्या वो माज़ी भुला चुका हूँ मैं कौन से घर में आ गया हूँ मैं अपनी ही ज़ात की फ़सीलों से रोज़ टकरा के टूटता हूँ मैं सिलसिले आंधियों के टूटे हैं जब भी इक दीप सा जला हूँ मैं खन-खनाहट में चंद सिक्कों की अपने रस्ते से कब हटा हूँ मैं बुझ गए हैं चराग़ ख़्वाबों के आप अपने में जल रहा हूँ मैं