तिरे जमाल-ए-हक़ीक़त की ताब ही न हुई हज़ार बार निगह की मगर कभी न हुई तिरी ख़ुशी से अगर ग़म में भी ख़ुशी न हुई वो ज़िंदगी तो मोहब्बत की ज़िंदगी न हुई कहाँ वो शोख़ मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई वो हम हैं अहल-ए-मोहब्बत कि जान से दिल से बहुत बुख़ार उठे आँख शबनमी न हुई ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ अब उस के ब'अद मुलाक़ात फिर हुई न हुई मिरे ख़याल से भी आह मुझ को बोद रहा हज़ार तरह से चाहा बराबरी न हुई हम अपनी रिंदी-ओ-ताअत पे ख़ाक नाज़ करें क़ुबूल-ए-हज़रत-ए-सुल्ताँ हुई हुई न हुई कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह हुई हुई न हुई तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल इस एहतिमाम पे भी शरह-ए-आशिक़ी न हुई फ़सुर्दा-ख़ातिरी-ए-इश्क़ ऐ मआज़-अल्लाह ख़याल-ए-यार से भी कुछ शगुफ़्तगी न हुई तिरी निगाह-ए-करम को भी आज़मा देखा अज़िय्यतों में न होनी थी कुछ कमी न हुई किसी की मस्त-निगाही ने हाथ थाम लिया शरीक-ए-हाल जहाँ मेरी बे-ख़ुदी न हुई सबा ये उन से हमारा पयाम कह देना गए हो जब से यहाँ सुब्ह ओ शाम ही न हुई वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई ख़याल-ए-यार सलामत तुझे ख़ुदा रक्खे तिरे बग़ैर कभी घर में रौशनी न हुई गए थे हम भी 'जिगर' जल्वा-गाह-ए-जानाँ में वो पूछते ही रहे हम से बात भी न हुई