एक था बादशाह

Shayari By

अब्बा जान भी बच्चों की तरह कहानियाँ सुन कर हँस रहे थे कि किस तरह हम भी ऐसे ही नन्हे बच्चे बन जाएँ। न रह सके बोल ही उठे, भई हमें भी एक कहानी याद है कहो तो सुनाऊँ?
आहा जी आहा। अब्बा जान को भी कहानी याद है अब्बा जान भी कहानी सुनाएँगे। सुनाइए अब्बा जान। अब्बा जान सुनाइए ना?

अब्बा जान ने कहानी सुनानी शुरू की,
किसी शहर में एक था बादशाह [...]

मोर की कहानी

Shayari By

एक मोर था और एक था गीदड़। दोनों में मोहब्बत थी। दिनों की सलाह हुई कि चल कर बेर खाओ। वो दोनों के दोनों मिलकर चले किसी बाग़ में। वहाँ एक बेरी का दरख़्त था। जब उस दरख़्त के क़रीब पहुँचे। तो मोर उड़ कर उस दरख़्त पर जा बैठा। दरख़्त पर बैठ के पक्के-पक्के बेर तो आप खाने लगा और कच्चे-कच्चे बेर नीचे फेंकने लगा। गीदड़ ने कहा, या तो दोस्त पक्के-पक्के बेर दे। नहीं तो तू नीचे उतरेगा। तो मैं तुझे खा जाऊँगा। जब मोर का पेट भर गया। तो वो नीचे उतरा। गीदड़ ने उसे खा लिया।
जब उसे खा के आगे चला। तो एक बुढ़िया बैठे उपले चुन रही थी। जब उसके पास गया। तो उसे जा के कहा कि पक्के-पक्के बेर खाए अपना भाई मोर खाया। तुझे खाऊँ तो पेट भरे, बुढ़िया ने कहा जा परे! नहीं तो एक उप्ला मारूँगी। गीदड़ बुढ़िया को भी खा गया। आगे चला तो एक लकड़हारा लकड़ियाँ चीरता हुआ मिला। उससे कहा कि पक्के-पक्के बेर खाए। अपना भाई मोर खाया। उपले चुनती बुढ़िया खाई। तुझे खाऊँ तो पेट भरे उसने कहा परे हट! आगे चला तो मिला उसे एक तेली तेल तौल रहा था। उससे भी गीदड़ ने यूँ ही कहा कि पक्के-पक्के बेर खाए। अपना भाई मोर खाया। उपले चुनती बढ़िया खाई। लकड़ियाँ चीरता लकड़हारा खाया। तुझे खाऊँ तो पेट भरे। तेली ने कहा चल! नहीं तो एक कपा मारूँगा। गीदड़ तेली को भी खा गया। आगे गया तो दरिया मिला। वहाँ जा ख़ूब पानी पिया। जब पेट अच्छी तरह भर गया। तब सारे जंगल की मिट्टी समेट उसका चबूतरा बनाया और गोबर से उसे लेपा। और दरियाओं में से दो मेंडकियाँ पकड़ा अपने दोनों कानों में लटका लीं। और चबूतरे पर चढ़ बैठे। बहुत सी गाय-भैंसें आईं। उस दरिया पर। पानी पीने के वास्ते उनसे लड़ने लगा कि मैं पानी नहीं पीने दूँगा। उन्होंने कहा क्यों? कहा पहले इस तरह कहो कि चाँदी का तेरा चौंत्रा। कोई संदल लेपा जाए। कानों तेरे दो मुर्कियाँ कोई राजा बंसी बैठा हुए। उन्होंने कहा। अच्छा हम पहले पानी पी लें। फिर कहेंगे। जब गाय-भैंसें पानी पी चुकीं। तो गीदड़ ने कहा, अब कहो। तो उन्होंने कहा कि,

मिट्टी का तेरा चौंत्रा। कोई गोबर लेपा जाए
कानों तेरे दो मेंडकियाँ। कोई गीदड़ बैठा हुए [...]

मेरे उस्ताद मेरे मोहसिन

Shayari By

जब मैं अपने उस्तादों का तसव्वुर करता हूँ तो मेरे ज़ह्न के पर्दे पर कुछ ऐसे लोग उभरते हैं जो बहुत दिलचस्प, मेहरबान, पढ़े लिखे और ज़हीन हैं और साथ ही मेरे मोहसिन भी हैं। उनमें से कुछ का ख़्याल कर के मुझे हंसी भी आती है और उन पर प्यार भी आता है। अब मैं बारी-बारी उनका ज़िक्र करूँगा।
जब मैं बाग़ हालार स्कूल (कराची) में के. जी. क्लास में पढ़ता था तो मिस निगहत हमारी उस्तानी थीं। मार-पीट के बजाय बहुत प्यार से पढ़ाती थीं। सफ़ाई-पसंद इतनी थीं कि गंदगी देख कर उन्हें ग़ुस्सा आ जाता था और किसी बच्चे के गंदे कपड़े या बढ़े हुए नाख़ुन देख कर उसकी हल्की-फुल्की पिटाई भी कर देती थीं। मुझे अब तक याद है कि एक दफ़ा मेरे नाख़ुन बढ़े हुए थे और उनमें मैल जमा था। मिस निगहत ने मेरे नाख़ुनों पर पैमाने से (जिसे आप स्केल या फट्टा कहते हैं।) मारा। चोट हल्की थी लेकिन उस दिन मैं बहुत रोया। लेकिन मिस निगहत ने गंदे और बढ़े हुए नाख़ुनों के जो नुक़्सान बताए वो मुझे अब तक याद हैं। और अब मैं जब भी अपने बढ़े हुए नाख़ुन देखता हूँ तो मुझे मिस निगहत याद आ जाती हैं और मैं फ़ौरन नाख़ुन काटने बैठ जाता हूँ।

पहली जमात में पहुँचा तो मिस सरदार हमारी उस्तानी थीं, लेकिन वो जल्द ही चली गईं और उनकी जगह मिस नसीम आईं जो उस्तानी कम और जल्लाद ज़्यादा थीं। बच्चों की इस तरह धुनाई करती थीं जैसे धुनिया रूई धुनता है। ऐसी सख़्त मार-पीट करती थीं कि इन्सान को पढ़ाई से, स्कूल से और किताबों से हमेशा के लिए नफ़रत हो जाए। जो उस्ताद और उस्तानियाँ ये तहरीर पढ़ रहे हैं उनसे मैं दरख़्वास्त करता हूँ कि बच्चों को मार-पीट कर न पढ़ाया करें। बहुत ज़रूरी हो तो डाँट-डपट कर लिया करें।
इस तहरीर को पढ़ने वाले जो बच्चे और बच्चियाँ बड़े हो कर उस्ताद और उस्तानियाँ बनें वो भी याद रखें कि मार-पीट से बच्चे पढ़ते नहीं बल्कि पढ़ाई से भागते हैं। बच्चों को ता'लीम से बेज़ार करने में पिटाई का बड़ा हाथ होता है। हाँ कभी-कभार मुँह का ज़ायक़ा बदलने के लिए एक-आध हल्का-फुलका थप्पड़ पड़ जाए तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन अच्छे बच्चों को इसकी कभी ज़रूरत नहीं पड़ती। [...]

हुद-हुद का बच्चा

Shayari By

आख़िर प्रोग्राम बन ही गया। जून का पहला हफ़्ता था। हम लोग दिल्ली जाने की तय्यारियाँ करने लगे। हम सात आदमियों की टोली में मस्ख़रा रमेश भी था, जिसको हमने बड़ी मुश्किल से इस सफ़र के लिए तैयार किया था, क्यों कि हम जानते थे कि उसके बग़ैर सफ़र का लुत्फ़ आधा रह जाएगा। बनारस कैन्ट से अपर इंडिया ऐक्सप्रैस में हम सब सवार हो गए। इत्तिफ़ाक़ ही कहिए कि उस दिन कोई ख़ास भीड़ न थी और हम लोगों को ऊपर की बर्थें सोने के लिए मिल गईं। रात को ग्यारह बजे तक तो हम लोग रमेश की बातों से लुत्फ़ अंदोज़ होते रहे, मगर जब उसे नींद आने लगी तो हम लोगों ने भी सोने का इरादा लिया।
मेरी आँख उस वक़्त खुली जब मुर्ग़ की बाँग की कई आवाज़ें मेरे कानों के पर्दे से टकराईं। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। मुर्ग़ की बाँग मैंने ट्रेन के अंदर पहली बार सुनी थी। अगर ट्रेन के बाहर किसी मुर्ग़ ने बाँग दी भी हो तो वो अपर इंडिया ऐक्सप्रैस की घड़-घड़ाहट को चीर कर अंदर कैसे आ सकती थी? बड़ी अजीब बात थी। मैंने इतना ही सोचा था कि मेरी नज़र अपने सामने वाली बर्थ पर पड़ी जिस पर रमेश अपनी हंसी रोके बैठा था। जैसे ही हम दोनों की नज़रें मिलीं उसकी हंसी का आबशार उबल पड़ा। नीचे बैठे हुए मेरे दूसरे साथी भी क़हक़हा लगाने लगे।

ये मुर्ग़ की बाँग हमारे दोस्त रमेश के गले ही का करिश्मा थी। वो मुख़्तलिफ़ परिंदों और जानवरों की बोलियों की नक़्ल उतारने में माहिर था।
टुंडला स्टेशन आया। हमने नाशता किया और फिर कम्पार्टमेंट में आ बैठे। नीचे की सीट पर एक गोल-मटोल से साहब लंबी ताने सो रहे थे। हम लोगों के क़हक़हे के बावजूद उनकी आँख नहीं खुली थी। रमेश ने शरारत भरी नज़रों से हमें देखा और उनके सिरहाने जा बैठा। हम लोग समझ गए कि अब अगला शो क्या होगा। रमेश ने मुर्ग़ की तीन-चार बाँगें उन साहब के कान के पास दीं और बाहर खिड़की में झाँकने लगा। हम लोग भी अपनी हंसी बुरी तरह रोके थे। [...]

साँप का तमाशा

Shayari By

आज मदरसे की छुट्टी थी। इतवार का दिन था। मैं अपनी सहेली अनुपमा के साथ बैठी होमवर्क के बहाने गप-शप कर रही थी। अचानक बाहर से कुछ बच्चों के शोर-ओ-गुल के साथ सपेरे के बीन की आवाज़ आई। हम दोनों दौड़ कर खिड़की पर पहुँचे। और खिड़की खोल कर बाहर झाँका। गली में महल्ले के बच्चे जमा थे। और साँप का तमाशा दिखाया जा रहा था।
सपेरा झूम-झूम कर बीन बजा रहा था। साँप का पिटारा खुला था और काला नाग अपना चौड़ा सा फन उठाए इधर-उधर घुमा रहा था। फिर सपेरे ने उसको बाहर निकाला और ज़मीन पर छोड़ दिया। वो लहरा-लहरा कर अपना नाच दिखाने लगा। कुछ निडर बच्चे उसे देख कर तालियाँ बजा रहे थे और कुछ नन्हे-मुन्ने बच्चे डर कर माओं के आँचल में मुँह छुपाए खड़े थे।

“क्यों अनु इसी तरह हम भी इसको पाल लें और फिर इसको सधा कर रोज़ तमाशा दिखाया करें?” मैंने अनुपमा से पूछा।
“मगर हम पकड़ेंगे कैसे? कभी-कभी हमारे यहाँ बरसात के ज़माने में चमेली की झाड़ी में साँप तो दिखाई देता है मगर माली बल्ली या दादा जी मोटा सा डंडा ले कर उसे मार फेंक देते हैं।” अनुपमा ने जवाब दिया। [...]

बोतल के क़ैदी

Shayari By

बड़ा सुनसान जज़ीरा था। ऊँचे-ऊँचे और भयानक दरख़्तों से ढका हुआ। जितने भी सय्याह समुंद्र के रास्ते उस तरफ़ जाते, एक तो वैसे ही उन्हें हौसला न होता था कि उस जज़ीरे पर क़दम रखें। दूसरे आस-पास के माही-गीरों की ज़बानी कही हुई ये बातें भी उन्हें रोक देती थीं कि उस जज़ीरे में आज तक कोई नहीं जा सका और जो गया वापिस नहीं आया। उस जज़ीरे पर एक अंजाना ख़ौफ़ छाया रहता है। इनसान तो इनसान परिंदा भी वहाँ पर नहीं मार सकता। ये और इसी क़िस्म की दूसरी बातें सय्याहों के दिलों को सहमा देती थीं। बहुतेरों ने कोशिश की मगर उन्हें जान से हाथ धोने पड़े।
एक दिन का ज़िक्र है कि चार आदमियों के एक छोटे से क़ाफ़िले ने उस हैबत-नाक जज़ीरे पर क़दम रखा। कमाल, एक कारोबारी आदमी था। वो बंबई के हंगामों से उकता कर एक पुर-सुकून और अलग-थलग सी जगह की तलाश में था। जब उसे मा’लूम हुआ कि वो जज़ीरा अभी तक ग़ैर-आबाद है तो वो अपनी बीवी परवीन, अपनी लड़की अख़तर, अपने लड़के अशरफ़ को जज़ीरे के बारे में बताया। दोनों भाई बहन ने जो ये बात सुनी तो बेहद ख़ुश हुए। क्योंकि उनके ख़्याल में उस जज़ीरे पर एक छोटे से घर में कुछ वक़्त गुज़ारना जन्नत में रहने के बराबर था।

आख़िर-ए-कार वो दिन आ ही गया जब कमाल अपने बच्चों के साथ उस जज़ीरे पर उतरा। जज़ीरा अंदर से बहुत ख़ूबसूरत था। जगह-जगह फूलों के पौदे लहलहा रहे थे। थोड़े-थोड़े फ़ासले पर फल-दार दरख़्त सीना ताने खड़े थे। ऊँचे-ऊँचे टीलों और सब्ज़ घास वाला जज़ीरा बच्चों को बहुत पसंद आया। मगर अचानक कमाल ने चौंक कर इधर-उधर देखना शुरू कर दिया। उसे ऐसा लगा जैसे किसी ने हलका क़हक़हा लगाया हो। पहले तो उसने इस बात को वह्म समझ कर दिल में जगह नहीं मगर दुबारा भी ऐसा ही हुआ तो उसके कान खड़े हुए। उसने दिल में सोच लिया कि माहीगीरों की कही हुई बातों में सच्चाई ज़रूर है। मगर उसने बेहतर यही समझा कि अपने इस ख़्याल को किसी दूसरे पर ज़ाहिर न करे। अगर वो ऐसा करता तो बच्चे ज़रूर डर जाते।
जब तक दिन रहा वो सब जज़ीरे की सैर करते रहे। रात हुई तो उन्हें कोई महफ़ूज़ जगह तलाश करनी पड़ी जहाँ वो ख़ेमा लगाना चाहते थे। आख़िर एक छोटे से टीले से नीचे उन्होंने ख़ेमा गाड़ दिया। मगर कमाल बार-बार यही सोच रहा था कि आख़िर वो हल्के से क़हक़हे उसे फिर सुनाई दिए। कमाल को परेशानी तो ज़रूर हुई मगर वो अपनी इस परेशानी को दूसरों पर ज़ाहिर नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने अपनी बीवी से कहा, “अभी तो इसी जगह रात बसर की जाए, सुबह को ऐसी जगह देखूँगा जहाँ मकान बनाया जा सके।” [...]

Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close