आदमी का

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ग़म-ए-मुसलसल की इस तपिश में कि जिस्म जल जाए आदमी का
हँसी की हल्की फुवार भी हो तो काम चल जाए आदमी का

मिज़ाह की गर ज़रा भी हिस है हँसी को और क़हक़हे को छोड़ो
चमन में गर फूल मुस्कुरा दे तो दिल बहल जाए आदमी का [...]

उर्दू

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जबीन-ए-वक़्त पर कैसी शिकन है हम नहीं समझे
कोई क्यूँ कर हरीफ़-ए-इल्म-ओ-फ़न है हम नहीं समझे

किसी भी शम्अ' से बे-ज़ार क्यूँ हो कोई परवाना
ये क्या इस दौर का दीवाना-पन है हम नहीं समझे [...]

इंक़िलाबी औरत

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रणभूमी में लड़ते लड़ते मैं ने कितने साल
इक दिन जल में छाया देखी चट्टे हो गए बाल

पापड़ जैसी हुईं हड्डियाँ जलने लगे हैं दाँत
जगह जगह झुर्रियों से भर गई सारे तन की खाल [...]

उमीद

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वो सुब्ह कभी तो आएगी
उन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा

जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नग़्मे गाएगी [...]

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ऐ परिंदो किसी शाम उड़ते हुए
रास्ते में अगर वो नज़र आए तो

गीत बारिश का कोई सुनाना उसे
ऐ सितारो यूँही झिलमिलाते हुए [...]

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ऐ परिंदे तू है अपनी आग में जलता हुआ
दूर से लेकिन धुआँ उठता नज़र आता नहीं

ऐसा लगता है कि हैं शोले फ़ज़ा में हर तरफ़
आसमाँ नीला मगर धुँदला नज़र आता नहीं [...]

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