बिछड़े दोस्तों से भी मिल के कैसी ख़ुशी होती है! बस ख़ुद आप ही अंदाज़ा कर लीजिए।आख़िरकार आपका भी तो कोई दोस्त बिछड़ गया होगा। और फिर आपसे अचानक आ मिला होगा। आप ही फ़रमाईए क्या शादी मर्ग का ख़ौफ़ नहीं हो जाता। मेरी भी वल्लाह, एक हफ़्ता हुआ यही कैफ़ीयत हुई। इत्तिफ़ाक़ से एक काम के बाइस मेरा जाना अलीगढ़ हो गया। मैं कॉलेज के देखने का अर्से से मुश्ताक़ तो था ही। इस मौके़ को ग़नीमत जाना और एक ज़ाइर की हैसियत से कॉलेज की सैर में मसरूफ़ हुआ। हर चीज़ को अज़मत और मुहब्बत की निगाह से देखता था और जिस इमारत पर नज़र पड़ जाती उस में मह्व हो जाता था। इस इस्तिग़राक़ की हालत में इक नज़र एक साहिब पर भी जा पड़ी जो मेरी तरह मह्व-ए-नज़ारा थे। मैं आपसे सच्च कहता हूँ कि जब तक कोई ऐसी ही ख़ास कशिश ना होती मैं कॉलेज से आँख थोड़ा ही उठाने वाला था। लेकिन उन पर नज़र पड़ती थी कि मैं अपने गर्द-ओ-पेश की कुल चीज़ों को भूल गया और बेताबाना उनसे जा कर लिपट गया। अव्वल तो वो झिजके लेकिन फिर एक इस्तिजाब आमेज़ “तुम कहाँ?” कह के मुझसे लिपट गए। असलियत ये थी कि हम दोनों बिछड़े हुए कम-ओ-बेश तेरह-चौदह बरस के बाद मिले थे। मैं इस बात को तूल ना दूंगा कि हम दोनों कैसे जुदा हुए थे और मैं इन तेरह- चौदह बरस में कहाँ कहाँ रहा। मुख़्तसर ये है कि मुझमें मेरे दोस्त मुहम्मद नईम में बादालमशरक़ीं रहा। और हम उस ज़माने में एक दूसरे के हालात से बिलकुल बे-ख़बर रहे। मैं बर्मा में था, तो वो इंग्लिस्तान में, और वो भी एक ज़ाइर बन कर अलीगढ़ आए थे। मुहम्मद नईम को देखते ही कॉलेज की सैर कुछ वक़्त के लिए मौक़ूफ़ हुई और एक दूसरे के हालात दरयाफ्त होने लगे। आख़िरकार इन सब का नतीजा ये हुआ कि दो दिन बाद हमें ईस्ट इंडियन रेलवे की डाकगाड़ी अज़ीमाबादी की तरफ़ ले जा रही थी। जहां मेरे दोस्त मुहम्मद नईम, एम.डी. (एल आर सी पी, क्योंकि अब मुझे मालूम हुआ कि इस अर्से में मुहम्मद नईम इंग्लिस्तान जा कर एम.डी. हो आए थे) का मकान है। अज़ीमाबाद पहुंचते ही डाक्टर साहिब ने मुझे अपनी आलीशान और बेनज़ीर कोठी में उतारा। और उसी रोज़ अपने कुल अहबाब की दावत की ताकि मुझसे मिलाएँ। दावत के बाद सब लोग बाहर चमन में आ बैठे और इधर- उधर की बातें होती रहीं। आकर यके बाद दीगरे सब रुख़्सत हो गए और हम दोनों अकेले रह गए। चूँकि गर्मी का मौसम था, इसलिए रात का वक़्त व चांदी रात सेहन-ए-चमन और ठंडी हवा ऐसी चीज़ें न थीं कि हम में से किसी का दिल उठने को चाहता। बाहरी कुर्सियाँ डाले बैठे रहे। बातों बातों में ये ज़िक्र आगया कि इन्सान की ज़िंदगी में ऐसे दिलचस्प वाक़ियात नहीं होते जिनमें नाविल का मज़ा आए, मैं इस बारे में बहुत भरा बैठा था। मैंने नाविल नवीसों पर निहायत ले दे शुरू की कि कमबख़्त ऐसी ऐसी बातें लिखते हैं कि हमें रश्क होता है कि हमारी ज़िंदगी में क्यों ऐसे वाक़ियात पेश नहीं आते। और क्या, और क्या बहुत ही कुछ कह डाला, नईम चुपका सुना किया। सिर्फ एक-आध जगह मुस्कुराया। मुझे हैरत थी कि ये क्यों अपनी राय ज़ाहिर नहीं करते। खैर जब मैं सब कुछ कह चुका तो नईम ने एक और मज़मून पेश किया। कहने लगे, “आजकल पर्दे की बहस छिड़ी हुई है, तुम्हारी इसके मुता’ल्लिक़ क्या राय है।जदीद ख़्याल हो या कुहना ख़्याल ?कुहना ख़्याल होगे, क्योंकि पर्दे की मुख़ालिफ़त तो तुमसे क़ियामत तक भी नहीं होने की।” मैंने कहा, “बे-शक पर्दे की मुख़ालिफ़त कौन साहिबे अक़्ल कर सकता है।”
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