ऐ रूद-ए-मूसा

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तुम मेरी बातें ग़ौर से सुन तो रहे होना?
सत्रह साल की उम्र में मैं ख़ूबसूरती का मुकम्मल नमूना थी। मेरा जिस्म मुतनासिब था, क़द लम्बा-लम्बा हाथ-पाँव संदलीं। आँखें शराब के प्याले। रंगत ऐसी जैसे किसी ने मैदा, गुलाबी पानी से गूँध कर रख दिया हो। तुम अगर उसे ख़ुद सताई न कहो तो मैं ये कहने की जुर्रत करूँ कि मैंने दुनिया में ख़ुद से ज़्यादा हसीन शक्ल न देखी और मेरे इस हुस्न का मोल भी बहुत ऊँचा था।

मेरी मंगनी शहर के एक बहुत बड़े रईस के विलायत पलट लड़के से हो चुकी थी और इसीलिए भाई मियाँ मुझे बड़ी सरगर्मी से छुरी काँटे से खाना खाना सिखा रहे थे। कभी-कभी मैं काँटा ज़बान में चुभा लेती।
या छुरी इस बेदर्दी से डबल रोटी पर ललचाती कि मेरी उंगली कट जाती। और नतीजे में भाई जान मेरे सर पर एक आध धौल जड़ देते। उन्होंने हज़ार बार बड़े प्यार से समझाया था कि काँटे में अटके रोटी या गोश्त के टुकड़े को दाँतों की मदद से बड़ी आहिस्तगी से ज़बान पर उतार लेना चाहिए। मगर मैं अक्सर काँटा इस अंदाज़ से मुँह में रखती कि ज़बान में चुभ-चुभ जाता। मगर काँटे की ये चुभन भी भली लगती। ये सब कुछ मैं अपनी नई ज़िंदगी में दाख़िल होने के लिए ही तो सीख रही थी ना? [...]

जानवर

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मेरा बच्चा सिर्फ़ दो बरस का था जब मैं उसके लिए मुर्ग़ी के दो चूज़े ख़रीद कर लाई। मशीन के ये दोनों बच्चे बहुत बद-नसीब साबित हुए। पहला तो उसी दिन मर गया। दूसरा इस वाक़िए’ के सात दिन बा’द बालकनी के जंगले से बाहर निकल कर दीवार के कार्नस पर टहल रहा था जब एक चील उसे पंजे में दबा कर ले गई।
वो तीन बरस का था जब एक दिन उसे स्कूल छोड़कर वापिस लौटते वक़्त फ़ुट-पाथ के एक सूराख़ के अंदर जो एक पुराना लैम्प पोस्ट निकाल दिए जाने के सबब बन गया था मैंने बिल्ली के बच्चों की आवाज़ सुनी। मैंने झाँक कर देखा। उसके अंदर दो बिल्ली के नौ-ज़ाईदा बच्चे पड़े थे और अपने मनहनी सर उठाए हुए अपनी मा’सूम आँखों से मेरी तरफ़ ताक रहे थे। एक को तो मैंने फ़ुट-पाथ पर उसकी माँ की तलाश में छोड़ दिया, दूसरे को घर ले आई। एक माह के अंदर-अंदर वो ठंड से मर गई।

मेरा बच्चा चार बरस का था जब मैंने उसकी सालगिरह के दिन तोहफ़े में उसे एक ख़रगोश ला कर दिया जिसे उसने अपने सीने से लगा कर प्यार से दबाते-दबाते बिल्कुल छोटा कर डाला। हमने उसे अलग करने की कोशिश की तो उसने गुस्से में उसे फ़र्श पर पटक दिया और वो एक बे-जान लोथड़े में बदल गया।
मेरा बच्चा आठ बरस का था जब उसकी ज़िद पूरी करने के लिए मैं गल्फ़ स्ट्रीट से एक अफ़्ग़ान हाऊंड खरीदकर लाई। मुझे इ’ल्म न था कि मैं ठग ली गई थी। कुत्ता पहले से बीमार था और उसकी मौत यक़ीनी थी। उसे खाना खिलाने की हमारे तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं और एक दिन वो पलंग के नीचे ठंडा पाया गया। [...]

इज़दवाजे मुहब्बत

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बिछड़े दोस्तों से भी मिल के कैसी ख़ुशी होती है! बस ख़ुद आप ही अंदाज़ा कर लीजिए।आख़िरकार आपका भी तो कोई दोस्त बिछड़ गया होगा। और फिर आपसे अचानक आ मिला होगा। आप ही फ़रमाईए क्या शादी मर्ग का ख़ौफ़ नहीं हो जाता। मेरी भी वल्लाह, एक हफ़्ता हुआ यही कैफ़ीयत हुई। इत्तिफ़ाक़ से एक काम के बाइस मेरा जाना अलीगढ़ हो गया। मैं कॉलेज के देखने का अर्से से मुश्ताक़ तो था ही। इस मौके़ को ग़नीमत जाना और एक ज़ाइर की हैसियत से कॉलेज की सैर में मसरूफ़ हुआ। हर चीज़ को अज़मत और मुहब्बत की निगाह से देखता था और जिस इमारत पर नज़र पड़ जाती उस में मह्व हो जाता था। इस इस्तिग़राक़ की हालत में इक नज़र एक साहिब पर भी जा पड़ी जो मेरी तरह मह्व-ए-नज़ारा थे। मैं आपसे सच्च कहता हूँ कि जब तक कोई ऐसी ही ख़ास कशिश ना होती मैं कॉलेज से आँख थोड़ा ही उठाने वाला था। लेकिन उन पर नज़र पड़ती थी कि मैं अपने गर्द-ओ-पेश की कुल चीज़ों को भूल गया और बेताबाना उनसे जा कर लिपट गया। अव्वल तो वो झिजके लेकिन फिर एक इस्तिजाब आमेज़ “तुम कहाँ?” कह के मुझसे लिपट गए। असलियत ये थी कि हम दोनों बिछड़े हुए कम-ओ-बेश तेरह-चौदह बरस के बाद मिले थे। मैं इस बात को तूल ना दूंगा कि हम दोनों कैसे जुदा हुए थे और मैं इन तेरह- चौदह बरस में कहाँ कहाँ रहा। मुख़्तसर ये है कि मुझमें मेरे दोस्त मुहम्मद नईम में बादालमशरक़ीं रहा। और हम उस ज़माने में एक दूसरे के हालात से बिलकुल बे-ख़बर रहे। मैं बर्मा में था, तो वो इंग्लिस्तान में, और वो भी एक ज़ाइर बन कर अलीगढ़ आए थे। मुहम्मद नईम को देखते ही कॉलेज की सैर कुछ वक़्त के लिए मौक़ूफ़ हुई और एक दूसरे के हालात दरयाफ्त होने लगे। आख़िरकार इन सब का नतीजा ये हुआ कि दो दिन बाद हमें ईस्ट इंडियन रेलवे की डाकगाड़ी अज़ीमाबादी की तरफ़ ले जा रही थी। जहां मेरे दोस्त मुहम्मद नईम, एम.डी. (एल आर सी पी, क्योंकि अब मुझे मालूम हुआ कि इस अर्से में मुहम्मद नईम इंग्लिस्तान जा कर एम.डी. हो आए थे) का मकान है।
अज़ीमाबाद पहुंचते ही डाक्टर साहिब ने मुझे अपनी आलीशान और बेनज़ीर कोठी में उतारा। और उसी रोज़ अपने कुल अहबाब की दावत की ताकि मुझसे मिलाएँ। दावत के बाद सब लोग बाहर चमन में आ बैठे और इधर- उधर की बातें होती रहीं। आकर यके बाद दीगरे सब रुख़्सत हो गए और हम दोनों अकेले रह गए।

चूँकि गर्मी का मौसम था, इसलिए रात का वक़्त व चांदी रात सेहन-ए-चमन और ठंडी हवा ऐसी चीज़ें न थीं कि हम में से किसी का दिल उठने को चाहता। बाहरी कुर्सियाँ डाले बैठे रहे। बातों बातों में ये ज़िक्र आगया कि इन्सान की ज़िंदगी में ऐसे दिलचस्प वाक़ियात नहीं होते जिनमें नाविल का मज़ा आए, मैं इस बारे में बहुत भरा बैठा था। मैंने नाविल नवीसों पर निहायत ले दे शुरू की कि कमबख़्त ऐसी ऐसी बातें लिखते हैं कि हमें रश्क होता है कि हमारी ज़िंदगी में क्यों ऐसे वाक़ियात पेश नहीं आते। और क्या, और क्या बहुत ही कुछ कह डाला, नईम चुपका सुना किया। सिर्फ एक-आध जगह मुस्कुराया। मुझे हैरत थी कि ये क्यों अपनी राय ज़ाहिर नहीं करते। खैर जब मैं सब कुछ कह चुका तो नईम ने एक और मज़मून पेश किया। कहने लगे, “आजकल पर्दे की बहस छिड़ी हुई है, तुम्हारी इसके मुता’ल्लिक़ क्या राय है।जदीद ख़्याल हो या कुहना ख़्याल ?कुहना ख़्याल होगे, क्योंकि पर्दे की मुख़ालिफ़त तो तुमसे क़ियामत तक भी नहीं होने की।”
मैंने कहा, “बे-शक पर्दे की मुख़ालिफ़त कौन साहिबे अक़्ल कर सकता है।” [...]

इज़दवाजे मुहब्बत

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बिछड़े दोस्तों से भी मिल के कैसी ख़ुशी होती है! बस ख़ुद आप ही अंदाज़ा कर लीजिए।आख़िरकार आपका भी तो कोई दोस्त बिछड़ गया होगा। और फिर आपसे अचानक आ मिला होगा। आप ही फ़रमाईए क्या शादी मर्ग का ख़ौफ़ नहीं हो जाता। मेरी भी वल्लाह, एक हफ़्ता हुआ यही कैफ़ीयत हुई। इत्तिफ़ाक़ से एक काम के बाइस मेरा जाना अलीगढ़ हो गया। मैं कॉलेज के देखने का अर्से से मुश्ताक़ तो था ही। इस मौके़ को ग़नीमत जाना और एक ज़ाइर की हैसियत से कॉलेज की सैर में मसरूफ़ हुआ। हर चीज़ को अज़मत और मुहब्बत की निगाह से देखता था और जिस इमारत पर नज़र पड़ जाती उस में मह्व हो जाता था। इस इस्तिग़राक़ की हालत में इक नज़र एक साहिब पर भी जा पड़ी जो मेरी तरह मह्व-ए-नज़ारा थे। मैं आपसे सच्च कहता हूँ कि जब तक कोई ऐसी ही ख़ास कशिश ना होती मैं कॉलेज से आँख थोड़ा ही उठाने वाला था। लेकिन उन पर नज़र पड़ती थी कि मैं अपने गर्द-ओ-पेश की कुल चीज़ों को भूल गया और बेताबाना उनसे जा कर लिपट गया। अव्वल तो वो झिजके लेकिन फिर एक इस्तिजाब आमेज़ “तुम कहाँ?” कह के मुझसे लिपट गए। असलियत ये थी कि हम दोनों बिछड़े हुए कम-ओ-बेश तेरह -चौदह बरस के बाद मिले थे। मैं इस बात को तूल ना दूंगा कि हम दोनों कैसे जुदा हुए थे और मैं इन तेरह- चौदह बरस में कहाँ कहाँ रहा। मुख़्तसर ये है कि मुझमें मेरे दोस्त मुहम्मद नईम में बादालमशरक़ीं रहा। और हम उस ज़माने में एक दूसरे के हालात से बिलकुल बे-ख़बर रहे। मैं बर्मा में था, तो वो इंग्लिस्तान में, और वो भी एक ज़ाइर बन कर अलीगढ़ आए थे। मुहम्मद नईम को देखते ही कॉलेज की सैर कुछ वक़्त के लिए मौक़ूफ़ हुई और एक दूसरे के हालात दरयाफ्त होने लगे। आख़िरकार इन सब का नतीजा ये हुआ कि दो दिन बाद हमें ईस्ट इंडियन रेलवे की डाकगाड़ी अज़ीमाबादी की तरफ़ ले जा रही थी। जहां मेरे दोस्त मुहम्मद नईम, एम.डी. (एल आर सी पी, क्योंकि अब मुझे मालूम हुआ कि इस अर्से में मुहम्मद नईम इंग्लिस्तान जा कर एम.डी. हो आए थे) का मकान है।
अज़ीमाबाद पहुंचते ही डाक्टर साहिब ने मुझे अपनी आलीशान और बेनज़ीर कोठी में उतारा। और उसी रोज़ अपने कुल अहबाब की दावत की ताकि मुझसे मिलाएँ। दावत के बाद सब लोग बाहर चमन में आ बैठे और इधर- उधर की बातें होती रहीं। आकर यके बाद दीगरे सब रुख़्सत हो गए और हम दोनों अकेले रह गए।

चूँकि गर्मी का मौसम था, इसलिए रात का वक़्त व चांदी रात सेहन-ए-चमन और ठंडी हवा ऐसी चीज़ें न थीं कि हम में से किसी का दिल उठने को चाहता। बाहरी कुर्सियाँ डाले बैठे रहे। बातों बातों में ये ज़िक्र आगया कि इन्सान की ज़िंदगी में ऐसे दिलचस्प वाक़ियात नहीं होते जिनमें नाविल का मज़ा आए, मैं इस बारे में बहुत भरा बैठा था। मैंने नाविल नवीसों पर निहायत ले दे शुरू की कि कमबख़्त ऐसी ऐसी बातें लिखते हैं कि हमें रश्क होता है कि हमारी ज़िंदगी में क्यों ऐसे वाक़ियात पेश नहीं आते। और क्या, और क्या बहुत ही कुछ कह डाला, नईम चुपका सुना किया। सिर्फ एक-आध जगह मुस्कुराया। मुझे हैरत थी कि ये क्यों अपनी राय ज़ाहिर नहीं करते। खैर जब मैं सब कुछ कह चुका तो नईम ने एक और मज़मून पेश किया। कहने लगे: “आजकल पर्दे की बहस छिड़ी हुई है, तुम्हारी इसके मुता’ल्लिक़ क्या राय है।जदीद ख़्याल हो या कुहना ख़्याल ?कुहना ख़्याल होगे, क्योंकि पर्दे की मुख़ालिफ़त तो तुमसे क़ियामत तक भी नहीं होने की”।
मैंने कहा, “बे-शक पर्दे की मुख़ालिफ़त कौन साहिबे अक़्ल कर सकता है”। [...]

लतीका रानी

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वो ख़ूबसूरत नहीं थी। कोई ऐसी चीज़ उसकी शक्ल-ओ-सूरत में नहीं थी जिसे पुरकशिश कहा जा सके, लेकिन इसके बावजूद जब वो पहली बार फ़िल्म के पर्दे पर आई तो उसने लोगों के दिल मोह लिये और ये लोग जो उसे फ़िल्म के पर्दे पर नन्ही मुन्नी अदाओं के साथ बड़े नर्म-ओ-नाज़ुक रूमानों में छोटी सी तितली के मानिंद इधर से उधर और उधर से इधर थिरकते देखते थे, समझते थे कि वो ख़ूबसूरत है। उस के चेहरे मोहरे और उसके नाज़ नख़रे में उनको ऐसी कशिश नज़र आती थी कि वो घंटों उसकी रोशनी में मब्हूत मक्खियों की तरह भिनभिनाते रहते थे।
अगर किसी से पूछा जाता कि तुम्हें लतिका रानी के हुस्न-ओ-जमाल में कौन सी सबसे बड़ी ख़ुसूसियत नज़र आती है जो उसे दूसरी एक्ट्रसों से जुदागाना हैसियत बख़्शती है तो वो बिला ताम्मुल ये कहता कि उसका भोलापन और ये वाक़िया है कि पर्दे पर वो इंतहा दर्जे की भोली दिखाई देती थी।

उसको देख कर इसके सिवा कोई और ख़याल दिमाग़ में आ ही नहीं सकता था कि वो भोली है, बहुत ही भोली और जिन रूमानों के पस-ए-मंज़र के साथ वो पेश होती, उनके ताने-बाने यूं मालूम होते थे कि किसी जोलाहे की अल्हड़ लड़की ने तैयार किए हैं।
वो जब भी पर्दे पर पेश हुई, एक मा’मूली अनपढ़ आदमी की बेटी के रूप में चमकीली दुनिया से दूर एक शिकस्ता झोंपड़ा ही जिसकी सारी दुनिया थी। किसी किसान की बेटी, किसी मज़दूर की बेटी, किसी कांटा बदलने वाले की बेटी और वो इन किरदारों के खोल में यूं समा जाती थी जैसे गिलास में पानी। [...]

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