नाम उसका सलीम था मगर उसके यार-दोस्त उसे शहज़ादा सलीम कहते थे। ग़ालिबन इसलिए कि उसके ख़द-ओ-ख़ाल मुग़लई थे, ख़ूबसूरत था। चाल ढ़ाल से रऊनत टपकती थी। उसका बाप पी.डब्ल्यू.डी. के दफ़्तर में मुलाज़िम था। तनख़्वाह ज़्यादा से ज़्यादा सौ रुपये होगी मगर बड़े ठाट से रहता, ज़ाहिर है कि रिश्वत खाता था। यही वजह है कि सलीम अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनता जेब ख़र्च भी उसको काफ़ी मिलता इसलिए कि वो अपने वालिदैन का इकलौता लड़का था। जब कॉलिज में था तो कई लड़कियां उसपर जान छड़कतीं थीं मगर वो बेएतिनाई बरतता, आख़िर उस की आँख एक शोख़-ओ-शंग लड़की जिसका नाम सीमा था, लड़ गई। सलीम ने उससे राह-ओ-रस्म पैदा करना चाहा। उसे यक़ीन था कि वो उसकी इलतफ़ात हासिल कर लेगा। नहीं, वो तो यहां तक समझता था कि सीमा उसके क़दमों पर गिर पड़ेगी और उसकी ममनून-ओ-मुतशक़्क़िर होगी कि उस ने मुहब्बत की निगाहों से उसे देखा। एक दिन कॉलिज में सलीम ने सीमा से पहली बार मुख़ातिब हो कर कहा, “आप किताबों का इतना बोझ उठाए हुई हैं, लाईए मुझे दे दीजिए। मेरा ताँगा बाहर मौजूद है, आपको और इस बोझ को आप के घर तक पहुंचा दूँगा।”
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