आह-ए-बेकस

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मुंशी राम सेवक भवें चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले, ऐसी ज़िंदगी से तो मौत बेहतर।
मौत की दस्त दराज़ियों का सारा ज़माना शाकी है। अगर इन्सान का बस चलता तो मौत का वुजूद ही न रहता, मगर फ़िलवाक़े मौत को जितनी दावतें दी जाती हैं उन्हें क़ुबूल करने की फ़ुर्सत ही नहीं। अगर उसे इतनी फ़ुर्सत होती तो आज ज़माना वीरान नज़र आता।

मुंशी राम सेवक मौज़ा चांद-पुर के एक मुमताज़ रईस थे और रुअसा के औसाफ़-ए-हमीदा से बहरावर वसीला मआश इतना ही वसीअ था जितनी इन्सान की हिमाक़तें और कमज़ोरियाँ यही उनकी इमलाक और मौरूसी जायदाद थी। वो रोज़ अदालत मुंसफ़ी के अहाते में नीम के दरख़्त के नीचे काग़ज़ात का बस्ता खोले एक शिकस्ता हाल चौकी पर बैठे नज़र आते थे और गो उन्हें किसी ने इजलास में क़ानूनी बहस या मुक़द्दमे की पैरवी करते नहीं देखा, मगर उर्फ़-ए-आम में वो मुख़्तार साहब मशहूर थे। तूफ़ान आए, पानी बरसे, ओले गिरें। मगर मुख़्तार साहब किसी नामुराद दिल की तरह वहीं जमे रहते थे। वो कचहरी चलते थे तो दहक़ानियों का एक जुलूस सा नज़र आता। चारों तरफ़ से उन पर अक़ीदत व एहतराम की निगाहें पड़तीं और अतराफ़ में मशहूर था कि उनकी ज़बान पर सरस्वती हैं।
उसे वकालत कहो या मुख़्तार कारी मगर ये सिर्फ़ ख़ानदानी या एज़ाज़ी पेशा था। आमदनी की सूरतें यहां मफ़क़ूद थीं। नुक़रई सिक्कों का तो ज़िक्र ही क्या कभी कभी मिसी सिक्के भी आज़ादी से आने में तअम्मुल करते थे। [...]

अनार कली

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नाम उसका सलीम था मगर उसके यार-दोस्त उसे शहज़ादा सलीम कहते थे। ग़ालिबन इसलिए कि उसके ख़द-ओ-ख़ाल मुग़लई थे, ख़ूबसूरत था। चाल ढ़ाल से रऊनत टपकती थी।
उसका बाप पी.डब्ल्यू.डी. के दफ़्तर में मुलाज़िम था। तनख़्वाह ज़्यादा से ज़्यादा सौ रुपये होगी मगर बड़े ठाट से रहता, ज़ाहिर है कि रिश्वत खाता था। यही वजह है कि सलीम अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनता जेब ख़र्च भी उसको काफ़ी मिलता इसलिए कि वो अपने वालिदैन का इकलौता लड़का था।

जब कॉलिज में था तो कई लड़कियां उसपर जान छड़कतीं थीं मगर वो बेएतिनाई बरतता, आख़िर उस की आँख एक शोख़-ओ-शंग लड़की जिसका नाम सीमा था, लड़ गई। सलीम ने उससे राह-ओ-रस्म पैदा करना चाहा। उसे यक़ीन था कि वो उसकी इलतफ़ात हासिल कर लेगा। नहीं, वो तो यहां तक समझता था कि सीमा उसके क़दमों पर गिर पड़ेगी और उसकी ममनून-ओ-मुतशक़्क़िर होगी कि उस ने मुहब्बत की निगाहों से उसे देखा।
एक दिन कॉलिज में सलीम ने सीमा से पहली बार मुख़ातिब हो कर कहा, “आप किताबों का इतना बोझ उठाए हुई हैं, लाईए मुझे दे दीजिए। मेरा ताँगा बाहर मौजूद है, आपको और इस बोझ को आप के घर तक पहुंचा दूँगा।” [...]

पंचायत

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जुम्मन शेख़ और अलगू चौधरी में बड़ा याराना था। साझे में खेती होती। लेन-देन में भी कुछ साझा था। एक को दूसरे पर कामिल एतिमाद था। जुम्मन जब हज करने गए थे तो अपना घर अलगू को सौंप गए थे और अलगू जब कभी बाहर जाते तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते। वो न हम-निवाला थे न हम-मशरब। सिर्फ़ हम-ख़याल थे और यही दोस्ती की अस्ल बुनियाद है।
इस दोस्ती का आग़ाज़ उसी ज़माने में हुआ जब दोनों लड़के जुम्मन के पिदर-ए-बुज़ुर्गवार शेख़ जुमेराती के रू-ब-रू ज़ानू-ए-अदब तह करते थे। अलगू ने उस्ताद की बहुत ख़िदमत की ख़ूब रकाबियाँ माँझीं। ख़ूब प्याले धोए, उनका हुक़्क़ा दम न लेने पाता था। इन ख़िदमतों में शागिर्दाना अक़ीदत के सिवा और कोई भी ख़याल मुज़िर न था, जिसे अलगू ख़ूब जानता था। उनके बाप पुरानी वज़ा के आदमी थे। तालीम के मुक़ाबले में उन्हें उस्ताद की ख़िदमत पर ज़्यादा भरोसा था।

वो कहा करते थे उस्ताद की दुआ चाहिए जो कुछ होता है फ़ैज़ से होता है। और अगर अलगू पर उस्ताद के फ़ैज़ या दुआओं का असर न हुआ तो उसे तस्कीन थी कि तहसील-ए-इल्म का कोई दक़ीक़ा उसने फ़ुरुगुज़ाश्त नहीं किया। इल्म उसकी तक़दीर ही में न था। शेख़ जुमराती ख़ुद दुआ और फ़ैज़ के मुक़ाबले में ताज़ियाने के ज़्यादा क़ाइल थे और जुम्मन पर इसका बे-दरेग़ इस्तेमाल करते थे, उसी का ये फ़ैज़ था कि आज जुम्मन के क़ुर्ब-ओ-ज्वार के मवाज़िआत में पुरशिश होती थी। बैअनामा या रहन-नामा के मुसव्विदात पर तहसील का अराइज़-नवीस भी क़लम नहीं उठा सकता था।
हल्क़े का पोस्टमैन कांस्टेबल और तहसील का मज़कूरी ये सब उनके दस्त-ए-करम के मोहताज थे। इसलिए अगर अलगू को उनकी सर्वत ने मुम्ताज़ बना दिया था तो शेख़ जुम्मन भी इल्म की ला ज़वाल दौलत के बाइस इज़्ज़त की निगाहों से देखे जाते थे। [...]

क़र्ज़ की पीते थे...

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एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे, बाहर हवादार मौजूद था। उसमें बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवानख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरादास महाजन बैठा है।
ग़ालिब ने अंदर दाख़िल होते ही कहा, “अख़ाह! मथुरा दास! भई तुम आज बड़े वक़्त पर आए... मैं तुम्हें बुलवाने ही वाला था!”

मथुरा दास ने ठेट महाजनों के से अंदाज़ में कहा, “हुज़ूर रूपों को बहुत दिन हो गए। फ़क़त दो क़िस्त आपने भिजवाए थे... उसके बाद पाँच महीने हो गए, एक पैसा भी आपने न दिया।”
असद उल्लाह ख़ान ग़ालिब मुस्कुराए, “भई मथुरादास, देने को मैं सब दे दूंगा। गले-गले पानी दूंगा... दो-एक जायदाद अभी मेरी बाक़ी है।” [...]

झूटी कहानी

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कुछ अर्से से अक़ल्लियतें अपने हुक़ूक़ के तहफ़्फ़ुज़ के लिए बेदार हो रही थीं। उनको ख़्वाब-ए-गिरां से जगाने वाली अक्सरियतें थीं जो एक मुद्दत से अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए उन पर दबाव डालती रही थीं। इस बेदारी की लहर ने कई अंजुमनें पैदा करदी थीं। होटल के बेरों की अंजुमन, हज्जामों की अंजुमन, क्लर्कों की अंजुमन, अख़बार में काम करने वाले सहाफ़ीयों की अंजुमन। हर अक़ल्लियत अपनी अंजुमन या तो बना चुकी थी या बना रही थी ताकि अपने हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त कर सके।
ऐसी हर अंजुमन के क़ियाम पर अख़बारों में तब्सिरे होते थे। अक्सरियत के हिमायती उनकी मुख़ालिफ़त करते थे और अक़ल्लियत के तरफ़दार मुवाफ़िक़त। ग़रज़ कि कुछ अर्से से एक अच्छा ख़ासा हंगामा बरपा था जिससे रौनक़ लगी रहती थी, मगर एक रोज़ जब अख़बारों में ये ख़बर शाये हुई कि मुल्क के दस नंबरिए गुंडों ने अपनी अंजुमन क़ायम की है तो अक्सरियतें और अक़ल्लियतें दोनों सनसनी ज़दा हो गईं।

शुरू शुरू में तो लोगों ने ख़याल किया कि बे पर की उड़ा दी है किसी ने। पर जब बाद में इस अंजुमन ने अपने अग़राज़-ओ-मक़ासिद शाया किए और एक बाक़ायदा मंशूर तर्तीब दिया तो पता चला कि ये कोई मज़ाक़ नहीं। गुंडे और बदमाश वाक़ई ख़ुद को इस अंजुमन के साये तले मुत्तहिद और मुनज़्ज़म करने का पूरा पूरा तहय्या कर चुके हैं।
इस अंजुमन की एक दो मीटिंगें हो चुकी थीं, इनकी रूदाद अख़बारों में शाया हो चुकी थी। लोग पढ़ते और दमबख़ुद हो जाते। बा’ज़ कहते कि बस अब क़ियामत आने में ज़्यादा देर बाक़ी नहीं। [...]

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