ख़्वाब सरीखा छुटपन सावन प्याज़ की रोटी देसी घी

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ख़्वाब सरीखा छुटपन सावन प्याज़ की रोटी देसी घी
अम्मा के सिल-बट्टे वाली धनिए लहसन की चटनी

कच्ची मिट्टी के घर जैसे बच्चों को सहलाते थे
गुबरी वाले दालानों पर चोट कभी न लगती थी [...]

मुरासिला

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मुकर्रमी! आपके मूक़र अख़बार के ज़रीये में मुताल्लिक़ा हुक्काम को शहर के मग़रिबी इलाक़े की तरफ़ मुतवज्जा कराना चाहता हूँ। मुझे बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आज जब बड़े पैमाने पर शहर की तौसीअ हो रही है और हर इलाक़े के शहरीयों को जदीद तरीन सहूलतें बहम पहुंचाई जा रही हैं, ये मग़रिबी इलाक़ा बिजली और पानी की लाईनों तक से महरूम है। ऐसा मालूम होता है कि इस शहर की तीन ही सम्तें हैं। हाल ही में जब एक मुद्दत के बाद मेरा इस तरफ़ एक ज़रूरत से जाना हुआ तो मुझको शहर का ये इलाक़ा बिलकुल वैसा ही नज़र आया जैसा मेरे बचपन में था।
(१)

मुझे इस तरफ़ जाने की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन अपनी वालिदा की वजह से मजबूर हो गया। बरसों पहले वो बुढ़ापे के सबब चलने फिरने से माज़ूर हो गई थीं, फिर उनकी आँखों की रोशनी भी क़रीब क़रीब जाती रही और ज़हन भी माऊफ़ सा हो गया। माज़ूरी का ज़माना शुरू होने के बाद भी एक अर्से तक वो मुझको दिन रात में तीन चार मर्तबा अपने पास बुला कर कपकपाते हाथों से सर से पैर तक टटोलती थीं। दर असल मेरे पैदा होने के बाद ही से उनको मेरी सेहत ख़राब मालूम होने लगी थी। कभी उन्हें मेरा बदन बहुत ठंडा महसूस होता, कभी बहुत गर्म, कभी मेरी आवाज़ बदली हुई मालूम होती और कभी मेरी आँखों की रंगत में तग़य्युर नज़र आता। हकीमों के एक पुराने ख़ानदान से ताल्लुक़ रखने की वजह से उनको बहुत सी बीमारीयों के नाम और ईलाज ज़बानी याद थे और कुछ-कुछ दिन बाद वो मुझे किसी नए मर्ज़ में मुबतला क़रार देकर उस के ईलाज पुर इसरार करती थीं। उनकी माज़ूरी के इबतिदाई ज़माने में दो तीन बार ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ कि मैं किसी काम में पड़ कर उनके कमरे में जाना भूल गया, तो वो मालूम नहीं किस तरह ख़ुद को खींचती हुई कमरे के दरवाज़े तक ले आएं। कुछ और ज़माना गुज़रने के बाद जब उनकी रही सही ताक़त भी जवाब दे गई तो एक दिन उनके मुआलिज ने महिज़ ये आज़माने की ख़ातिर कि आया उनके हाथ पैरों में अब भी कुछ सकत बाक़ी है, मुझे दिन-भर उनके पास नहीं जाने दिया और वो ब-ज़ाहिर मुझसे बे-ख़बर रहीं, लेकिन रात गए उनके आहिस्ता-आहिस्ता कराहने की आवाज़ सुनकर जब मैं लपकता हुआ उनके कमरे में पहुंचा तो वो दरवाज़े तक का आधा रास्ता तै कर चुकी थीं। उनका बिस्तर, जो इन्होंने मेरे वालिद के मरने के बाद से ज़मीन पर बिछाना शुरू कर दिया था, उनके साथ घिसटता हुआ चला आया था। देखने में ऐसा मालूम होता था कि बिस्तर ही उनको खींचता हुआ दरवाज़े की तरफ़ लिए जा रहा था। मुझे देखकर इन्होंने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन तकान के सबब बेहोश हो गईं और कई दिन तक बेहोश रहीं। उनके मुआलिज ने बार-बार अपनी ग़लती का एतराफ़ और इस आज़माईश पर पछतावे का इज़हार किया, इसलिए कि इस के बाद ही से मेरी वालिदा की बीनाई और ज़हन ने जवाब देना शुरू किया, यहां तक कि रफ़्ता-रफ़्ता उनका वजूद और अदम बराबर हो गया।
उनके मुआलिज को मरे हुए भी एक अरसा गुज़र गया। लेकिन हाल ही में एक रात मेरी आँख खुली तो मैंने देखा कि वो मेरे पायँती ज़मीन पर बैठी हुई हैं और एक हाथ से मेरे बिस्तर को टटोल रही हैं। मैं जल्दी से उठकर बैठ गया। [...]

माई नानकी

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इस दफ़ा मैं एक अजीब सी चीज़ के मुतअल्लिक़ लिख रहा हूँ। ऐसी चीज़ जो एक ही वक़्त में अजीब-ओ-ग़रीब और ज़बरदस्त भी है। मैं असल चीज़ लिखने से पहले ही आपको पढ़ने की तरग़ीब दे रहा हूँ। उसकी वजह ये है कि कहीं आप कल को न कह दें कि हमने चंद पहली सुतूर ही पढ़ कर छोड़ दिया था क्योंकि वो ख़ुश्क सी थीं। आज इस बात को क़रीब-क़रीब तीन माह गुज़र गए हैं कि मैं माई नानकी के मुतअल्लिक़ कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था।
मैं चाहता था कि किसी तरह जल्दी से उसे लिख दूँ ताकि आप भी माई नानकी की अजीब-ओ-ग़रीब और पुर-असरार शख़्सियत से वाक़िफ़ हो जाएं। हो सकता है आप इससे पहले भी माई नानकी को जानते हों क्योंकि उसे कश्मीर और जम्मू कश्मीर के इलाक़े के सभी लोग जानते हैं और लाहौर में सय्यद मिठा और हीरा मंडी के गर्द-ओ-नवाह में रहने वाले लोग भी।

क्योंकि असल में वो रहने वाली जम्मू की है और आजकल राजा ध्यान सिंह की हवेली के एक अंधेरे कोने में रहती है। लिहाज़ा बहुत मुम्किन है कि आप भी जम्मू या हीरा मंडी के गर्द-ओ-नवाह में रहते हों और माई नानकी से वाक़िफ़ हों, लेकिन मैंने उसे बहुत क़रीब से देखा है।
मैंने अपनी ज़िंदगी में बहुत सी औरतें देखी हैं और बड़ी-बड़ी ज़हरीली क़िस्म की औरतें लेकिन मैं आज तक किसी से इतना मुतास्सिर नहीं हुआ जितना उस औरत से। जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूँ वो जम्मू की रहने वाली है। [...]

पतझड़ की आवाज़

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सुब्ह मैं गली के दरवाज़े में खड़ी सब्ज़ी वाले से गोभी की क़ीमत पर झगड़ रही थी। ऊपर बावर्ची-ख़ाने में दाल चावल उबालने के लिए चढ़ा दिए थे। मुलाज़िम सौदा लेने के लिए बाज़ार जा चुका था। ग़ुस्ल-ख़ाने में वक़ार साहिब चीनी की चिलमची के ऊपर लगे हुए मद्धम आईने में अपनी सूरत देखते हुए गुनगुना रहे थे और शेव करते जाते थे। मैं सब्ज़ी वाले से बहस करने के साथ-साथ सोचने में मसरूफ़ थी कि रात के खाने के लिए क्या-क्या तैयार किया जाए। इतने में सामने एक कार आन कर रुकी। एक लड़की ने खिड़की से झाँका और फिर दरवाज़ा खोल कर बाहर उतर आई। मैं पैसे गिन रही थी। इसलिए मैंने उसे न देखा। वो एक क़दम आगे बढ़ी। अब मैंने सर उठाकर उस पर नज़र डाली।
“अरे... तुम...!”, उसने हक्का-बक्का होकर कहा और वहीं ठिठक कर रह गई।

ऐसा लगा जैसे वो मुद्दतों से मुझे मुर्दा तसव्वुर कर चुकी है और अब मेरा भूत उसके सामने खड़ा है। उसकी आँखों में एक लहज़े के लिए जो दहशत मैंने देखी, उसकी याद ने मुझे बावला कर दिया है। मैं तो सोच-सोच के दीवानी हो जाऊँगी। ये लड़की (उसका नाम तक ज़हन में महफ़ूज़ नहीं और उस वक़्त मैंने झेंप के मारे उससे पूछा भी नहीं वर्ना वो कितना बुरा मानती) मेरे साथ दिल्ली के क्वीन मैरी में पढ़ती थी।
ये बीस साल पहले की बात है। मैं उस वक़्त कोई सत्रह साल की रही हूँगी। मगर मेरी सेहत इतनी अच्छी थी कि अपनी उ'म्र से कहीं बड़ी मा'लूम होती थी और मेरी ख़ूबसूरती की धूम मचनी शुरू’ हो चुकी थी। दिल्ली में क़ाएदा था कि लड़के-वालियाँ स्कूल-स्कूल घूम के लड़कियाँ पसंद करती फिरती थीं और जो लड़की पसंद आती थी, उसके घर ‘रुक़आ’ भिजवा दिया जाता था। [...]

अन्न-दाता

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(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। [...]

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