कभी तो ऐसा भी हो राह भूल जाऊँ मैं निकल के घर से न फिर अपने घर में आऊँ मैं बिखेर दे मुझे चारों तरफ़ ख़लाओं में कुछ इस तरह से अलग कर कि जुड़ न पाऊँ मैं ये जो अकेले में परछाइयाँ सी बनती हैं बिखर ही जाएँगी लेकिन किसे दिखाऊँ मैं मिरा मकान अगर बीच में न आए तो इन ऊँचे ऊँचे मकानों को फाँद जाऊँ मैं गवाही देता वही मेरी बे-गुनाही की वो मर गया तो उसे अब कहाँ से लाऊँ मैं ये ज़िंदगी तो कहीं ख़त्म ही नहीं होती अब और कितने दिनों ये अज़ाब उठाऊँ मैं ग़ज़ल कही है कोई भाँग तो नहीं पी है मुशाएरे में तरन्नुम से क्यूँ सुनाऊँ मैं अरे वो आप के दीवान क्या हुए 'अल्वी' बिके न हों तो कबाड़ी को साथ लाऊँ मैं