ये बहार वो है जहाँ रही असर-ए-ख़िज़ाँ से बरी रही जो सलीब-ओ-दार में ढल गई वही चोब-ए-ख़ुश्क हरी रही मिली जब कभी ख़बर-ए-जहाँ तो जहाँ से बे-ख़बरी रही किसी और से नहीं कुछ गिला ख़जिल अपनी दीदा-वरी रही वही इक ख़राबी-ए-बे-कराँ जो तिरे जहाँ का नसीब है इसी रुस्त-ओ-ख़ेज़ से आज तक मिरे दिल में बे-ख़तरी रही मिरी ज़िंदगी की उरूस-ए-नौ तुझे इस की कोई ख़बर भी है वो थी किस की सुर्ख़ी-ए-ख़ून-ए-दिल तिरी माँग में जो भरी रही कोई क़र्या कोई दयार हो कहीं हम अकेले नहीं रहे तिरी जुस्तुजू में जहाँ गए वहीं साथ दर-बदरी रही वही आग अपना नसीब थी कि तमाम उम्र जला किए जो लगाई थी कभी इश्क़ ने वही आग दिल में भरी रही वही इक सदाक़त-ए-हर्फ़ थी खिली फूल बन के जो आग में वही इक दलील-ए-हयात थी जो गवाह-ए-बा-ख़बरी रही न असर फ़ुसूँ कोई कर सका न वो मेरे दिल में उतर सका कोई अक्स ही न उभर सका रहा शीशा और न परी रही मैं हलाक-ए-लज़्ज़त-ए-गुफ़्तुगू ही सही मगर इसे क्या करूँ जो फ़राज़-ए-दार से की गई वही एक बात खरी रही हुनर आज 'इशक़ी'-ए-बे-नवा का ख़जिल है रूह-ए-'सिराज' से वही इक ख़लिश जो मता-ए-फ़न थी सुबूत-ए-बे-हुनरी रही