जिन ख़ाक के ज़र्रों पर वो साया-ए-महमिल था जो ख़ाक का ज़र्रा था वहशत-कदा-ए-दिल था बेदाद की हर तह में सौ तरह से शामिल था वो जान का दुश्मन जो कहने को मिरा दिल था ग़म हुस्न-ए-मुकम्मल था दिल हैरत-ए-कामिल था तस्वीर का आईना तस्वीर के क़ाबिल था हम जी से गुज़र जाना आसान समझते थे देखा तो मोहब्बत में ये काम भी मुश्किल था आईना-ओ-दिल दोनों कहने ही की बातें थीं तेरी ही तजल्ली थी और तू ही मुक़ाबिल था हर बातिल-ओ-हर-नाहक़ इक राज़-ए-हक़ीक़त है जिस शक्ल में हक़ आया वाबस्ता-ए-बातिल था हाँ आप किसी को यूँ बर्बाद नहीं करते ये 'फ़ानी'-ए-नाकारा सच है इसी क़ाबिल था