जोगिया

नहा-धो कर नीचे के तीन-साढ़े तीन कपड़े पहने जोगिया रोज़ की तरह उस दिन भी अलमारी के पास आ खड़ी हुई। और मैं अपने हाँ से थोड़ा पीछे हट कर देखने लगा। ऐसे में दरवाज़े के साथ जो लगा तो चूँकि एक बे सुरी आवाज़ पैदा हुई। बड़े भैया जो पास ही बैठे शेव बना रहे थे मुड़ कर बोले, क्या है जुगल? कुछ नहीं मोटे भैया। मैंने उन्हें टालते हुए कहा, गर्मी बहुत है। और मैं फिर सामने देखने लगा। साढ़ी के सिलसिले में जोगिया आज कौन सा रंग चुनती है।
मैं जे-जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में पढ़ता था। रंग मेरे हवास पा छाए रहते थे। रंग मुझे मर्द-औरतों से ज़ियादा नातिक़ मालूम होते थे। और आज भी होते हैं फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि लोग बे मानी बातें भी करते हैं लेकिन रंग कभी मानी से ख़ाली बात नहीं करते।

हमारा मकान कालबा देवी की वादी शीट आग्यारी लेन में था। पारसियों की आग्यारी तो कहीं दूर गली के मोड़ पर थी। यहाँ पर सिर्फ़ मकान थे। आमने-सामने और एक दूसरे से बग़ल-गीर हो रहे थे। इन मकानों की हम आग़ोशियाँ कहीं तो माँ-बच्चे के प्यार की तरह धीमी-धीमी मुलाइम-मुलाइम और साफ़-सुथरी थीं और कहीं मर्द औरत की मोहब्बत की तरह मजनूनाना सीना-ब-सीना लब-ब-लब, ग़लीज़ और मुक़द्दस...
सामने बाँपू घर की क़िस्म के कमरों में जो कुछ होता था। वो हमारे हाँ ज्ञान भवन से साफ़ दिखाई देता। अभी बिजूर की माँ तरकारी छील रही है और चाक़ू से अपना ही हाथ काट लिया है। डंकर भाई ने अहमद आबाद से तिल और तेल के दो पीपे मंगवाए हैं और पंजाबन सबकी नज़रें बचा कर अंडों के छिलके कूड़े के ढेर में फेंक रही है जैसे हमारे ज्ञान भवन से उन लोगों का खाया-पिया सब पता चलता था। ऐसे ही उन्हें भी हमारा सब अज्ञान नज़र आता होगा।

जोगिया के मकान का नाम तोरनछोड़ निवास था। लेकिन मैं उसे बाँपू घर की क़िस्म का मकान इसलिए कहता हूँ कि उसमें आम तौर पर बिधवाएँ और छोड़ी हुई औरतें रहती थीं। जिनमें से एक जोगिया की माँ थी जो दिन भर किसी दर्ज़ी के घर में सिलाई की मशीन चलाती और उससे इतना पैसा पैदा कर लेती, जिससे अपना पेट पाल सके और साथ ही उसकी तालीम भी मुकम्मल करे।
जोगिया सत्रह-अठारह बरस की एक ख़ूबसूरत लड़की थी, क़द कोई ऐसा छोटा न था लेकिन बदन के भरे पुरे और घटे होने की वजह से उस पर छोटा होने का गुमान गुज़रता था। किसी को यक़ीन भी न आ सकता था कि जोगिया दाल, रंगना और हफ़्ते में एक आध बार की श्री खंड से इतनी तंदुरुस्त हो सकती थी। बहरहाल इन लड़कियों का कुछ मत कहिए जो भी खाती हैं अल्लम-ग़ल्लम, उनके बदन को लगता है। जोगिया का चेहरा सोमनात मंदिर के पेश रुख़ की तरह चौड़ा था। जिसमें क़िन्दीलों जैसी आँखें रात के अँधेरे में भटके हुए मुसाफ़िरों को रौशनी दिखाती थीं। मूर्ति जैसा नाक और होंट ज़मुर्रद और याक़ूत की तरह टँके हुए थे। सर के बाल कमर से नीचे तक की पैमाइश करते थे जिन्हें वो कभी ढ़ीला-ढ़ीला और भीगा-भीगा रखती और कभी इस क़दर ख़ुश्क बना देती कि उनकी कुछ लटें बाक़ी बालों से ख़्वाह-मख़ाह अलग हो कर चेहरे और गर्दन पर मचलती रहतीं। उसका चेहरा क्या था, पूरा तारा मंडल था। जिसमें चाँद ख़्यालों और जज़्बों के साथ घटता और बढ़ता रहता था। जोगिया यूँ बड़ी भोली थी। लेकिन अपने आपको सजाने बनाने के सिलसिले में बहुत चालाक थी। कब और किस वक़्त क्या करना है। ये वही जानती थी और उसके इस जानने में उसकी तालीम का बड़ा हाथ था, जिसने उसके हुस्न को दोबाला कर दिया था। गड़बड़ थी तो बस रंग की। क्योंकि जोगिया का रंग ज़रूरत से ज़ियादा गोरा था। जिसे देखते ही ज़ुकाम का सा एहसास होने लगता। अगर बाक़ी की चीज़ें इतनी मुनासिब न होतीं तो बस छुट्टी हो गई थी।

मैं नहीं जानता मोहब्बत किस चिड़िया का नाम है। लेकिन ये हक़ीक़त है कि जोगिया को देखते ही मेरे अंदर कोई दीवारें सी गिरने लगती थीं और जहाँ तक मुझे याद है। जोगिया भी मुझे देख कर ग़ैर मुतअल्लिक़ बातें करने लगती, जोगिया मेरी भतीजी हेमा की सहेली थी, अजीब सहेलपना था। क्योंकि हेमा सिर्फ़ सात साल की थी और जोगिया अठारह बरस की। उनकी दोस्ती की कोई वजह थी, जिसे सिर्फ़ जोगिया जानती थी और या फिर मैं जानता था। मोटे भैया और भाबी सिर्फ़ यही समझते थे। वो हेमा से प्यार करती है। इसलिए उसे पढ़ाने आती है। यूँ हमारे घर में आ कर जोगिया सबको सबक़ दे जाती थी। मैं जो एक आर्टिस्ट बनने जा रहा था ऐसी रख रखाव की बातों का क़ाइल न था। लेकिन मेरी मजबूरियाँ थीं, मैंने कमाना शुरू नहीं किया था और मेरे हर क़िस्म के ख़र्च का मदार मोटे भैया पर था। अलबत्ता बीच-बीच में मुझे इस बात का ख़्याल आता था। इस दाव घात में भी एक मज़ा है। मग़रिब में लड़के-लड़कियाँ जो इतनी आसानी से एक दूसरे का हाथ अपने हाथ में ले लेते हैं, बिना किसी इल्तिहाब के एक दूसरे की आग़ोश में चले आते हैं, ख़ाक लुत्फ़ उठाते हैं? इत्तिफ़ाक़न महबूबा के बदन से छू जाने पर उनके अंदर तो कोई बिजली न दौड़ती होगी? शायद उनको कोई ऐसा लुत्फ़ मिलता हो जो हमारे लुत्फ़ से अर्फ़्अ हो। लेकिन हमारे हाँ सिर्फ़ लम्स और इधर-उधर की बातों ही में ऐसे तलम्मुज़ का एहसास होता है कि उनके विसाल में भी क्या होगा? यूँ ही दो-चार बार मेरा हाथ जोगिया के पिंडे को लग गया होगा। एक बार सिर्फ़ एक बार मैंने अपने इरादे से उसका मुँह चूमा था।
हम घर से थोड़े-थोड़े वक़्फ़े और फ़ासले के साथ निकलते थे। और फिर पारसियों की आग्यारी के पास मिल जाते। हमारे इस राज़ को सिर्फ़ वो पारसी पुजारी ही जानता था जो फ़रिश्तों के लिबास में अगियारी के बाहर ही बैठा होता और मुँह में झिंदावसता पढ़ता रहता। वो सिर्फ़ हमारे सुरोश को समझता था। इसलिए उसके पास से गुज़रते हुए हम उसे ज़रूर साहब जी कहते और फिर उस रास्ते पे चल देते जो दुनिया के लहू व लइब मेट्रो सिनेमा की तरफ़ जाता था। जहाँ पहुँच कर जोगिया अपने कॉलेज की तरफ़ चल देती और मैं अपने स्कूल की तरफ़। रास्ते भर हम ग़ैर-मुतअल्लिक़ बातें करते और उनसे पूरा हज़ उठाते। अगर प्यार की बातें होतीं भी तो किसी दूसरे के प्यार की जिनमें वो मर्द को हमेशा बदमाश कहती और फिर इस बात पे कुढ़ती भी कि उसके बग़ैर भी गुज़ारा नहीं। एक दिन जहाँगीर आर्ट गैलरी में किसी आर्टिस्ट की मुनफ़रिद नुमाइश थी और पूरे शहर बम्बई में से कोई भी उस बद-नसीब की तस्वीरों को देखने और ख़रीदने न आया था। सिर्फ़ मैं और जोगिया पहुँचे थे और वो भी तस्वीरें देखने की बजाय एक दूसरे को देखने महसूस करने के लिए। पूरे हॉल में हमारे सिवा कोई भी न था और तीन तरफ़ से रंग हमें घूर रहे थे। जुहू में एक सुबह, के नाम एक बड़ी सी तस्वीर थी। जिसमें ऊपर के हिस्से पर ब्रश से गहरे सुर्ख़ रंग को मोटे-मोटे और भद्दे तरीक़े से थोपा और पचारा गया था। जिसने हमारी रूहों तक में इल्तिहाब पैदा कर दिया। इस तस्वीर के नीचे एक स्टूल सा पड़ा था। जिस पर जोगिया किसी अंदुरूनी तकान के एहसास से बैठ गई। उसकी साँस क़दरे तेज़ थी और मैं जानता था मोहब्बत में एक क़दम भी बा'ज़ वक़्त सैंकड़ों फ़र्संग होता है और आदमी चलने से पहले थक जाता है।

आर्टिस्ट रुहाँसा हो कर बाहर चला गया था। देखने कोई आता मरता है या नहीं। अपनी नफ़रत में वो हमारी मोहब्बत को न देख सका था। जभी हम दोनों के अकेले होने ने पूरे हॉल को भर दिया।
उस दिन मैंने जोगिया से सब कह देना चाहा। हम दोनों ही प्यार की हेरा-फेरियों से तंग आ चुके थे। चुनाँचे मैंने एक क़दम आगे बढ़ाया, ठिटका और फिर स्टूल के पास जोगिया के ऐन पीछे खड़ा हो गया। मैं कह भी सका तो इतना, जोगिया! मैं तुम्हें एक लतीफ़ा सुनाऊँ।

सामने आ के सुनाओ। बोली।
मैंने कहा, लतीफ़ा ही ऐसा है।

मेरी तरफ़ देखे बग़ैर ही उसे मेरे हैस-बैस का अंदाज़ हो रहा था और मुझे पीछे उसके कानों की लवों से उसकी मुस्कुराहट दिखाई दे रही थी। आख़िर मैंने लतीफ़ा शुरू किया, एक बहुत ही डरपोक क़िस्म का प्रेमी था।
हूँ। जोगिया के संभलने ही से उसकी दिलचस्पी का अंदाज़ हो रहा था।

वो किसी तरह भी अपनी प्रेमिका को अपना प्यार न जता सकता था।
उस पर जोगिया ने तीन चौथाई में मेरे तरफ़ देखा।

तुम लतीफ़ा सुना रहे हो।
हाँ। मैंने कुछ ख़फ़ीफ़ होते हुए कहा।

और जोगिया फिर सीधी हो कर बैठ गई, मुंतज़िर... एक ऐसा इंतिज़ार जो बहुत ही लंबा हो गया था जिसमें लम्हात के शरारे, किसी बारूद से छूट-छूट कर निकल रहे थे। ख़ला में फुट रहे थे और आख़िर मादूमीयत का हिस्सा होते जा रहे थे। जभी 'जुहू में एक सुबह' में लाल रंग के बीच से सूरज की किरण नीचे समुंदर की सियाहियों में डोलती हुई कश्ती पे पड़ी और मैंने कहा, वो लड़की अपने प्रेमी से तंग आ गई। आख़िर उसने सोचा। इस बेचारे में तो हिम्मत ही नहीं। क्यों न मैं इसे कोई ऐसा मौक़ा दूँ। शायद... चुनाँचे उसने अपने जन्मदिन पर लड़के को बुला लिया। लड़का आप ही गुलदस्ता भी लाया। जिसे हाथ में लेते हुए उसकी प्रेमिका ने कहा, हाय, कितना प्यारा है ये ऊदे में गुलाबी। गुलाबी में सफ़ेद रंग के फूल।
फिर? जोगिया की बे-सब्री पीछे से भी दिखाई दे रही थी।

इनके बदले तो कोई मेरा मुँह भी चूम ले। फिर... लड़की ने अपना मुँह थोड़ा आगे कर दिया, मगर... वो लड़का बाहर जा रहा था दरवाज़े की तरफ़।
हे भगवान। और जोगिया ने हाथ अपने माथे पर मार लिया था। मैंने अपना बयान जारी रखते हुए कहा। लड़की बोली, कहाँ जा रहे हो लाली। जिस पर लाली ने दरवाज़े के पास मुड़ते हुए कहा, और फूल लेने।

इससे पहले कि जोगिया हँसती और उसका इंतिज़ार अबदीयत पे छा जाता मैंने उसको चूम लिया। वो हंस न सकती थी क्योंकि वो ख़फ़ा थी और ख़ुश भी। मोहब्बत के इस बे बर्ग-ओ-ग्याह सफ़र में एका-एकी ज़मीन का कोई ऐसा टुकड़ा चला आया था जिसे बारिश के छींटों ने हरा कर दिया था। उस दिन अगर हम जोशीले, गहरे रंग की तस्वीर के नीचे खड़े न होते तो मैं जोगिया का मुँह न चूम सकता था।
उसके बाद आर्ट का दिल-दादा कोई आदमी आया और उसने बाज़ू वाली तस्वीर ख़रीद ली। जिसका नाम था, कोई किसी का नहीं। और जिसमें एक औरत सर हाथों में दिए रो रही थी सब रंगों में उदासी थी और ऐसे वक़्त मैं उदासी के रंग ख़रीद रहा था, जबकि सब खिलते हुए रंग हमारे थे जेब में एक पाई न होने के बावजूद सब तस्वीरें हमारी थीं, नुमाइश हमारी थी जोगिया एक अज़ीम तशफ़्फ़ी के एहसास से मामूर बाहर दरवाज़े के पास पहुँच चुकी थी जहाँ से उसने एक बार मुड़ कर मेरी तरफ़ देखा मुक्का दिखाया, मुस्कुराई और दौड़ गई।

कुछ देर यूँही इधर-उधर रंग उछालने के बाद मैं भी बाहर चला आया। दुनिया की सब चीज़ें उस रोज़ उजली-उजली दिखाई दे रही थी। लोगों ने ऐसे ही रंगों के नाम ऊदा, पीला, काला और नीला वग़ैरा रखे हुए हैं। किसी को ख़्याल भी नहीं आया, एक रंग ऐसा भी है जो उनकी जमा-ए-तफ़रीक़ में नहीं आता और जिसे उजला कहते हैं और जिसमें धनिक के सातों रंग छुपे हुए हैं। मेरा गला तशक्कुर के एहसास से रौंदा हुआ था, मैं किसी का शुक्रिया अदा कर रहा था? उसी एक लम्स से जोगिया हमेशा के लिए मेरी हो गई थी, मैं जैसे उसकी तरफ़ से बे-फ़िक्र हो गया था। अब वो किसी के साथ ब्याह भी कर लेती जब भी वो मेरी थी जिसमें सच्चाई हो वलवला हो बद-नसीब शौहर को कहाँ मिलता है।
तो गोया उस दिन मैं देख रहा था कौन से रंग की साढ़ी जोगिया अपनी अलमारी से निकालती है अगर वो मुझे मेरे हाँ के दरवाज़े के पीछे देख लेती तो ज़रूर इशारे से पूछती आज कौन सी साढ़ी पहनूँ और उसी में सारा मज़ा किरकिरा हो जाता, मैं तो जानना चाहता था सुबह-सवेरे नहा-धो कर जब कोई सुंदरी अपनी साड़ियों के ढ़ेर के सामने खड़ी होती है तो उसमें कौन सी चीज़ है जो इस बात का फ़ैसला करती है कि आज फ़लाँ रंग की साढ़ी पहननी चाहिए। उन औरतों के सोचने का तरीक़ा बड़ा पुर-असरार है, पुर-पेच। फेर इतना है इसमें कि मर्द उसकी तह को भी नहीं पहुँच सकता, सुना है चाँद न सिर्फ़ औरत के ख़ून बल्कि उसके सोच-बिचार पे भी असर-अंदाज़ होता है लेकिन चाँद का अपना तो कोई रंग ही नहीं, रौशनी ही नहीं। वो तो सब सूरज से मुस्तआर लेता है जभी, जभी साढ़ी पहनने से पहले औरत हमेशा अपने किसी सूरज से पूछ लेती है आज कौन सी साढ़ी पहनूँ।

नहीं-नहीं। उसका अपना रंग है, अपना फ़ैसला फिर किसी को कोई मर्द थोड़ा बताने जाता है फिर रात का भी तो एक रंग होता है। उसका अपना रंग। उस दिन वाक़ई बहुत गर्मी थी, नीचे वादी शीट आग्यारी लेन में आते-जाते लोग रेत के रंग की सड़क पर से गुज़रते थे तो मालूम होता था मौसम की भटियारिन दाने भून रही है जब कोई पंजाबी या मारवाड़ी बड़ा सा पग्गड़ बांधे गुज़रा तो ऊपर से बिल्कुल मकई का दाना मालूम हुआ जो भट्टी की आँच में फूल कर सफ़ेद हो जाता है।
यहाँ ज्ञान भवन से मुझे सिर्फ़ रंग के छींटे दिखाई दिए वो सब साढ़ियाँ थीं, जिनमें से एक जोगिया अपने लिए, मेरे लिए सारी दुनिया के लिए चुन रही थी। यूँही उसने एक बार मेरे घर की तरफ़ देखा, शायद उसकी निगाहें मुझे ढ़ूँढ़ रही थीं लेकिन मैंने तो किसी ओट की सुलेमानी टोपी पहन रखी थी जिससे मैं तो सारी दुनिया को देख सकता था लेकिन दुनिया मुझे न देख सकती थी, उस दिन वाक़ई मेरी हैरानी की कोई हद न रही, जब मैंने देखा जोगिया ने हल्के नीले रंग को चुना है, ऐसे गर्मी में यही ठंडा रंग अच्छा मालूम होता है अगर मैं होता तो जोगिया को यही रंग पहनने का मश्वरा देता, जभी मैंने सोचा, मैंने बहुत छुपने की कोशिश की है लेकिन जोगिया ने अपने मन में बुला कर मुझे पूछ ही लिया था, फिर वही शुरू की जुदाई और आख़िर का मेल मालूम होता था। आग्यारी तक ये दुनिया और इसके क़ानून हैं इसके बाद कोई क़ानून हम पर लागू नहीं होता।

मैंने बढ़ कर जोगिया के पास पहुँचते हुए कहा, आज तुमने बड़ा प्यारा रंग चुना है जोगी।
मैं जानती थी तुम इसे पसंद करोगे। तुम कैसे जानती थीं?

हूँ। मैंने सोचते हुए कहा, आज तुम्हें छूने, हाथ लगाने को भी जी नहीं चाहता।
क्या जी चाहता है।

उस वक़्त एक विक्टोरिया हम दोनों के बीच में आ गई जिसे निकलने में सदियाँ लगीं। मेरी निगाहें फिर झीलों में तैरने, छींटे उड़ाने लगीं जब तक हम प्रिंसेस स्ट्रीट का चौराहा पार कर के मेट्रो के पास आ चुके थे, जहाँ से हमारे रास्ते जुदा होते थे। मैंने कहा, आज जी चाहता है सर तुम्हारे पैरों पर रख दूँ और रोऊँ।
रोऊँ? क्यों?

शास्त्र कहते हैं आत्मा के पाप रोने ही से धुल सकते हैं।
कौन सा पाप किया है तुम्हारी आत्मा ने?

ऐसा पाप जो मेरा शरीर न कर सका।
ऐसी बातों को औरतें बिल्कुल नहीं समझ सकतीं। और फिर ज़रूरत से ज़ियादा समझ जाती हैं, जोगिया न समझ सकी अपना ही कोई बिचार उसके मन में चला आया था, जानते हो मेरा जी क्या चाहता है।

क्या, क्या। क्या? मैंने बे-सब्री से पूछा।
चाहता है। और उसने अपने हल्के नीले रंग की साढ़ी की तरफ़ इशारा किया।

तुम्हें इसमें छुपा कर अम्बरों पर उड़ जाऊँ, जहाँ से न आप ही वापस आऊँ न तुम्हें आने दूँ। और ये कहते हुए जोगिया ने एक बार ऊपर हल्के नीले रंग के आसमान की तरफ़ देखा, जहाँ से वो कभी आई थी।
मैं कुछ देर के लिए वहीं थम गया और उन ख़ुश नसीबों के बारे में सोचने लगा जिन्हें जोगिया ऐसी सुंदरियाँ अपने दामन में छुपा कर अम्बरों पर ले गई हैं, जहाँ से वो ख़ुद आई हैं और न उन्हें आने दिया है। देवता भी उनके पास से गुज़रते हैं तो फिर एक सर्द आह भर के चले जाते हैं।

मुड़ कर देखा तो जोगिया जा चुकी थी।
अम्बर तो कहाँ, जोगिया मुझे तपती हुई ज़मीन और टूटी-फूटी सड़क के एक तरफ़ यतीम और ला-वारिस छोड़ गई थी। जिसका एहसास मुझे ख़ास देर के बाद हुआ। हिद्दत से फटी हुई सड़क की दराड़ों में घोड़ा-गाड़ियों के बड़े-बड़े पहिये फँस रहे थे और उनके ड्राइवर पेशानियों पर से पसीना पोंछते इधर-उधर तबर्रे सुनाते आ जा रहे थे। जभी मैंने देखा ख़ुश्क आब की सी कोई मौज चली आ रही है, वो कोई और जवान लड़की थी। लांबी ऊँची कटे हुए बाल जो हल्के नीले रंग की शलवार क़मीज़ पहने हुए थी।

चंद क़दम और आगे गया तो एक नहीं दो तीन-चार औरतें हल्के नीले रंग के कपड़े पहने हुए शॉपिंग करती फिर रही थीं। ये तजुर्बा मुझे पहली बार नहीं हुआ था, इससे पहले भी एक बार क्राफ़ोर्ड मार्केट के इलाक़े में आने-जाने वाली सब औरतों ने धानी लिबास पहन रख था, फ़र्क़ था तो सिर्फ़ इतना कि किसी की ओढ़नी धानी थी और किसी की सारी स्कर्ट भी धानी थी और मैं सोचता रह गया था सवेरे जब ये औरतें नहा-धो कर बालों को छाँटती हुई, बनाती हुई कपड़ों की अलमारी के पास पहुँचती हैं तो इनमें कौन सी बात कौन सा ऐसा जज़्बा है जो उन्हें बता देता है कि आज मौलसिरी पहनना चाहिए। ये तो समझ में आता है कि एक दिन कोई नारंजी रंग इस्तेमाल करती है तो फिर इससे उसकी तबईयत ऊब जाती है। और फिर उसका हाथ अपने आप कैसे दूसरे रंग की तरफ़ उठ जाता है, मसलन सरसों का सा पीला रंग, चंपई रंग, गुल अनारी, कासनी, फ़िरोज़ी। लेकिन वो कौन सा बे-तार बर्क़ी का अमल है जिससे वो सब एक दूसरी को बता देती हैं और फिर एका-एकी पूरा बाज़ार, संसार एक ही रंग से भर जाता है, शायद ये मौसम की बात है। या वैसे भी चाँद की बादल की। शायद कोई मुरव्वजा फ़ैशन किसी एक्ट्रेस का लिबास है जो उनके इंतिख़ाब में दख़ल रखता है। नहीं ऐसी कोई बात नहीं, बा'ज़ वक़्त वो रंगा-रंग कपड़े भी पहनती है। और क्या कुछ मर्द की आँखों के सामने लहरा देती हैं।
उस दिन सबकी साड़ियाँ हल्के नीले रंग की देख कर मेरी आँखों को यक़ीन न आ रहा था। समझ का शुमा भर भी दिमाग़ में न घुस सकता था, जब मैं स्कूल पहुँचा एक क्लास ख़त्म हो चुकी थी और लड़के-लड़कियाँ बाहर आ रहे थे। कुछ आ कर कंपाउंड में गुल-मोहर के नीचे खड़े हो गए, इनमें सेकशी भी थी। उसके स्कर्ट का भी रंग हल्का नीला था।

अगर हेमंत मेरा दोस्त वहाँ न मिल जाता तो मैं पागल हो जाता। हेमंत यूँ तो ख़िज़ाँ को कहते हैं लेकिन वो हक़ीक़त में वासंत था। बहार, जो उसपर हमेशा छाई रहती, दुनिया भर में कहीं किसी जगह भी एक ही मौसम नहीं रहता और न एक रंग रहता है लेकिन उसके चेहरे पर हमेशा एक ही सी हंसी और तज़हीक रहती थी। जिसके कारन हम उसे कहा करते थे साले चाहे कितना ज़ोर लगा ले तू कभी आर्टिस्ट नहीं बन सकता। क्या तुझ पे गिरेबान फाड़ कर बाहर भाग जाने की नौबत आई है। बे-बसी में तशनजी हाथ तूने हवा में फैलाए हैं और अपने बाल नोचे हैं। अच्छा क्या तेरे बदन पे एका-एकी लाखों टिड्डे रेंगे हैं। रात के वक़्त अंधेरे में चमगादड़ तुझपर झपटते हैं और अपना मुँह तेरी शह-रग से लगा कर तेरा ख़ून चूसा है। क्या तू उस वक़्त बच्चों की तरह रोया है जब तेरी तस्वीर इनआमी मुक़ाबले में अव्वल आई हो। क्या तुझे ऐसा महसूस हुआ है कि माँ-बाप होते हुए भी तू यतीम है और दोस्त एक-एक करके तुझे अंधे कुँवें में धकेल कर चल दिए हैं। क्या तूने जाना है जिस मंसूर को सूली पे चढ़ाया गया था वो तू था। तेरे चेहरे पे सियाहियाँ छुटी हैं और उस पर के ख़त इतने सख़्त और घिनौने और ताक़तवर हुए हैं जितने मैक्सीको के म्यूरल्ज़? जिससे मुतवह्हिश हो कर...
आज फिर मैंने उसे बताया शहर की सब औरतें हल्का नीला रंग पहने निकल आई हैं। हेमंत ने अपने दाँत दिखा दिए और हस्ब-ए-मामूल मेरा मज़ाक़ उड़ाने लगा, वो मुझे सावन का अंधा समझता था, जिसे हर तरफ़ हरा ही हरा दिखाई देता है। मैंने सेकशी की तरफ़ इशारा किया, जिसे हम मोडल कहा करते थे, वो आज तक किसी की मोडल न बनी थी। मैंने कहा, देखो! आज ये भी नीले रंग का स्कर्ट पहने हुए है।

हेमंत ने कुछ न कहा, मेरा हाथ पकड़ कर घसीटता हुआ लॉन पे ले आया जो पाम के पेड़ों से पटा पड़ा था, वहाँ एक किनारे पे पहुँच कर वो बाढ़ के पीछे खड़ा हो गया जहाँ से सामने सड़क दिखाई देती थी। एक रास्ता क्राफ़ोर्ड मार्केट की तरफ़ जाता था और दूसरा विक्टोरिया टर्मिनस और हॉर्न बाई रोड की तरफ़। वो साबित करना चाहता था कि ये सब मेरा वहम है। वहाँ पहुँचे तो कोई औरत ही न थी। अगर औरतें अपने मर्दों को हल्के नीले रंग की साड़ियों में छुपा कर ऊपर अम्बरों पा उड़ गई होतीं तो वहाँ मर्द नज़र न आते। लेकिन चारों तरफ़ मर्द ही मर्द थे और वो घूम फिर रहे थे। जैसे कभी किसी औरत से उन्हें सरोकार ही न था। कोई लांबा था कोई नाटा। कोई ख़ूबसूरत और कोई बदसूरत और तोंदेला। और सब भाग रहे थे जैसे उन्हें किसी औरत को जवाब नहीं देना है। जभी उधर से लोहे की बनी हुई गॉटन गुज़री जिसने हरे रंग का काँटा लगा रखा था। उसकी तरफ़ इशारा करते हुए हेमंत बोला, पहचान अपनी माँ को...
मैंने बेकार की ग़ज़र-दारी की, मैं उन बेचारी ग़रीब औरतों की बात नहीं करता।

किन की करते हो।
उनकी जिनके पास कपड़े तो हों।

जभी मेरी बद-क़िस्मती से एक सिडान सामने पारसी दारू वाले के हाँ रुकी। उसमें अधेड़ उम्र की एक औरत बैठी थी। वो उसी जमाअत की नुमाइंदा थी जिसके पास न सिर्फ़ कपड़े होते हैं बल्कि बे शुमार होते हैं, और रंग इतनी अन्वाअ के कि वो बौखला जाती हैं। इसलिए जब वो अपनी वार्ड-रोब के सामने खड़ी होती हैं तो उन्हें सुंदरियों का वो बे-तार बर्क़ी पैग़ाम नहीं आता। उनकी हालत उस ख़रीदार की तरह होती है जिसके सामने कोई दुकानदार अन्वाअ-ओ-अक़्साम का ढ़ेर लगा दे और वो उनमें से कुछ भी न चुन सकें।
वो औरत ख़ूब लिपी-पुती हुई थी और उसने एक शोला रंग साढ़ी पहन रखी थी। पचास फ़िट चौड़ी सड़क के उस पार मुझे उसकी वजह से गर्मी लग रही थी। लेकिन उसे इस बात का एहसास न था कि बाहर आग बरस रही है जिसमें ऐसा शोले का सा रंग न चलेगा। कितना सौक़ियाना था मज़ाक़ उसका।

ऐसे ही मैं हेमंत के सामने कई बार शर्मिंदा हुआ। एक आध बार मुझे उसे शर्मसार करने का मौक़ा मिल गया जब कि सब औरतें सुरमई साढ़ियाँ पहने सड़क पर चली आई थीं। मुझे हमेशा उनके रंग एक से लगते थे। लेकिन जब हेमंत मेरा कान पकड़ कर मुझे बाहर लाता वो सब अलग-अलग दिखाई देने लगते। आख़िर मैंने उसे अपने दिमाग़ का वाहिमा समझ कर इन बातों का ख़्याल ही छोड़ दिया।
लेकिन वो छूटता कैसे? एक दिन जोगिया ने काले ब्लाउज़ और ख़ाकस्तरी रंग की साढ़ी का बेहद ख़ूबसूरत इम्तिज़ाज पैदा कर रखा था। उस दिन सब औरतों ने यही कंबीनेशन कर रखा था। फ़र्क़ था तो इतना था कि किसी का ब्लाउज़ ख़ाकस्तरी था तो साढ़ी काले रंग की थी जिसमें सुनहरे का एक आध तार झिलमिला रहा था।

कई मौसम बदले, ख़िज़ाँ गई तो बहार आई। यानी जिस क़िस्म की ख़िज़ाँ और बहार बम्बई में आ सकती हैं, और फिर उस बहार में एक काहिश सी पैदा होनी शुरू हुई, एक चुभन, तल्ख़ी की एक रमक़ चली आई जो मोहब्बत और कामरानी को ग़ायत दर्जे गुदाज़ कर देती है और जज़्बों की आँखों में आँसू चले आते हैं। फिर कहीं हरा ज़ियादा हरा हो गया, उस पर ताज़गी और शगुफ़्तनी की एक लहर दौड़ गई, जैसे बारिश के दो छींटों के बीच सुबुक सी हवा पानी पे दो शाला बन देती है। फिर समुंदर में इस क़दर ज़मुर्रद घुला कि नीलम हो गया और इसमें मछलियों की चाँदियाँ चमकने लगीं। आख़िर वो चांदियाँ तड़प-तड़प कर अपने आपको माहीगीरों के हवाले करने लगीं। फिर आसमान पे सौत-ओ-तजल्ली का टकराव हुआ। बादल गरजे, बिजली तड़पी और यकायक छाजों पानी पड़ने लगा। इस सिलसिले में जोगिया ने कई नीले, पीले, काले, ऊदे, सरदई और सुर्मई, धानी और चंपई रंग बदले। उसे कितनी जल्दी थी लड़की से औरत बन जाने की। फिर औरत से माँ बन जाने की। मुझे यक़ीन था कि इतनी सेहत-मंद लड़की के जब बच्चे होंगे तो जुड़वाँ होंगे, बल्कि तीन-चार भी हो सकते हैं। मैं उन्हें कैसे संभालूँगा! और इस ख़्याल के आते ही मैं हँसने लगा।
उन दिनों जोगिया अपनी बीमार माँ के पैर पड़ कर उससे लिपस्टिक लगाने की इजाज़त ले चुकी थी। एक तरफ़ ज़िंदगी धीरे-धीरे बुझी जा रही थी तो दूसरी तरफ़ लपक-लपक कर खिल रही थी। जोगिया ने लिपस्टिक लगाने की इजाज़त तो ले ली थी, लेकिन इतनी साड़ियों, इतने रंगों के लिए इतनी लिपस्टिक कहाँ से लाती। मैंने एक दिन मैक्स फैक्टर की लिपस्टिक ख़रीद कर तोहफ़े में जोगिया को दी तो वो कितनी ख़ुश हुई जैसे मैंने किसी बहुत बड़े राज़ की कलीद उसके हाथ में दे दी हो। वो भूल ही गई कि मेरे साथ गिरगाम के ट्राम के फट्टे पर खड़ी है। वो मुझसे लिपट गई। उसके फ़ौरन ही बाद उसकी आँखें मीलों ही अंदर धँस गईं और नमी सी बाहर झलकने लगी। मैं समझ गया कि जोगिया बेहद जज़्बाती लड़की है, भला मेरे सामने इतनी मम्नून दिखाई देने की क्या ज़रूरत है। लेकिन बात दूसरी थी। जिस रंग की मैं लिपस्टिक लाया था, उससे मैच करती हुई साढ़ी जोगिया के पास न थी और न ख़रीदने के लिए पैसे थे। मेरे पास भी इतने पैसे न थे जिनसे कोई ख़ूबसूरत सी साढ़ी ख़रीद कर उसे दे सकता। मैंने तो लिपस्टिक के पैसे भी मोटे भैया की जेब से चुराए थे। या भाभी के साथ इस इश्क़ में बटोरे थे जिसका हक़ सिर्फ़ देवर ही को पहुँचता है।

बरसात ख़त्म हुई तो एक तमाशा हुआ। जोगिया ने घर में बड़ों के वक़्त के कुछ अक़ीक़ बेच डाले, और मेरी लिपस्टिक के साथ मैच करती हुई साढ़ी ख़रीद ली। इस बात का मुझे कहाँ पता चलता? लेकिन हमारे घर में एक मुख़्बिर थी, जोगिया की सहेली, हेमा। जोगिया ने नारंजी सुर्ख़ रंग की साढ़ी पहनी और जब हम आग्यारी पार ला क़ानूनीयत के जंगल में मिले तो मैंने जोगिया को छेड़ा, जानती हो जोगिया आज तुम क्या लगती हो?
क्या लगती हूँ?

बीर बहूटी, जो बरसात होते ही निकल आती है।
जोगिया के दिल में कोई शरारत आई। मेरी तरफ़ देखते हुए बोली,जानते हो, तुम कौन हो?

और इसके बाद जोगिया इस क़दर लाल हो कर भाग गई कि उसके चेहरे और साढ़ी के रंग में ज़रा भी फ़र्क़ नहीं रहा। उस दिन सब औरतों ने नारंजी रंग के कपड़े पहन रखे थे। अपनी आँखों के जुलूस की ताब न ला कर मैंने फिर हेमंत से कह दिया। अब के हेमंत ने अकेले नहीं, तीन-चार लड़कों को साथ लिया और शाहराह-ए-आम पर मेरी बे-इज़्ज़ती की। शायद मुझे इतना बे-इज़्ज़ती का एहसास न होता अगर सेकशी वहाँ न आ जाती। जो सफ़ेद नाइलोन की साढ़ी पहने हुए थी और उसमें तक़रीबन नंगी नज़र आ रही थी। वो रोज़-ब-रोज़ सचमुच का मॉडल होती जा रही थी।
जोगिया को बीर बहूटी बनने की कितनी ख़्वाहिश थी, इसका मुझे रूह की गहराइयों तक से अंदाज़ था, लेकिन मैं कुछ न कर सकता था। सिवाए इसके कि मैं स्कूल से पास हो कर निकल जाऊँ और कोई अच्छी सी नौकरी कर लूँ या तस्वीरें बना कर मालाबार हिल और वार्डन रोड के झूटे दक़ीक़ा-शनासों को औने-पौने में बेच दूँ। लेकिन इन सब बातों के लिए वक़्त चाहिए था, जो मेरे पास तो बहुत था, थोड़ा-बहुत जोगिया के पास भी था, लेकिन माँ के पास न था। मेहनत और मशक़्क़त की वजह से उसे कोई कर्म रोग लग गया था।

मैं इस इंतिज़ार में था कि एक दिन भाभी और मोटे भैया से कह दूँ, लेकिन मुझे इसकी ज़रूरत नहीं पड़ी। हेमा बाँपू घर में जोगिया के प्यार-दुलार लेती हुई एका-एकी अपने घर में आ निकलती और धड़ से कह डालती, काका क्यों नहीं तुम जोगिया से ब्याह कर लेते?
और मैं हमेशा कहता, 'धुत' ये 'धुत' अगर मैं ही कहता तो कोई बात नहीं थी। कुछ दिन बाद हेमा की इस टाएँ-टाएँ पर भैया-भाभी ने उसे डाँटना शुरू कर दिया और एक दिन तो भाभी ने उस मासूम को ऐसा तमाँचा मारा कि वो उलट कर दहलीज़ पर जा गिरी। उस दिन मेरा माथा ठनका। मुझे यूँ लगा जैसे इस बारे में दोनों घरों में कोई बात हुई है।

मेरा अंदाज़ ठीक था। जोगिया और बिजूर की माओं और पंजाबन ने मिल कर भाभी के साथ बात चलाई और मुँह की खाई। बाँपू घर की औरतें यूँ ठीक थीं। उनसे बात कर लेना, इनके साथ चीज़ों का तबादला भी दुरुस्त था। एक आध बार इशारे से राम करना ठीक था। लेकिन उनके साथ रिश्ते-नाते की बात चलाना किसी तरह भी दुरुस्त न था। फिर और भी बहुत सी बातें निकल आईं जो हमारे गुजराती घरों का वबाल उनका ज़हर, मिट्टी का तेल और कुँवाँ होती हैं। जोगिया की माँ लड़की को कुछ लंबा-चौड़ा दे दिला नहीं सकती थी। इसीलिए जब हमारे घरों में कोई लड़की जवान होती है तो कुछ लोग उसकी तरफ़ देख कर कहते हैं, तैयार हो गई मरने को। ख़ैर देने-दिलाने की बात पर मैं तन कर खड़ा हो गया। लेकिन इसके बाद भाभी और ज्ञान भवन की औरतों ने दूसरी बातें शुरू कर दीं। जोगिया का बाप कौन था, कोई कहती वो मुसलमान था और कोई बुढ़िया गवाही देती वो एक पुर्तगाली था जो बड़ोदे में बड़े अर्से तक रहा था। जो भी हो, वो सब बातें थीं। एक बात जो तहक़ीक़ के साथ मुझे पता चली थी वो ये थी कि जोगिया की माँ मनादूर के ब्रह्मण दीवान की दूसरी बीवी थी जिसे क़ानून ने न माना। जोगिया उस दीवान की लड़की थी। मगर लोग जोगिया की माँ एक ब्रह्मण औरत को दीवान साहब की रखैल कहते थे। ये इस क़िस्म के लोग थे जिन्होंने जोगिया की माँ के कुछ भी पल्ले न पड़ने दिया और वो बम्बई चली आई। कुछ भी था, इसमें जोगिया का क्या क़सूर था। वो तो अपने बाप की मौत के तीन महीने बाद पैदा हुई थी और शफ़्क़त का मुँह आज तक न देखा था। मैं इन सब चीज़ों के ख़िलाफ़ जिहाद करने, जोगिया के साथ फुटपाथ पर रहने को तैयार था। लेकिन बाक़ी सब ने मिल कर जोगिया की माँ को इस क़दर सदमा पहुँचाया कि वो मरने के क़रीब हो गई। अब वो चाहती थी कि जल्दी-जल्दी जोगिया का हाथ किसी गुज़ारे वाले मर्द के हाथ में दे-दे। मेरे घर वालों की बातों के कारन वो मेरी सूरत से भी बेज़ार हो गई थी। उसने अपनी बेटी से साफ़ कह दिया था कि अगर उसने मुझसे शादी की बात भी की तो वो कपड़ों पर तेल छिड़क कर जल मरेगी। जोगिया अब कॉलेज न जाती थी। और बाँपू घर के जोगिया वाले फ़्लैट के किवाड़ अक्सर बंद रहते और हम ताज़ा हवा के झोंके के लिए तरस गए थे।
एक शाम मुझ पर बहुत कड़ी आई। सर-ए-शाम ही अंधेरे के चमगादड़ के बड़े-बड़े पर मुझ ग़रीब पर सिमटने लगे थे, कुछ देर बाद यूँ लगा जैसे कोई मेरी शह-रग पर अपना मुँह रखे तेज़ी से मेरी साँस चूस रहा है। जितना मैं उसे हटाने की कोशिश करता हूँ, उतना ही इसके दाँत मेरे गले में गड़ते जा रहे हैं। उन शामों का रंग सियाह भी नहीं होता और सफ़ेद भी नहीं होता। उनका रंग एक ही होता है। हब्स और जान-काही का रंग। और जिन लोगों पर ऐसी शामें आती हैं, वही जानते हैं कि ऐसे में सिर्फ़ महबूबा और माँ ही उनको बचा सकती हैं। मेरी माँ मर चुकी थी, और जोगिया मेरी न हो सकती थी।

उफ़्फ़ोह इतनी घुटन, इतनी उदासी... उदासी का भी एक रंग होता है। मैला छिद्रा-छिद्रा, जैसे मुँह में रेत के बे-शुमार ज़र्रे। और फिर उसमें एक उफ़ूनत होती है जिससे मतली होती भी है और नहीं भी होती। आख़िर आदमी वहाँ पहुँच जाता है जहाँ से एहसास की हदें ख़त्म हो जाती हैं और रंगों की पहचान जाती रहती है।
सुबह उठा, तो मेरा उस घर, उस शहर, उस दुनिया से भाग जाने को जी चाहता था। अगर जोगिया की माँ न होती और वो मेरे सात चलने पर राज़ी हो जाती तो मैं उसे लेकर कहीं भी निकल जाता। जभी मुझे बैरागी याद आने लगे, बोध भिक्षु याद आने लगे जो इस दुनिया को छोड़ देते हैं और कहीं से भी भिक्षा लेकर अपने पेट में डाल देते हैं और 'ओम मने पद्मे' का विर्द करने लगते हैं।

मैं वाक़ई इस दुनिया को छोड़ देना चाहता था, लेकिन सामने बाँपू घर में जोगिया के फ़्लैट का दरवाज़ा खुला, और जोगिया मुझे सामने नज़र आई। ऐसा मालूम होता था जैसे वो रातों से नहीं सोई। उसके बाल बेहद रूखे थे और यूँ ही इधर-उधर चेहरे और गले में पड़े थे। उसने कँघी उठाई और बालों में खुबो दी। कुछ देर ब

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