नजात

(1)
दुखी चमार दरवाज़े पर झाड़ू लगा रहा था, और उसकी बीवी झरिया घर को लीप रही थी। दोनों अपने अपने काम से फ़राग़त पा चुके, तो चमारिन ने कहा,

“तो जा कर पण्डित बाबा से कह आओ। ऐसा न हो कहीं चले जाएँ।”
दुखी, “हाँ जाता हूँ, लेकिन ये तो सोच कि बैठेंगे किस चीज़ पर?”

झरिया, “कहीं से कोई खटिया न मिल जाएगी। ठकुरानी से माँग लाना।”
दुखी, “तू तो कभी ऐसी बात कह देती है कि बदन में आग लग जाती है। भला ठकुराने वाले मुझे खटिया देंगें? जा कर एक लोटा पानी माँगो, तो मिले। भला खटिया कौन देगा। हमारे उपले, ईंधन, भूसा, लकड़ी थोड़े ही हैं जो चाहे उठा ले जाए। अपनी खटोली धो कर रख देगी। गर्मी के तो दिन हैं, उनके आते-आते सूख जाएगी।”

झरिया, “हमारी खटोली पर वो न बैठेंगे। देखते नहीं, कितने नेम धर्म से रहते हैं।”
दुखी ने किसी क़दर मग़्मूम लहजे में कहा, “हाँ, ये बात तो है। महुवे के पत्ते तोड़ कर एक पत्तल बना लूँ, तो ठीक हो जाए। पत्तल में बड़े आदमी खाते हैं। वो पाक है। ला तो लाठी, पत्ते तोड़ लूँ।”

झरिया, “पत्तल मैं बना लूँगी, तुम जाओ। लेकिन हाँ उन्हें सीधा भी जाए और थाली भी। छोटे बाबा थाली उठा कर पटक देंगे। वो बहुत जल्द ग़ुस्से में आ जाते हैं। ग़ुस्से में पंडितानी तक को नहीं छोड़ते। लड़के को ऐसा पीटा कि आज तक टूटा हाथ लिए फिरता है। पत्तल में सीधा भी दे देना, मगर छूना मत। भूरी गोंड की लड़की को ले शाह की दुकान से चीज़ें ले आना। सीधा भरपूर, सेर भर आटा, आध-सेर चावल, पाव भर दाल, आध पाव घी, हल्दी, नमक और पत्तल में एक किनारे चार आने के पैसे रख देना। गोंड की लड़की न मिले, तो फिर जन के हाथ जोड़ कर ले आना। तुम कुछ न छूना वर्ना गजब हो जाएगा।”
इन बातों की ताकीद कर के दुखी ने लकड़ी उठा ली और घास का एक बड़ा सा गट्ठा लेकर पण्डित-जी से अर्ज़ करने चला। ख़ाली हाथ बाबा जी की ख़िदमत में किस तरह जाता। नज़राने के लिए उसके पास घास के सिवा और क्या था। उसे ख़ाली देखकर तो बाबा जी दूर ही से धुतकार देते।

(2)
पण्डित घासी राम ईश्वर के परम भगत थे। नींद खुलते ही ईश्वर की उपासना में लग जाते। मुँह हाथ धोते-धोते आठ बजते। तब असली पूजा शुरू होती, जिसका पहला हिस्सा भंग की तैयारी थी। उसके बाद आध घंटा तक चंदन रगड़ते। फिर आईने के सामने एक तिनके से पेशानी पर तिलक लगाते। चंदन के मुतवाज़ी ख़तों के दर्मियान लाल रोली का टीका होता, फिर सीने पर दोनों बाज़ुओं पर चंदन के गोल-गोल दायरे बनाते और ठाकुर जी की मूर्ती निकाल कर उसे नहलाते। चंदन लगाते, फूल चढ़ाते, आरती करते, और घंटी बजाते। दस बजते-बजते वो पूजन से उठते और भंग छानकर बाहर आते। उस वक़्त दो-चार जजमान दरवाज़े पर आ जाते। ईश्वर उपासना का फ़िल-फ़ौर फल मिल जाता। यही उनकी खेती थी।

आज वो इबादत ख़ाने से निकले तो देखा। दुखी चमार घास का एक गट्ठा लिये बैठा है। उन्हें देखते ही उठ खड़ा हुआ और निहायत अदब से दंडवत कर के हाथ बाँध कर खड़ा हो गया। ऐसा पुर-जलाल चेहरा देखकर उसका दिल अ'क़ीदत से पुर हो गया। कितनी तक़द्दुस-मआब सूरत थी। छोटा सा गोल मोल आदमी। चिकना सर, फूले हुए रुख़्सार, रुहानी जलाल से मुनव्वर आँखें। उस पर रुई और चंदन ने देवताओं की तक़दीस अता कर दी थी, दुखी को देखकर शीरीं लहजे में बोले, “आज कैसे चला आया रे दुखिया?”
दुखी ने सर झुका कर कहा, “बिटिया की सगाई कर रहा हूँ महाराज! साअत-शगुन बिचारना है। कब मर्जी होगी?”

घासी, “आज तो मुझे छुट्टी नहीं है। शाम तक आ जाऊँगा।”
दुखी, “नहीं महाराज! जल्दी मर्जी हो जाए। सब ठीक कर आया हूँ। ये घास कहाँ रख दूँ?

घासी, “उस गाय के सामने डाल दे और ज़रा झाड़ू लेकर दरवाज़ा तो साफ़ कर दे। ये बैठक भी कई दिन से लीपी नहीं गई। इसे भी गोबर से लीप दे। तब तक मैं भोजन कर लूँ, फिर ज़रा आराम कर के चलूँगा। हाँ, ये लकड़ी भी चीर देना। खलियान में चार खाँची भूसा पड़ा है, उसे भी उठा लाना और भूसैले में रख देना।”
दुखी फ़ौरन हुक्म की तामील करने लगा। दरवाज़े पर झाड़ू लगाई। बैठक को गोबर से लीपा। उस वक़्त बारह बज चुके थे। पण्डित-जी भोजन करने चले गए। दुखी ने सुब्ह से कुछ नहीं खाया था। उसे भी ज़ोर की भूक लगी, लेकिन वहाँ खाने को धरा ही क्या था? घर यहाँ से मील भर था। वहाँ खाने चला जाए तो पण्डित-जी बिगड़ जाएँ।

बेचारे ने भूक दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी की मोटी सी गिरह थी, जिस पर कितने ही भगतों ने अपना ज़ोर आज़मा लिया था। वह उसी दम ख़म के साथ लोहे से लोहा लेने के लिए तैयार थी। दुखी घास छील कर बाज़ार ले जाता है। लकड़ी चीरने का उसे मुहावरा न था। घास उसके खुर्पे के सामने सर झुका देती थी। यहाँ कस-कस कर कुल्हाड़ी का हाथ जमाता। लेकिन उस गिरह पर निशान तक न पड़ता था। कुल्हाड़ी उचट जाती। पसीने से तर था। हाँफता था। थक कर बैठ जाता था। फिर उठता था, हाथ उठाए न उठते थे। पाँव-काँप रहे थे। हवाइयाँ उड़ रही थीं, फिर भी अपना काम किए जाता था।
अगर एक चिलम तंबाकू पीने को मिल जाता, तो शायद कुछ ताक़त आ जाती। उसने सोचा, यहाँ चिलम और तंबाकू कहाँ मिलेगा। बिरहमनों का गाँव है। बिरहमन हम सब नीच जातों की तरह तंबाकू थोड़ा ही पीते हैं। यका-यक उसे याद आया कि गाँव में एक गोंड भी रहता है। उसके यहाँ ज़रूर चिलम-तंबाकू होगी। फ़ौरन उसके घर दौड़ा। ख़ैर मेहनत सफल हुई। उसने तंबाकू और चिलम दी लेकिन आग वहाँ न थी। दुखी ने कहा,

“आग की फ़िक्र न करो भाई। पण्डित-जी के घर से आग माँग लूँगा। वहाँ तो अभी रसोई बन रही थी।
ये कहता हुआ वो दोनों चीज़ें लेकर चला और पण्डित जी के घर में दालान के दरवाज़े पर खड़ा हो कर बोला, “मालिक ज़रा सी आग मिल जाए तो चिलम पी लें।”

पण्डित जी भोजन कर रहे थे। पंडितानी ने पूछा, “ये कौन आदमी आग माँग रहा है?”
“अरे वही सुसरा दुखिया चमार है। कहा है थोड़ी सी लकड़ी चीर दे। आग है तो दे दो।”

पंडितानी ने भँवें चढ़ा कर कहा, “तुम्हें तो जैसे पोथी पड़ै के फेर में धर्म करम की सुध भी न रही। चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुँह उठाए घर में चले आए। पण्डित का घर न हुआ, कोई सराय हुई। कह दो ड्योढ़ी से चला जाए, वर्ना उसी आग से मुँह झुलस दूँगी। बड़े आग माँगने चले हैं।”
पण्डित-जी ने उन्हें समझा कर कहा, “अंदर आ गया तो क्या हुआ। तुम्हारी कोई चीज़ तो नहीं छूई। ज़मीन पाक है। ज़रा सी आग क्यूँ नहीं दे देतीं। काम तो हमारा ही कर रहा है। कोई लकड़हारा यही लकड़ी फाड़ता, तो कम अज़ कम चार आने लेता।”

पंडितानी ने गरज कर कहा, “वो घर में आया ही क्यूँ?”
पण्डित ने हार कर कहा, “ससुरे की बदक़िस्मती थी।”

पंडितानी, “अच्छा, इस वक़्त तो आग दिए देती हूँ, लेकिन फिर जो इस घर में आएगा तो मुँह झुलस दूँगी।”
दुखी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। बेचारा पछता रहा था। नाहक़ आया। सच तो कहती हैं, पण्डित के घर चमार कैसे चला आए। ये लोग पाक साफ़ होते हैं, तभी तो इतना मान है, चमार थोड़े ही हैं। इसी गाँव में बूढ़ा हो गया, मगर मुझे इतनी अक्ल (अक़्ल) भी न आई। इसीलिए जब पंडितानी जी आग लेकर निकलीं तो जैसे उसे जन्नत मिल गई। दोनों हाथ जोड़ कर ज़मीन पर सर झुकाता हुआ बोला,

“पंडितानी माता, मुझसे बड़ी भूल हुई कि घर से चला आया। चमार की अक्ल (अक़्ल) ही तो ठहरी। इतने मूर्ख न होते तो सबकी लात क्यूँ खाते?”
पंडितानी चिमटे से पकड़ कर आग लाई थी। उन्होंने पाँच हाथ के फ़ासले पर घूँघट की आड़ से दुखी की तरफ़ आग फेंकी। एक बड़ी सी चिंगारी उसके सर पर पड़ गई। जल्दी से पीछे हट कर झाड़ने लगा। उसके दिल ने कहा, ये एक पाक बिरहमन के घर को नापाक करने का नतीजा है। भगवान ने कितनी जल्दी सज़ा दे दी। इसीलिए तो दुनिया पंडितों से डरती है, और सब के रुपये मारे जाते हैं, बिरहमन के रुपये भला कोई मार तो ले, घर भर का सत्यानास हो जाए। हाथ पाँव गल-गल कर गिरने लगें।

बाहर आकर उसने चिलम पी और कुल्हाड़ी लेकर मुस्तइद हो गया। खट खट की आवाज़ें आने लगीं। सर पर आग पड़ गई तो पंडितानी को कुछ रहम आ गया। पण्डित जी खाना खा कर उठे, तो बोलीं, “उस चमरा को भी कुछ खाने को दे दो। बेचारा कब से काम कर रहा। भूका होगा।”
पण्डित जी ने इस तजवीज़ को फ़ना कर देने के इरादे से पूछा,

“रोटियाँ हैं?”
पंडितानी, “दो-चार बच जाएँगी।”

पण्डित, “दो-चार रोटियों से क्या होगा? ये चमार है, कम-अज़-कम सेर भर चढ़ा जाएगा।”
पंडितानी कानों पर हाथ रखकर बोलीं, “अरे बाप रे! सेर भर! तो फिर रहने दो।”

पण्डित जी ने अब शेर बन कर कहा, “कुछ भूसी चोकर हो, तो आटे में मिला कर मोटी मोटी रोटियाँ तवे पर डाल दो। साले का पेट भर जाएगा। पतली रोटियों से उन कमीनों का पेट नहीं भरता। उन्हें तो जवार का टिक्कर चाहिए।”
पंडितानी ने कहा, “अब जाने भी दो। धूप में मरे।”

(3)
दुखी ने चिलम पी कर कुल्हाड़ी सँभाली। दम लेने से ज़रा हाथों में ताक़त आ गई थी। तक़रीबन आध घंटे तक फिर कुल्हाड़ी चलाता रहा। फिर बे-दम हो कर वहीं सर पकड़ कर बैठ गया। इतने में वही गोंड आ गया। बोला, “बूढ़े दादा, जान क्यूँ देते हो। तुम्हारे फाड़े ये गाँठ न फटेगी। नाहक़ हलकान होते हो।”

दुखी ने पेशानी का पसीना साफ़ कर के कहा, “भाई! अभी गाड़ी पर भूसा ढोना है।”
गोंड, “कुछ खाने को भी दिया, या काम ही करवाना जानते हैं। जा के माँगते क्यूँ नहीं?”

दुखी, “तुम भी कैसी बातें करते हो। भला बाहमन की रोटी हमको पचेगी?”
गोंड, “पचने को तो पच जाएगी, मगर मिले तो। ख़ुद मूँछों पर ताव देकर खाना खाया और आराम से सो रहे हैं। तुम्हारे लिए लकड़ी फाड़ने का हुक्म लगा दिया। ज़मींदार भी खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी बहुत मज़दूरी दे देता है। ये उनसे भी बढ़ गए। उस पर धर्मात्मा बनते हैं।”

दुखी ने कहा, “भाई आहिस्ता बोलो। कहीं सुन लेंगे तो बस।”
ये कह कर दुखी फिर सँभल पड़ा और कुल्हाड़ी चलाने लगा। गोंड को उस पर रहम आ गया। कुल्हाड़ी उसके हाथ से छीन कर तक़रीबन निस्फ़ घंटे तक जी तोड़ कर चलाता रहा, लेकिन गाँठ पर ज़रा भी निशान न हुआ। बिल-आख़िर उसने कुल्हाड़ी फेंक दी और ये कह कर चला गया। “ये तुम्हारे फाड़े न फटेगी। ख़्वाह तुम्हारी जान ही क्यूँ न निकल जाए।”

दुखी सोचने लगा, “ये गाँठ उन्होंने कहाँ से रख छोड़ी थी कि फाड़े नहीं फटती। मैं कब तक अपना ख़ून पसीना एक करूँगा। अभी घर पर सौ काम पड़े हैं। काम काज वाला घर है। एक न एक चीज़ घटती रहती है। मगर उन्हें उनकी क्या फ़िक्र। चलूँ, जब तक भूसा ही उठा लाऊँ। कह दूँगा, आज तो लकड़ी नहीं फटी। कल आकर फाड़ दूँगा।
उसने टोकरा उठाया और भूसा ढोने लगा। खलियान यहाँ से दो फ़र्लांग से कम न था। अगर टोकरा ख़ूब ख़ूब भर कर लाता तो काम जल्द हो जाता। मगर सर पर उठाता कौन। ख़ुद उससे न उठ सकता था, इसलिए थोड़ा-थोड़ा लाना पड़ा। चार बजे कहीं भूसा ख़त्म हुआ। पण्डित-जी की नींद भी खुली। मुँह हाथ धोए, पान खाया और बाहर निकले। देखा तो दुखी टोकड़े पर सर रखे सो रहा है। ज़ोर से बोले,

“अरे दुखिया! तू सो रहा है। लकड़ी तो अभी जूँ की तूँ पड़ी है। इतनी देर तू क्या करता रहा। मुट्ठी भर भूसा उठाने में शाम कर दी। इस पर सो रहा है। कुल्हाड़ी उठा ले और लकड़ी फाड़ डाल। तुझसे ज़रा भर लकड़ी भी नहीं फटी। फिर साअत भी वैसे ही निकलेगी। मुझे दोश मत देना। इसीलिए तो कहते हैं कि जहाँ नीच के घर खाने को हुआ, उसकी आँख बदल जाती है।”
दुखी ने फिर कुल्हाड़ी उठाई। जो बातें उसने पहले सोच रक्खी थीं, वो सब भूल गया। पेट पीठ में धँसा जाता था। आज सुब्ह नाश्ता तक न किया था। फ़ुर्सत ही न मिली। उठना बैठना तक पहाड़ मालूम होता था। दिल डूबा जाता था, पर दिल को समझा कर उठा। पण्डित हैं। कहीं साअत ठीक न बिचारें, तो फिर सत्यानास हो जाए। जब ही तो उनका दुनिया में इतना मान है। साअत ही का तो सब खेल है। जिसे चाहें बना दें, जिसे चाहें बिगाड़ दें। पण्डित जी गाँठ के पास आ कर खड़े हो गए और हौसला-अफ़ज़ाई करने लगे।

“हाँ मार कस के और कस के मार। अबे ज़ोर से मार। तेरे हाथ में तो जैसे दम ही नहीं। लगा कस के, खड़ा खड़ा सोचने क्या लगता है। हाँ बस फटा ही चाहती है इस सुराख़ में।”
दुखी अपने होश में न था। न मालूम कोई ग़ैबी ताक़त उसके हाथों को चला रही थी। तकान, भूक, प्यास, कमज़ोरी सब के सब जैसे हवा हो गई थीं। उसे अपने क़ुव्वत-ए-बाज़ू पर ख़ुद तअ'ज्जुब हो रहा था। एक-एक चोट पहाड़ की मानिंद पड़ती थी। आधे घंटे तक वो इसी बे-ख़बरी की हालत में हाथ चलाता रहा। हत्ता-कि लकड़ी बीच से फट गई और दुखी के हाथ से कुल्हाड़ी छूट कर गिर पड़ी। उसके साथ ही वो भी चक्कर खा कर गिर पड़ा। भूका प्यासा, तकान-ख़ुर्दा जिस्म जवाब दे गया। पण्डित जी ने पुकारा,

“उठकर दो-चार हाथ और लगा दे। पतली पतली चपलियाँ हो जाएँ।”
दुखी न उठा।

पण्डित जी ने उसे दिक़ करना मुनासिब न समझा। अंदर जाकर बूटी छानी। हाजात-ए-ज़रूरी से फ़ारिग़ हुए। नहाया और पंडितों का लिबास पहन कर बाहर निकले। दुखी अभी तक वहीं पड़ा हुआ था। ज़ोर से पुकारा, “अरे दुखी, क्या पड़े ही रहोगे? चलो तुम्हारे ही घर चल रहा हूँ। सब सामान ठीक है न?”
दुखी फिर भी न उठा।

अब पण्डित जी को कुछ फ़िक्र हुआ। पास जा कर देखा तो दुखी अकड़ा हुआ पड़ा था। बदहवास हो कर भागे और पंडितानी से बोले,
“दुखिया तो जैसे मर गया।”

पंडितानी जी तअ'ज्जुब-अंगेज़ लहजे में बोलीं, “अभी तो लकड़ी चीर रहा था न!”
“हाँ लकड़ी चीरते-चीरते मर गया। अब क्या होगा?”

पंडितानी ने मुतमइन हो कर कहा, “होगा क्या। चमरवे में कहला भेजो, मुर्दा उठा ले जाएँ।”
दम के दम में ये ख़बर गाँव में फैल गई। गाँव में ज़्यादा-तर बिरहमन ही थे। सिर्फ़ एक घर गोंड का था। लोगों ने इधर का रास्ता छोड़ दिया। कुँए का रास्ता उधर ही से था। पानी क्यूँ कर भरा जाए। चमार की लाश के पास हो कर पानी भरने कौन जाए। एक बुढ़िया ने पण्डित जी से कहा, “अब मुर्दा क्यूँ नहीं उठवाते। कोई गाँव में पानी पिएगा या नहीं?”

उधर गोंड ने चमरवे में जा कर सबसे कह दिया, “ख़बरदार! मुर्दा उठाने मत जाना। अभी पुलिस की तहक़ीक़ात होगी। दिल लगी है कि एक ग़रीब की जान ले ली। पण्डित होंगें तो अपने घर के होंगे। लाश उठाओगे तो तुम भी पकड़े जाओगे।”
उसके बाद ही पण्डित जी पहुँचे। पर चमरवे में कोई आदमी लाश उठाने को तैयार न हुआ। हाँ दुखी की बीवी और लड़की दोनों हाय-हाय करती वहाँ से चलीं और पण्डित जी के दरवाज़े पर आ कर सर पीट कर रोने लगीं। उनके साथ दस-पाँच और चमारिनें थीं। कोई रोती थी, कोई समझाती थी पर चमार एक भी न था। पण्डित जी ने उन सबको बहुत धमकाया, समझाया, मिन्नत की। पर चमारों के दिल पर पुलिस का ऐसा रौब छाया, कि एक भी मन न सका। आख़िर ना-उम्मीद हो कर लौट आए।

(4)
आधी रात तक रोना पीटना जारी रहा। देवताओं का सोना मुश्किल हो गया, मगर लाश उठाने को कोई चमार न आया और बिरहमन चमार की लाश कैसे उठाए। भला ऐसा किसी शास्त्र-पुराण में लिखा है, कहीं कोई दिखा दे।

पंडितानी ने झुँझला कर कहा, “इन डायनों ने तो खोपड़ी चाट डाली। सभों का गला भी नहीं थकता।”
पण्डित ने कहा, “चुड़ैलों को रोने दो। कब तक रोएँगी। जीता था तो कोई बात न पूछता था। मगर मर गया तो शोर-ओ-ग़ुल मचाने के लिए सब की सब आ पहुँचीं।”

पण्डितानी, “चमारों का रोना मनहूस है।”
पण्डित, “हाँ बहुत मनहूस।”

पण्डितानी, “अभी से बू आने लगी।”
पण्डित, “चमार था सुसरा कहीं का। इन सभों को खाने पीने का कोई बिचार नहीं होता।”

पंडितानी, “इन लोगों को नफ़रत भी नहीं मालूम होती।”
पण्डित, “सब के सब भ्रष्ट हैं।”

रात तो किसी तरह कटी, मगर सुब्ह भी कोई चमार न आया। चमारनी भी रो पीट कर चली गई। बदबू फैलने लगी।
पण्डित जी ने एक रस्सी निकाली। उसका फंदा बना कर मुर्दे के पैर में डाला, और फंदे को खींच कर कस दिया। अभी कुछ-कुछ अंधेरा था। पण्डित जी ने रस्सी पकड़ कर लाश को घसीटना शुरू किया, और घसीट कर गाँव के बाहर ले गए।

वहाँ से आ कर फ़ौरन नहाए, दुर्गा पाठ पढ़ा और सर में गंगा जल छिड़का।
उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़, गिद्ध और कव्वे नोच रहे थे। यही उसकी तमाम ज़िंदगी की भगती, ख़िदमत और एतिक़ाद का इनआम था।


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